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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 610
ऋषिः - ऋजिश्वा भारद्वाजः
देवता - विश्वे देवाः
छन्दः - जगती
स्वरः - धैवतः
काण्ड नाम - आरण्यं काण्डम्
2
वि꣡श्वे꣢ दे꣣वा꣡ मम꣢꣯ शृण्वन्तु य꣣ज्ञ꣢मु꣣भे꣢꣯ रोद꣢꣯सी अ꣣पां꣢꣯ नपा꣢꣯च्च꣣ म꣡न्म꣢ । मा꣢ वो꣣ व꣡चा꣢ꣳसि परि꣣च꣡क्ष्या꣢णि वोचꣳ सु꣣म्ने꣢꣫ष्विद्वो꣣ अ꣡न्त꣢मा मदेम ॥६१०॥
स्वर सहित पद पाठवि꣡श्वे꣢꣯ । दे꣣वाः꣢ । म꣡म꣢꣯ । शृ꣣ण्वन्तु । यज्ञ꣢म् । उ꣣भे꣡इति꣢ । रो꣡द꣢꣯सी꣣इ꣡ति꣢ । अ꣣पा꣢म् । न꣡पा꣢꣯त् । च । मन्म꣢ । मा । वः꣣ । व꣡चाँ꣢꣯सि । प꣣रिच꣡क्ष्या꣢णि । प꣣रि । च꣡क्ष्या꣢꣯णि । वो꣣चम् । सुम्ने꣡षु꣢ । इत् । वः꣣ । अ꣡न्त꣢꣯माः । म꣣देम ॥६१०॥
स्वर रहित मन्त्र
विश्वे देवा मम शृण्वन्तु यज्ञमुभे रोदसी अपां नपाच्च मन्म । मा वो वचाꣳसि परिचक्ष्याणि वोचꣳ सुम्नेष्विद्वो अन्तमा मदेम ॥६१०॥
स्वर रहित पद पाठ
विश्वे । देवाः । मम । शृण्वन्तु । यज्ञम् । उभेइति । रोदसीइति । अपाम् । नपात् । च । मन्म । मा । वः । वचाँसि । परिचक्ष्याणि । परि । चक्ष्याणि । वोचम् । सुम्नेषु । इत् । वः । अन्तमाः । मदेम ॥६१०॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 610
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » 3; मन्त्र » 9
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 6; खण्ड » 3;
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(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » 3; मन्त्र » 9
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 6; खण्ड » 3;
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भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
अगले मन्त्र के देवता विश्वेदेवाः है। उनके प्रति कहा जा रहा है।
पदार्थ
प्रथम—अध्यात्म-पक्ष में। (विश्वे देवाः) ज्ञानप्रकाशक शरीरस्थ सब मन, बुद्धि, ज्ञानेन्द्रिय रूप देव, (उभे रोदसी) प्राण-अपान दोनों, (अपां नपात् च) और प्राणों को पतित न होने देनेवाला जीवात्मा तथा परमेश्वर (मम) मेरे (यज्ञम्) विषय और इन्द्रियों के संसर्ग से प्राप्त होनेवाले (मन्म) विज्ञान को (शृण्वन्तु) पूर्ण करें। हे शरीरस्थ देवो ! (वः) तुम्हारे लिए, मैं (परिचक्ष्याणि) निन्दनीय (वचांसि) वचनों को (मा वोचम्) न बोलूँ—‘अहो, मेरा मन कुण्ठित हो गया है, बुद्धि कुण्ठित हो गयी है, इन्द्रियाँ अशक्त हो गयी हैं’ इत्यादि प्रकार से निराशा भरे वचन न कहूँ, प्रत्युत तुम्हारी शक्ति का गुणगान करते हुए तुम्हारे पास से अधिकाधिक लाभ प्राप्त करूँ। हम सभी (वः) तुम्हारे (अन्तमाः) निकटतम होकर (सुम्नेषु) तुम्हारे दिये हुए सुखों में (मदेम) तृप्त होवें ॥ द्वितीय—राष्ट्र-पक्ष में (विश्वे देवाः) सब विद्वान् लोग, (उभे रोदसी) दोनों राज-परिषदें अर्थात् सभा और समिति (अपां नपात् च) और प्रजाओं का पतन न होने देनेवाला राजा (मम) मेरे (यज्ञम्) राष्ट्रयज्ञ- विषयक (मन्म) विचार को (शृण्वन्तु) सुनें। हे उक्त देवो ! (वः) तुम्हारे लिए, मैं (परिचक्ष्याणि) निन्दायोग्य (वचांसि) वचन (मा वोचम्) न बोलूँ। हम (वः) तुम्हारे (अन्तमाः) निकटतम रहते हुए (सुम्नेषु) तुम्हारे दिये हुए सुखों में (मदेम) आनन्दित रहें ॥९॥ इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है ॥९॥
भावार्थ
मनुष्यों को चाहिए कि शरीरस्थ देव आत्मा, मन, बुद्धि, प्राण व इन्द्रियों की और राष्ट्रस्थ देव विद्वज्जन, राजमन्त्री, न्यायाधीश, राजा आदि की सहायता से सब प्रकार के उत्कर्ष को प्राप्त करें ॥९॥
पदार्थ
(विश्वे देवाः) समस्त विद्वान् वेदप्रवक्ता ऋषिजन “विश्वे देवाः सूक्तवाचः” [तै॰ सं॰ ३.३.२.१-२] (मम) मेरे (यज्ञम्) अध्यात्मयज्ञ को अनुमोदित करें—उसमें सहयोग देकर बढ़ावें (उभे रोदसी) दोनों द्यावापृथिवी “रोदसी द्यावावृथिवीनाम” [निघं॰ ३.३०] मेरे पिता और माता “द्यौर्मे पिता माता पृथिवी महीयम्” [ऋ॰ १.१६४.३३] भी अनुमोदन दें—पुष्ट करें। अथवा विश्वेदेव—इन्द्रियाँ “प्राणा वै विश्वेदेवाः” [तै॰ सं॰ ५.२.२.११] “प्राणा इन्द्रियाणि” [काठ॰ ८.१] और द्यावापृथिवी—प्राणोदान “द्यावीपृथिवी प्राणोदानौ” [श॰ ४.३.१.२२] (च) और (अपान्नपात्) आप्त उपासकों को न गिराने वाला—रक्षा करने वाला अपनाने वाला परमात्मा मेरे (मन्म) मननीय स्तुतिवचन “मन्मभिः-मननीयैः स्तोमैः” [निरु॰ १०.६] (शृण्वन्तु) सुनें—स्वीकार करें (वः) तुम्हारे लिये (परिचक्ष्याणि वचांसि) निन्दनीय वचनों को (मा वोचम्) मैं न बोलूँ—प्रतिकूल न आचरूँ (सुम्नेषु-इत्) तुमसे होने वाले सुखों के निमित्त (वः-अन्तमाः-मदेम) तुम्हारे समीप में रहकर हर्षित हों।
भावार्थ
हे सब मुमुक्षु ऋषियो! मेरे अध्यात्मयज्ञ को अनुमोदित करो पुष्ट करो बढ़ाओ, माता पिताओ एवं प्राणोदानो तुम भी बढ़ाओ, आप्त जीवन्मुक्तों का रक्षक अपनाने वाला परमात्मा मननीय स्तुतिवचन को सुने, स्वीकार करे मैं तुम्हारे लिये निन्दनीय वचन न बोलूँ—प्रतिकूल न आचरूँ। सुखों के निमित्त तुम्हारे समीप में हर्षित होवें॥९॥
