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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 585
    ऋषिः - ऋजिश्वा भारद्वाजः देवता - पवमानः सोमः छन्दः - ककुप् स्वरः - मध्यमः काण्ड नाम - पावमानं काण्डम्
    4

    य꣢ उ꣣स्रि꣢या꣣ अ꣢पि꣣ या꣢ अ꣣न्त꣡रश्म꣢꣯नि꣣ नि꣡र्गा अकृ꣢꣯न्त꣣दो꣡ज꣢सा । अ꣣भि꣢ व्र꣣जं꣡ त꣢त्निषे꣣ ग꣢व्य꣣म꣡श्व्यं꣢ व꣣र्मी꣡व꣢ धृष्ण꣣वा꣡ रु꣢ज । ओ꣡३म् व꣣र्मी꣡व꣢ धृष्ण꣣वा꣡ रु꣢ज ॥५८५॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यः꣢ । उ꣣स्रि꣡याः꣢ । उ꣣ । स्रि꣡याः꣢꣯ । अ꣡पि꣢꣯ । याः । अ꣣न्तः꣢ । अ꣡श्म꣢꣯नि । निः । गाः । अ꣡कृ꣢꣯न्तत् । ओ꣡ज꣢꣯सा । अ꣢भि꣣ । व्र꣣ज꣢म् । त꣣त्निषे । ग꣡व्य꣢꣯म् । अ꣡श्व्य꣢꣯म् । व꣣र्मी꣢ । इ꣣व । धृष्णो । आ꣢ । रु꣣ज । ओ꣢३म् । व꣣र्मी꣡व꣢धृष्ण꣣वा꣡रु꣢ज ॥५८५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    य उस्रिया अपि या अन्तरश्मनि निर्गा अकृन्तदोजसा । अभि व्रजं तत्निषे गव्यमश्व्यं वर्मीव धृष्णवा रुज । ओ३म् वर्मीव धृष्णवा रुज ॥५८५॥


    स्वर रहित पद पाठ

    यः । उस्रियाः । उ । स्रियाः । अपि । याः । अन्तः । अश्मनि । निः । गाः । अकृन्तत् । ओजसा । अभि । व्रजम् । तत्निषे । गव्यम् । अश्व्यम् । वर्मी । इव । धृष्णो । आ । रुज । ओ३म् । वर्मीवधृष्णवारुज ॥५८५॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 585
    (कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 4; मन्त्र » 8
    (राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 5; खण्ड » 11;
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    अगले मन्त्र में सोम परमेश्वर का वर्णन किया गया है।

    पदार्थ

    (उस्रियाः अपि) निकलने योग्य होती हुई भी (याः) जो (अश्मनि अन्तः) मेघ के अन्दर रुक जाती हैं, उन (गाः) सूर्य-किरणों को (यः) जो आप (ओजसा) अपने प्रताप से (निर् अकृन्तत्) मेघ के बाहर निकाल देते हो, वह आप (गव्यम्) भूमि-सम्बन्धी और (अश्व्यम्) सूर्यसम्बन्धी (व्रजम्) मण्डल को (अभितत्निषे) चारों ओर विस्तीर्ण करते हो। हे (धृष्णो) विपत्तियों का धर्षण करनेवाले परमात्मन् ! आप (वर्मी इव) कवचधारी योद्धा के समान (आरुज) हमारी विपदाओं को और हमारे शत्रुओं को भग्न कर दो ॥८॥ इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। ‘उस्रियाः अपि याः अन्तरश्मनि’ का यदि यह अर्थ करें कि ‘जो बहती हुई भी पत्थर के अन्दर रुकी हुई हैं’ तो विरोध प्रतीत होता है, ‘बहने के योग्य होती हुई भी मेघ में निरुद्ध’ इस अर्थ से विरोध का परिहार हो जाता है। अतः विरोधाभास अलङ्कार है ॥८॥

