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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 575
    ऋषिः - पर्वतनारदौ काण्वौ देवता - पवमानः सोमः छन्दः - उष्णिक् स्वरः - ऋषभः काण्ड नाम - पावमानं काण्डम्
    3

    अ꣣स्म꣡भ्यं꣢ त्वा वसु꣣वि꣡द꣢म꣣भि꣡ वाणी꣢꣯रनूषत । गो꣡भि꣢ष्टे꣣ व꣡र्ण꣢म꣣भि꣡ वा꣢सयामसि ॥५७५॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ꣣स्म꣡भ्य꣢म् । त्वा꣣ । वसुवि꣡द꣢म् । व꣣सु । वि꣡द꣢꣯म् । अ꣣भि꣢ । वा꣡णीः꣢ । अ꣣नूषत । गो꣡भिः꣢꣯ । ते꣣ । व꣡र्ण꣢꣯म् । अ꣣भि꣢ । वा꣣सयामसि ॥५७५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अस्मभ्यं त्वा वसुविदमभि वाणीरनूषत । गोभिष्टे वर्णमभि वासयामसि ॥५७५॥


    स्वर रहित पद पाठ

    अस्मभ्यम् । त्वा । वसुविदम् । वसु । विदम् । अभि । वाणीः । अनूषत । गोभिः । ते । वर्णम् । अभि । वासयामसि ॥५७५॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 575
    (कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 3; मन्त्र » 10
    (राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 5; खण्ड » 10;
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    अगले मन्त्र में सोमनामक परमात्मा वा वैद्य को कहा गया है।

    पदार्थ

    प्रथम—परमात्मा के पक्ष में। हे सोम परमात्मन् ! (अस्मभ्यम्) हमारे लिए (वसुविदम्) ऐश्वर्य प्राप्त करानेवाले (त्वा अभि) आपको लक्ष्य करके (वाणीः) हमारी वाणियाँ (अनूषत) स्तुति कर रही हैं। हम (गोभिः) वेद-वाणियों द्वारा (ते) आपके (वर्णम्) स्वरूप को (अभिवासयामसि) अपने अन्दर बसाते हैं ॥ द्वितीय—वैद्य के पक्ष में। हे चिकित्सा के लिए सोम आदि ओषधियों का रस अभिषुत करनेवाले वैद्यराज ! (अस्मभ्यम्) हम रोगियों के लिए (वसुविदम्) स्वास्थ्य-सम्पत्ति प्राप्त करानेवाले (त्वा अभि) आपको लक्ष्य करके (वाणीः) हम कृतज्ञों की वाणियाँ (अनूषत) आपकी स्तुति कर रही हैं, अर्थात् आपके आयुर्वेद के ज्ञान की प्रशंसा कर रही हैं—यह रोगियों की उक्ति है। आगे वैद्य कहता है—हे त्वचारोग से ग्रस्त रोगी ! (गोभिः) गाय से प्राप्त होनेवाले दूध, दही, घी, मूत्र और गोबर रूप पञ्च गव्यों से हम (ते) तेरे, तेरी त्वचा के (वर्णम्) स्वाभाविक रंग को (अभिवासयामसि) पुनः तुझमें बसा देते हैं, अर्थात् कुष्ठ आदि रोग के कारण तेरी त्वचा के विकृत हुए रूप को दूर करके त्वचा का स्वाभाविक रंग ला देते हैं। इससे कुष्ठ आदि त्वचा-रोगों की पञ्चगव्य द्वारा चिकित्सा की जाने की सूचना मिलती है ॥१०॥ इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है ॥१०॥

    भावार्थ

    सब ऐश्वर्य देनेवाले परमात्मा के सत्य, शिव, सुन्दर, सच्चिदानन्दमय स्वरूप को हमें अपने हृदय में धारण करना चाहिए। इसी प्रकार श्रेष्ठ वैद्यों की बतायी रीति से पञ्चगव्यों द्वारा चिकित्सा से त्वचा आदि के रोग दूर करने चाहिएँ ॥१०॥