विशेष
ऋषिः—भरद्वाजः (अमृतान्नभोग को अपने में भरने वाला उपासक)॥ देवता—विश्वेदेवाः॥ छन्दः—त्रिष्टुप्॥<br>
विषय
चार कामनाएँ
पदार्थ
'ऋजिष्वा भारद्वाज' प्रस्तुत मन्त्र का ऋषि है। यह ऋजु - अपने जीवन में सरल मार्ग से गति करता है [शिव गतौ ] । सरल मार्ग से चलने के कारण ही यह व्यर्थ की उलझनों से बचा रहता है-सुख की नींद सोता है और इसीलिए स्वस्थ व सबल बना रहता है–‘भारद्वाज' होता है। इसके अङ्ग प्रत्यङ्ग में शक्ति भरी होती है। यह अपने जीवन में जहाँ ज्ञान को महत्त्व देता है, वहाँ इसके साथ इसका जीवन यज्ञमय हाता है। यह प्रयत्न करता है कि इसके जीवन में कोई अयज्ञिय कर्म न हो।
यह चाहता है कि १. (विश्वे) = सब (देवा:) = भद्र पुरुष (मम) = मेरे (यज्ञम्) = यज्ञ को ही (शृण्वन्तु) सुनें। उन्हें कभी ऐसा सुनने को न मिले कि मैंने कोई अयज्ञिय कर्म किया है।
२. मैं (उभे रोदसी) = द्युलोक और पृथिवीलोक दोनों के (च) = तथा (अपां नपात्) = प्रजाओं का पतन न होने देनेवाले प्रभु के (मन्म) = ज्ञान को प्राप्त करूँ, अर्थात् पृथिवीलोक व द्युलोक का ज्ञान तो प्राप्त करूँ ही, इनके साथ मैं उस प्रभु का भी ज्ञान प्राप्त करूँ जो अपने स्मरण करनेवाली प्रजाओं का पतन नहीं होने देते। दोनों लोकों का ज्ञान प्रकृतिविद्या है तो प्रभु का ज्ञान ‘ब्रह्मविद्या'। ये दोनों ‘परा व अपरा' विद्याएँ हैं। दोनों का मैं पारंगत बनने का प्रयत्न करूँ।
३. हे (विश्वे देवाः!) मैं (वः) = आपका बनकर (परिचक्ष्याणि) = त्याज्य (वचांसि) = वचनों को (मा वोचम्) = न बोलूँ, अर्थात् मैं सदा शुभ ही शब्दों को बोलूँ।
४. (वः) = आपकी (सुम्नेषु) = स्तुतियों में (इत्) = निश्चय से (अन्तमा) = अन्तिकतम होते हुए (मदेम) = हम आनन्दित हों। जैसे देव लोग प्रभु का स्तवन करते हैं, उसी प्रकार प्रभु की स्तुति करते हुए हम विद्वानों के संग में आनन्द प्राप्त करें।
भावार्थ
हमारी चार कामनाएँ हों १. हमारा जीवन यज्ञिय हो, २. हम परा व अपरा विद्या में निष्णात हों, ३. हम कभी अपशब्द न बोलें तथा ४. प्रभु की स्तुति में निरत रहें।
विषय
"Missing"
भावार्थ