    भावार्थ

    जैसे परमेश्वर मध्य में स्थित मेघ की बाधा को विच्छिन्न करके सूर्यकिरणों को भूमि पर प्रसारित कर देता है, वैसे ही जीवात्मा योगमार्ग में आये सब विघ्नों का विदारण कर सफलता प्राप्त करे ॥८॥ इस दशति में भी सोम नाम से परमात्मा का और उसके आनन्दरस का वर्णन होने से इस दशति के विषय की पूर्व दशति के विषय के साथ संगति है ॥ षष्ठ प्रपाठक में द्वितीय अर्ध की चतुर्थ दशति समाप्त ॥ पञ्चम अध्याय में एकादश खण्ड समाप्त ॥ पञ्चम अध्याय समाप्त ॥

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    पदार्थ

    (यः) जो सोम—शान्तस्वरूप परमात्मा (उस्रियाः) रश्मियों में—प्रकाशधाराओं में “उस्रा रश्मिनाम” [निघं॰ १.५] ‘इयाच् छन्दसि’ (अपि याः) ‘अप्याः’ अन्तरिक्ष में विचरण करने वाली द्रवधाराओं में “आपोऽन्तरिक्षनाम” [निघं॰ १.३] (अश्मनि-अन्तः) स्थिर पृथिवी स्थलियों में “स्थिरो वा अश्मा” [श॰ ९.१.२.५] (ओजसा) आत्म प्रभाव से (गाः) गतिविधियों को (निः-अकृन्तत्) निष्पादित करता है—प्रकट करता है (धृष्णो) हे धर्षणशील (गव्यम्-अश्व्यं व्रजम्-अभितत्निषे) हमारे इन्द्रिय सम्बन्धी तथा व्यापन गति वाले मन सम्बन्धी व्रज—गति स्थान को विकसित करता है (वर्मी-इव-आरुज) विपरीत इन्द्रियवृत्ति को और विपरीत मनोवृत्ति को कवची—कवचधारी की भाँति नष्ट कर दे (ओ३म्) हे ओ३म् इष्टदेव सोम—शान्तस्वरूप धर्षणशील परमात्मन्! तू विपरीत इन्द्रियवृत्ति और विपरीत मनोवृत्ति को नष्ट कर दे, द्विरुक्ति प्रकरण समाप्ति के लिये।

    भावार्थ

    जो शान्तस्वरूप परमात्मा सूर्यरश्मिसम्बन्धी प्रकाशधाराओं में अन्तरिक्ष सम्बन्धी द्रवणशील तत्त्वों में और पृथिवी सम्बन्धी धृतिस्तरों में अपनी गतिविधियों को प्रदर्शित करता है एवं वह तू परमात्मन्! हमारे इन्द्रियविषयक गति स्थान मनोविषयक विचार संस्थान को विपरीत भोग और विपरीत सङ्कल्प विकसित और उत्कृष्ट कर से हे धर्षणशील परमात्मन्! कवचधारी रक्षक की भाँति अपने बल से नष्ट कर दे। हे ओ३म् सोम परमात्मन्! तू अवश्य विपरीत भोग और विपरीत सङ्कल्प से हमारी रक्षा कर। हमें अपनी शरण दे, अवश्य हमारा रक्षक बन॥८॥

    टिप्पणी

    [*43. “चि नाशनेऽर्थेऽत्र। चयसे-चातमामसि” (निरु॰ ४.२५)।]

    विशेष

    ऋषिः—ऋजिश्वा (ऋजु या सत्यमार्ग में चलने वाला उपासक)॥ छन्दः—प्रगाथः॥<br>

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    विषय

    प्रभुरूपी कवचवाला

    पदार्थ

    (गाः) = वेदवाणियों को (निर् अकृन्तत्) = खूब विश्लिष्ट करता है, एक-एक शब्द को छाँट-छाँटकर उसमें निहित भाव को देखने का प्रयत्न करता है। यह वेदवाणियों का तर्क ऋषि के द्वारा अध्ययन करता है। तर्क से अनुसन्धान करता हुआ यह उन (उस्त्रिया:) = ज्ञान की किरणों को प्राप्त करता है (ये) = जो (अपि या:) = उस प्रभु को प्राप्त करानेवाली हैं। ये ज्ञान-किरणें वे हैं जो अन्तः (अश्मनि) = [अश्मा भवतु नस्तनू:] आङ्गिरस के पाषाणतुल्य दृढ़ शरीर के अन्दर निवास करती हैं। ऋजिष्वा का यह ज्ञान (ओजसा) = ओज के साथ होता है।