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    पदार्थ

    (अस्मभ्यम्) हमारे लिये (त्वा वसुविदम्) तुझ अध्यात्मधन प्राप्त कराने वाले परमात्मा को (वाणीः-अनूषत) वाणियाँ स्तुति करती हैं—प्रशंसित करती हैं “णु स्तुतौ” [अदादि॰] (गोभिः-ते वर्णम्) वाणियों—स्तुतियों द्वारा तेरे वरणीयस्वरूप को (अभिवासयामसि) हम घेरते हैं।

    भावार्थ

    हे शान्तस्वरूप परमात्मन्! तुझ अध्यात्मधन के प्राप्त कराने वाले को हमारी वाणियाँ स्तुत करती हैं—प्रशंसित करती हैं। हम भी तेरे वरणीय स्वरूप—आनन्दरूप को स्तुतियों द्वारा घेरते हैं—अपनाते हैं॥१०॥

    विशेष

    ऋषिः—पर्वतनारदावृषी (पर्ववान्—अत्यन्त तृप्तिमान् और नरविषयक ज्ञानदाता)॥<br>

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    विषय

    प्रभु के रंग में रंगा जाना

    पदार्थ

    प्रस्तुत मन्त्र के ऋषि पूर्वोक्त हैं। वे यह अनुभव करते हैं कि किस प्रकार प्रभु ने सोम के उत्पादन के द्वारा उन्हें उत्तम कर्मेन्द्रियाँ, उत्तम दक्षता = बल तथा उज्ज्वल रूप प्राप्त कराया है। ये सब वस्तुएँ [वसु] = निवास के लिए अत्यन्त आवश्यक हैं, अतः ये कहते हैं कि (अस्मभ्यम्) = हमारे लिए (वसुविदम्) = उत्तम पदार्थों को प्राप्त करानेवाले (त्वा) = आपको (वाणी:) = वेदवाणियाँ (अभि अनूषत) = सब ओर से, सब दृष्टिकोणों से स्तुत करती हैं। वेदों में विविध रूपों में उस प्रभु के गुणों का गान है। ऋषि लोग उन वाणियों के अर्थों का विचार करते हुए कहते हैं कि हे प्रभो! (गोभिः) = तत्त्वज्ञान देनेवाली इन वेदवाणियों के द्वारा (ते वर्णम्) = तेरे वर्ण को (अभिवासयामसि) = अपने में सर्वतः धारण करने का प्रयत्न करते हैं। तेरे रूप से अपने को आच्छादित करने के लिए यत्नशील होते हैं। 'तेरे रंग में रंगे जाएँ' यही हमारी कामना होती है।

    प्रभु का वर्ण=रूप क्या है? “आदित्यवर्णम्"= मैं उस प्रभु को 'आदित्य' के समान वर्णवाला जानता हूँ। ‘ब्रह्म सूर्यसमं ज्योति:'- ब्रह्म सूर्य के समान ज्योति है। उस ब्रह्म के ज्योतिर्मय रूप–वरेण्य भर्ग - को मैं भी धारण करता हूँ। प्रकाशतम मार्ग पर चलना मानव जीवन का लक्ष्य है। यही ‘शुक्ल-मार्ग' है-उत्तरायण है-मोक्षमार्ग है। ब्रह्म ‘विशुद्धा-चित्' हैं-मैं भी ज्ञानी बनूँ।

    भावार्थ

    वेदवाणियों का अध्ययन करता हुआ मैं प्रभु के 'ज्ञानमय दीप्तरूप' का धारण करनेवाला बनूँ।

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    विषय

    "Missing"

    भावार्थ

    भा० = ( अस्मभ्यं ) = हमें ( वसुविदं ) = प्राणों ऐश्वर्यों का ज्ञान, जीवन का लाभ कराने हारे ( त्वा) = तुझको ( वाणी:) = सब वेदवाणियां ( अनूषत ) =  यथार्थ वर्णन करती हैं । हे आत्मन् ! ( ते वर्णम् ) = तेरे वरण करने योग्य स्वरूप को ( गोभिः ) = इन वेदस्तुतियों द्वारा ( अभि वासयामसि ) = आच्छादित करते हैं, ढकते हैं, अलंकृत करते हैं ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः - पर्वतनारदौ काश्यप्याप्सरसौ वा । 

    देवता - इन्द्र:।

    छन्दः - उष्णिक्।

    स्वरः - ऋषभः। 

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ सोमाख्यं परमात्मानं वैद्यं चाह।