    इस प्रकार का जीवन बना सकना इसके लिए इसलिए सम्भव हुआ है कि यह व्(रजम्) = एक बाड़े को (अभितलिषे) = विस्तृत करता है, जो बाड़ा (गव्यं) = ज्ञानेन्द्रियरूप गौओं को घेरने के लिए है, और जो बाड़ा (अश्व्यम्) = कर्मेन्द्रियरूप अश्वों को घेरता है। यह इन्द्रियों को उस उस विषय से रोककर आत्मवश करने का प्रयत्न करता है। इस जितेन्द्रियता ने ही इसे ऋषि का मस्तिष्क तथा मल्ल का शरीर प्राप्त कराया है। अब यह आङ्गिरस ज्ञान का कवच [ब्रह्म वर्म ममान्तरम्] पहनकर कामादि शत्रुओं का पूर्ण संहार करता है । (वर्मी इव) = कवचवाले की भाँति हे (धृष्णो) = शत्रुओं का धर्षण करनेवाले ! (आरुज) = तू इनका पराजय कर डाल। ‘परन्तु इस विजय का कहीं तुझे गर्व न हो जाए, अतः (ओ३म् वर्मीव) = उस प्रभुरूप कवच को धारण करनेवाला बनकर (धृष्णो) = हे धर्षण करनेवाले! (आरुज) = शत्रुओं को भङ्ग कर, अर्थात् इस विजय को तू अपनी विजय मत समझ बैठ | यह सब उस प्रभु की शक्ति व कृपा से ही हुआ है ऐसा जान ।

    भावार्थ

    मैं प्रभु को अपना कवच बनाकर अन्तः शत्रुओं को छिन्न-भिन्न कर दूँ। मेरा ज्ञान ओजस्विता से युक्त हो । वज्र-तुल्य दृढ़ शरीर मेरी ज्ञान की किरणों का अधिष्ठान हो ।

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    विषय

    "Missing"

    भावार्थ

    भा० = ( यः ) = जो सोम ( उस्रिया: ) = ऊर्ध्व गति करने वाली ( अप्या:) = कर्म और ज्ञान की बनी हुई ( गाः ) = गतिशील इन्द्रियों को ( ओजसा ) = अपने बल से ( अन्तः अश्मनि ) = अश्मा=व्यापक या प्रस्तर के समान किसी से न हारने वाले परिपक्व  'अश्माखण' नामक मुख्य प्राण के भीतर ( निर्  अकृन्तत् ) = बनाता है, निर्माण करता है और जो ( गव्यं ) = ज्ञानसम्बन्धी और ( अश्व्यं ) = कर्म या मनः सम्बन्धी ( व्रजं ) = इन्द्रियगण को ( अभि तत्निषे ) = अपने चारों ओर विस्तारित करता है, हे ( धृष्णो ! ) = सबको विजय करने हारे परमात्मन् ! तू हमारे ( वर्मी इव ) = कवचधारी सुरक्षित योद्धा के समान ( आ रुज ) = सब विघ्न बाधाओं को दूर कर। 

    टिप्पणी

    ३८५ - 'अप्या अन्तरश्मनो' इति ऋ० ।
     

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः - ऋजिश्वा भारद्वाजः।

    देवता - पवमानः।

    छन्दः - प्रगाथ:। 

    स्वरः - मध्यमः। 

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ सोमः परमेश्वरो वर्ण्यते।

    पदार्थः

    (उस्रियाः अपि२) निस्सरणयोग्या अपि सत्यः (याः अश्मनि अन्तः) मेघाभ्यन्तरे अवरुद्धा भवन्ति ताः। अश्मा इति मेघनाम। निघं० १।१०। (गाः) सूर्यदीधितीः। गावः इति रश्मिनाम। निघं० १।५। (यः) यो भवान् (ओजसा) स्वप्रतापेन (निर् अकृन्तत्३) निस्सारयति। स त्वम् (गव्यम्) भूमिसम्बन्धिनम् (अश्व्यम्) सूर्यसम्बन्धिनं च। असौ वा आदित्यो अश्वः। तै० ३।९।२३।२। (व्रजम्) मण्डलम् (अभि तत्निषे) अभितो विस्तारयसि। हे (धृष्णो) विपद्धर्षणशील परमात्मन् ! त्वम् (वर्मी इव) कवचधारी योद्धेव (आरुज) अस्माकं विपदः शत्रून् वा विदारय ॥८॥ अत्रोपमालङ्कारः। किञ्च ‘उस्रियाः अपि प्रवहमाना अपि अन्तरश्मनि निरुद्धाः’ इति विरोधः। प्रस्रवणयोग्या अपि अश्मनि रुद्धा इति परिहारः। तेन विरोधाभासोऽलङ्कारः ॥८॥

    भावार्थः

    यथा परमेश्वरो मध्यस्था मेघबाधां विच्छिद्य सूर्यरश्मीन् भूमौ प्रसारयति, तथैव जीवात्मा योगमार्गे समागतान् सकलान् विघ्नान् विदार्य साफल्यमधिगच्छेत् ॥८॥ अत्रापि सोमनाम्ना परमात्मनस्तदानन्दरसस्य च वर्णनादेतद्दशत्यर्थस्य पूर्वदशत्यर्थेन सह संगतिरस्ति ॥ इति षष्ठे प्रपाठके द्वितीयार्द्धे चतुर्थी दशतिः ॥ इति पञ्चमेऽध्याये एकादशः खण्डः ॥ समाप्तश्च पञ्चमोऽध्यायः ॥ इति बरेलीमण्डलान्तर्गतफरीदपुरवास्तव्यश्रीमद्गोपालरामभगवती- देवीतनयेन हरिद्वारीयगुरुकुलकांगड़ीविश्वविद्यालयेऽधीतविद्येन विद्यामार्तण्डेन आचार्यरामनाथवेदालङ्कारेण महर्षिदयानन्द- सरस्वतीस्वामिकृतवेदभाष्यशैलीमनुसृत्य विरचिते संस्कृतार्य- भाषाभ्यां समन्विते सुप्रमाणयुक्ते सामवेदभाष्ये पावमानं  काण्डं पर्व वा समाप्तिमगात् ॥

    टिप्पणीः

    १. ऋ० ९।१०८।६ ‘अपि या अन्तरश्मनि’ इत्यत्र ‘अप्या अन्तरश्मनो’ इति पाठः। २. सायणस्तु ‘अपियाः’ इत्येकं पदं स्वीकृत्य “अपियाः अप्याः, आप इत्यन्तरिक्षनाम (निघं० १।३।८) अस्माद् ‘भवे छन्दसि’ पा० ४।४।११० इति यत्, अन्तरिक्षस्थाः” इति व्याख्यातवान्, तत्तु पदकारविरुद्धम्, पदपाठे ‘अपि याः’ इति विभिद्य दर्शनात्। भरतोऽपि ‘अपियाः अप्सु अन्तरिक्षे भवाः’ इत्येव व्याचष्टे। ३. समानेनाख्यानात् अत्र प्रथमपुरुषः। लोकेऽपि तथा दृश्यते, ‘य एवमकार्षीत् स त्वमिति’—इति भरतः।

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    The soul creates in the heart with its strength, the active, developing organs of cognition and action. It spreads the organs of cognition and action all around it. O God, the Conqueror of all, remove all obstacles like an armoured hero!