    पदार्थः

    प्रथमः—परमात्मपरः। हे सोमाख्य परमात्मन् ! (अस्मभ्यम्) नः (वसुविदम्) ऐश्वर्यस्य लम्भकम् (त्वा अभि) त्वाम् अभिलक्ष्य (वाणीः) अस्माकं वाण्यः (अनूषत) स्तुवन्ति। णु स्तुतौ, लडर्थे लुङि छान्दसं रूपम्। वयम् (गोभिः) वेदवाग्भिः (ते) तव (वर्णम्) स्वरूपम् (अभिवासयामसि) स्वात्मनि निवासयामः ॥ अथ द्वितीयः—वैद्यपरः। यः अभिषुणोति सोमाद्योषधीनां रसान् भैषज्यार्थं स सोमो वैद्यः।२ ‘हे वैद्यराज ! (अस्मभ्यम्) रुग्णेभ्यो नः (वसुविदम्) स्वास्थ्यसम्पत्प्रापकम् (त्वा अभि) त्वामभिलक्ष्य (वाणीः) कृतज्ञानामस्माकं वाचः (अनूषत) स्तुवन्ति, तव आयुर्वेदज्ञानं प्रशंसन्ति’ इत्यातुराणामुक्तिः। अथ वैद्योक्तिः—हे त्वग्रोगग्रस्त जन ! (गोभिः) गोविकारैः पयोदधिघृतमूत्रगोमयलक्षणैः वयम् (ते) तव (वर्णम्) स्वाभाविकं त्वग्रूपम् (अभिवासयामसि) त्वयि निवासयामः, कुष्ठादिरोगवशाद् विकृतं तव त्वग्रूपम् अपनीय स्वाभाविकं त्वग्वर्णं जनयाम इति भावः। एतेन कुष्ठादीनां त्वग्रोगाणां पञ्चगव्येन चिकित्सा सूचिता भवति ॥१०॥ अत्र श्लेषालङ्कारः ॥१०॥

    भावार्थः

    सर्वैश्वर्यप्रदस्य परमात्मनः सत्यं शिवं सुन्दरं सच्चिदानन्दमयं स्वरूपमस्माभिः स्वहृदये धारणीयम्। तथैव सद्वैद्योक्तरीत्या पञ्चगव्यचिकित्सया त्वगादीनां रोगा अपनेयाः ॥१०॥

    टिप्पणीः

    १. ऋ० ९।१०४।४ ऋषी पर्वतनारदौ, द्वे शिखण्डिन्यौ वा काश्यप्यावप्सरसौ। २. सोमम् सोमलताद्योषधिसारपातारम् (वैद्यम्) इति ऋ० २।११।११ भाष्ये द०।

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    O' God, the Vedas sing for our welfare, the virtues of Thee, the Bestower of knowledge and riches. Through Vedic verses we know Thy true nature !

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    Meaning

    Our songs of adoration celebrate and exalt you as creator, knower and giver of peace, power, wealth and honours of the world. Indeed, with thoughts, words and vision, we glorify your power and presence as it emerges in our experience. (Rg. 9-104-4)

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : (अस्मभ्यम्) અમારા માટે (त्वा वसुविदम्) તુજ અધ્યાત્મધન પ્રાપ્ત કરાવનાર પરમાત્માની (वाणीः अनूषत) વાણીઓ સ્તુતિ કરે છે-પ્રશંસિત કરે છે (गोभिः ते वर्णम्) વાણીઓ-સ્તુતિઓ દ્વારા તારા વરણીય સ્વરૂપને (अभिवासयामसि) અમે આચ્છાદિત કરીએ છીએ-અપનાવીએ છીએ. (૧૦)
     

    भावार्थ

    ભાવાર્થ : હે શાન્ત સ્વરૂપ પરમાત્મન્ ! તુજ અધ્યાત્મધનને પ્રાપ્ત કરાવનારી અમારી વાણીઓ સ્તુતિ કરે છે-પ્રશંસિત કરે છે. અમે પણ તારા વરણીય સ્વરૂપ-આનંદરૂપને સ્તુતિઓ દ્વારા આચ્છાદિત કરીએ છીએ-અપનાવીએ છીએ. (૧૦)
     