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    Meaning

    You who with your might and lustre break open the cloud and release the streams of water from the womb of the cloud, who pervade and extend your power over the vault of the universe, pray come like a warrior in arms and break open the paths of progress in knowledge and advancement. Spirit omnipotent, break open the paths of light. (Rg. 9-108-6)

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : (यः) જે સોમ શાન્ત સ્વરૂપ પરમાત્મા (उस्रियाः) કિરણોમાં-પ્રકાશ ધારાઓમાં (अपि याः) અન્તરિક્ષમાં વિચરણ કરનારી દ્રવધારાઓમાં (अश्मनि अन्तः) સ્થિર પૃથિવી સ્થાનોમાં (ओजसा) આત્મ પ્રભાવથી (गाः) ગતિવિધિઓને (निः अकृन्तत्) નિષ્પાદિત કરે છે—પ્રકટ કરે છે. (धृष्णो) હે ધર્ષણશીલ (गव्यम् अश्व्यं व्रजम् अभितत्निषे) અમારી ઇન્દ્રિયો સંબંધી તથા વ્યાપન ગતિવાળા મન સંબંધી વ્રજગતિ સ્થાનને વિકસિત કરે છે. (वर्मी इव आरुज) વિપરીત ઇન્દ્રિયવૃત્તિને તથા વિપરીત મનોવૃત્તિને કવચી-કવચધારીની સમાન નષ્ટ કરી દે. (ओ३म्) હે ઓમ્ ઇષ્ટદેવ સોમ-શાન્ત સ્વરૂપ ધર્ષણશીલ પરમાત્મન્ ! તું વિપરીત ઇન્દ્રિયવૃત્તિ અને વિપરીત મનોવૃત્તિને નષ્ટ કરી દે. (૮)
     

    भावार्थ

    ભાવાર્થ : હે શાન્ત સ્વરૂપ પરમાત્મા સૂર્યરશ્મિ સંબંધી દ્રવણશીલ તત્ત્વોમાં અને પૃથિવી સંબંધી ધૃતિસ્તરોમાં પોતાની ગતિ વિધિઓને પ્રદર્શિત કરે છે અને તે તું પરમાત્મન્ ! અમારા ઇન્દ્રિય વિષયક ગતિ સ્થાન અને મન વિષયક વિચાર સંસ્થાનની વિપરીત સંકલ્પ વિકસિત અને ઉત્કૃષ્ટ કર. હે ધર્ષણશીલ પરમાત્મન્ ! (ધર્ષણ = પરાજય) કવચધારી રક્ષકની સમાન તારા બળથી નષ્ટ કરી દે.
    હે ओ३म् સોમ પરમાત્મન્ ! તું અવશ્ય વિપરીત ભોગ અને વિપરીત સંકલ્પથી અમારી રક્ષા કર , અમને તારું શરણ પ્રદાન કર , અમારો રક્ષક બન-બની જા. (૮)
     

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    उर्दू (1)

    Mazmoon

    من اور اِندریوں کے دوشوں کو نشٹ کریں

    Lafzi Maana

    جو پرماتما اُوشا کی کِرنوں کو اپنی عظیم طاقت سے نکال کر چاروں طرف روشنی کو پھیلا دیتا ہے اور بادلوں کو کاٹ کر پانی کو نکال زمین پر گراتا ہے، اس طرح جو ارض و سما کو ہرا بھرا وسیع ترین کر دیتا ہے، ایسے ہے پرمیشور! آپ ہمارے من اور اِندریوں میں ہونے والے بگاڑ کو وِنشٹ کر دیجئے، جیسے فوجوں کو کمانڈر اپنے دشمنوں کا صفایا کر دیتا ہے، ہے اوم پاپ ناشک اِن سے ہماری رکھشا کیجئے!

    Tashree

    سورج سے شعاعوں کو لے کر میگھوں سے پانی برسا کر، کی ہری بھری دُنیا جیسے دو پاپ مِٹا ویسے آ کر۔

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    जसा परमेश्वर अंतरिक्षातील मेघाची बाधा विच्छिन्न करून सूर्यकिरणांना भूमीवर प्रसारित करतो, तसेच जीवात्म्याने योगमार्गात आलेल्या सर्व विघ्नांचे विदारण सफलतापूर्वक प्राप्त करावे ॥८॥

    टिप्पणी

    या दशतिममध्ये ही सोम नावाने परमात्म्याचे व त्याच्या आनंदरसाचे वर्णन असल्यामुळे या दशतिच्या विषयाची पूर्व दशतिच्या विषयाबरोबर संगती आहे

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    विषय

    सोम परमेश्वराचे वर्णन

    शब्दार्थ

    (उस्रियाः अपि) बाहर निघण्याची पात्रता वा सामर्थ्य असूनही (याः) ज्या सूर्य-किरणें (अश्मनि अन्तः) मेघमंडळात थांबून राहतात, त्या (गा.) सूर्य-किरणांना (यः) जो स्वतःच्या (ओजसा) प्रतापाने (निर् अकृन्ठम्) मेघाच्या बाहेर काढतो, असे आपण (गव्यम्) भूमिविषयी आणि (अश्वयम्) सूर्याविषयी (व्रजम्) मंडळाला (अभितलिषे) सर्व बाजूंनी विस्तृत करता हे (धृष्णो) संकटांचे चूर्ण करणारे परमेश्वर, आपण (वर्मी इव) कवचधारी योद्धाप्रमाणे (आरूज) आमच्यावरील विपत्तीना व आमच्या शत्रूंना भग्न करा. ।।८।।

    भावार्थ

    ज्याप्रमाणे परमेश्वर मध्यस्थित मेघांचा अवरोध दूर करून सूर्यकिरणे भूमीवर पाठवितो आणि फैलावतो. तद्वत जीवात्मा योगमार्गातील सर्व विघ्नांचे निराकरण करून यश संपादित करतो. ।।८।। या दशतीत सोम या नावाने परमेश्वराचे आणि त्यापासून मिळणाऱ्या आनंदरसाचे वर्णन केले आहे. त्यामुळे या दशतीतील विषयांशी मागील दशतीच्या विषयांची संगती आहे, असा जाणावे.।। षष्ठ प्रपाठकातील द्वितीय अर्धाची चतुर्य दशती समाप्त। पंचम अध्यायातील एकादश खंड समाप्त

    विशेष

    या मंत्रात उपमा अलंकार आहे. ‘उस्रियाः अपि याः अन्तरश्मनि’ या वाक्याचा जर असा अर्थ केला की ‘जी वाहत असूनही दगडामधे थांबलेली आहे’ तर या कथनात विरोध वाटतो, पण ‘वाहण्याचे सामर्थ्य असूनही जी मेघांनी रोखून धरली आहे’ असा अर्थ केल्यास त्या विरोधाचा परिहार होतो. म्हणून येथे विरोधाभास अलंकार आहे. ।।८।।

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    तमिल (1)

    Word Meaning

    எந்த சோமன் கிரணம் நிறைந்த ஆகாசத்தின் மேகத்தின் உள்ளேயுள்ள [1]பசுக்களை பலத்தால் பற்றுறானோ, இழுக்கிறானோ அந்த நீ [2]பசுக்களுடைய சமூகத்தை வியாபகஞ் செய்து கொள்ளுகிறாய். சத்துருவைக் கொல்லும் சோமனே! அசுரனைக் கொல்லவும்.

    FootNotes

    [1]பசுக்களை- மேகங்களை [2]பசுக்களுடைய சமூகத்தை-பிராணிகளில் வியாபகமாகி உன் சுவாதீனமாக்கினாய் அதாவது அனைவரும் உன் கீழேயாகும். இதுஆகாசத்தில் நிறையும் சோமனைப் பற்றியது.

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