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    उर्दू (1)

    Mazmoon

    آپ کے آنند روپ کو اپنے میں بسائیں

    Lafzi Maana

    روحانی خزانوں کے دینے والے! ہمارے سُکھ، شانتی، کیلان کے لئے وید بانیاں آپ کی سُتتیاں گا رہی ہیں، اِن بانیوں کے ذریعے ہم آپ کے آنند سوروپ کو اپنے میں بساتے ہیں۔

    Tashree

    ہم کو سب سُکھ دینے والے ہے سوم! تمہیں کو گاتے ہیں، اِس بھگتی بھری بانی سے ہمارے پاپ میل دھل جاتے ہیں۔

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    सर्व ऐश्वर्य देणाऱ्या परमात्म्याचे सत्य, शिव सुंदर सच्चिदानंदमय स्वरूप आम्हाला आपल्या हृदयात धारण केले पाहिजे. याचप्रकारे श्रेष्ठ वैद्यांनी सुचविलेल्या पञ्चगव्याद्वारे चिकित्सा करून त्वचा इत्यादीचे रोग दूर केले पाहिजेत ॥१०॥

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    विषय

    सोम नाम परमेश्वराला आणि वैद्याला उद्देशून

    शब्दार्थ

    (प्रथम अर्थ) परमात्मपर)- हे सोम परमेश्वर, (अस्मभ्यम्) आम्हांसाठी (वसुविदम्) आपण ऐश्वर्यदायक आहात. (त्वा) (अभि) आपणास उद्देशून (वाणीः) आमची वाणी (अनूषत) आपली स्तुती करीत आहे. आम्ही (गो भिः) वेदवाणी द्वारे (ते) तुमच्या (वर्णम्) स्वरूपाला (अभिवासयामसि) आमच्या अंतःकरणात स्थापित करीत आहोत.।। द्वितीय अर्थ - (वैद्यपर)- उपचारासाठी सोम आदी औषधींचा रस अभिषुत करणारे वैद्यराज, (अस्मभ्यम्) आम्हा रोग्यांसाठी (वसुविदम्) स्वास्थ्यरूप संपदा देणाऱ्या अशा (त्वा अभि) आपणास उद्देशून आम्हा रोगीजनांत (वाणीः) वाणी (अनूषत) तुमची स्तुती करीत आहे, म्हणजे तुमच्या आयुर्वेदशास्त्रात ज्ञानाची प्रशंसा करीत आहे (इथपर्यंत रोगीजनांचे कथन आहे.) पुढे वैद्यराज म्हणतात- हे त्वचारोगाने त्रस्त रोगी मनुष्या, (गोभिः) गायीद्वारे प्राप्त होणाऱ्या दूध, दही, घृत, मूत्र व शेण या पंच गव्यांद्वारे आम्ही (ते) तुझ्या त्वचेच (वर्णम्) स्वाभाविक रंग पुन्हा (अभिवासयामसि) तुझ्या त्वचेत आणून देतो, म्हणजे कुष्ठ आदी रोगाने तुझ्या त्वचेचा जे रंग-रूप विकृत झाले होते, ते घालवून पूर्वीचा स्वाभाविक रंग आणतो. या वर्णनाने असे सूचित होते की त्वचा रोगांवर पंच गव्य चिकित्सा अत्यंत गुणकारी आहे.।।१०।।

    भावार्थ

    सर्व प्रकारचे ऐश्वर्य देणाऱ्या परमेश्वराचे सत्य, शिव, सुंदर, सच्चिदानंत स्वरूप आम्ही हृदयात धारण केले पाहिजे. तसेच श्रेष्ठ वैद्यांनी सांगितलेल्या पद्धतीने पंचगव्यांद्वारे उपचार करून रोगीजनांनी त्वचा आदीन्त होणारे रोग दूर करावेत.।।१०।।

    विशेष

    या मंत्रात श्लेषालंकार आहे.।।१०।।

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    तमिल (1)

    Word Meaning

    ஐசுவரியமளிக்கும் உன்னை என் மொழிகள் நாடினவன் நிறத்தை பால்களான உடைபோல், தரிக்கிறோம்.

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