भा० = हे ( विश्वेदेवाः ) = समस्त दिव्यगुण सम्पन्न विद्वानो ! आप लोग ( मम ) = मेरे ( मन्म ) = मनन करने योग्य ( यज्ञम् ) = इष्ट उपासना को ( शृण्वन्तु ) = सुनो । वह ( उभे रोदसी ) = द्यौ और पृथिवी दोनों लोक और ( अपां नपात् च ) = समस्त प्रजाओं, प्रज्ञाओं और कर्मों का आश्रय ईश्वर भी उसको श्रवण करता है । ( वः ) = आपके ( वचांसि ) = वचनों को ( मा परिचक्ष्याणि ) = मैं परित्याग न करूं, प्रत्युत उनको ( सुम्नेषु इत् ) = सुख के अवसरों में भी ( वोचं ) = उच्चारण करूं । ( वः अन्तमाः ) = आप लोगों के अत्यन्त समीप ( मदेम ) = आनन्दित रहें ।
टिप्पणी
६१० 'यज्ञिया' इति ऋ० ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः - भारद्वाजः बार्हस्पत्य:।
देवता - विश्वेदेवाः।
छन्दः - त्रिष्टुप् ।
स्वरः - धैवतः।
संस्कृत (1)
विषयः
अथ विश्वेदेवाः देवताः। तान् प्रत्युच्यते।
पदार्थः
प्रथमोऽध्यात्मविषयकः। (विश्वे देवाः) ज्ञानप्रकाशकाः शरीरस्थाः सर्वे मनोबुद्धिज्ञानेन्द्रियरूपाः देवाः, (उभे रोदसी) उभौ प्राणापानौ, (अपां२ नपात् च) प्राणानां न पातयिता जीवात्मा परमेश्वरश्च (मम) मदीयम् (यज्ञम्) विषयेन्द्रियसंसर्गेण प्राप्यम् (मन्म) विज्ञानम् (शृण्वन्तु) पूरयन्तु। श्रवणार्थानां धातूनां पूरणार्थे बहुधा प्रयोगदर्शनात्। हे शरीरस्थाः देवाः ! (वः) युष्मदर्थम् अहम् (परिचक्ष्याणि) निन्द्यानि (वचांसि) वचनानि (मा वोचम्) न कथयेयम्—अहो, कुण्ठितं मदीयं मनः, कुण्ठिता बुद्धिः, अशक्तानि इन्द्रियाणि इत्यादिप्रकारेण निराशावचनानि नोच्चारयेयम्, प्रत्युत युष्मच्छक्तेर्गुणगानपूर्वकं युष्मत्सकाशादधिकाधिकं लाभं प्राप्नुयाम्। वयं सर्वेऽपि (वः) युष्माकं, पूर्वोक्तानां मनोबुद्धीन्द्रियप्राणजीवात्मनाम् (अन्तमाः३) निकटतमाः सन्तः (सुम्नेषु) युष्मत्प्रदत्तेषु सुखेषु (मदेम) तृप्येम ॥ अथ द्वितीयः—राष्ट्रविषयकः। (विश्वे देवाः) सर्वे विद्वांसः, (उभे रोदसी) उभे राजपरिषदौ—सभा समितिश्च। स॒भा च॑ मा॒ समि॑तिश्चावतां प्र॒जाप॑तेर्दुहि॒तरौ संविदा॒ने। अथर्व० ७।१२।१ इति मन्त्रोक्ते। (अपां नपात् च) प्रजानां न पातयिता राजा च (मम) मदीयम् (यज्ञम्) राष्ट्रयज्ञविषयकम् (मन्म) विचारम् (शृण्वन्तु) आकर्णयन्तु। हे उक्ताः देवाः ! (वः) युष्मदर्थम्, अहम् (परिचक्ष्याणि) निन्द्यानि (वचांसि) वचनानि (मा वोचम्) न प्रोच्चारयेयम्। वयम् (वः) युष्माकम् (अन्तमाः) अन्तिकतमाः सन्तः (सुम्नेषु) युष्मत्प्रदत्तेषु सुखेषु (मदेम) आनन्देम ॥९॥४ अत्र श्लेषालङ्कारः ॥९॥
भावार्थः
मनुष्यैः शरीरस्थानां देवानामात्ममनोबुद्धिप्राणेन्द्रियाणां, राष्ट्रस्थानां च देवानां विद्वदमात्यन्यायाधीशनृपत्यादीनां साहाय्येन सर्वविधः समुत्कर्षः साधनीयः ॥९॥
टिप्पणीः
१. ऋ० ६।५२।१४, ऋषिः ऋजिश्वा, ‘यज्ञमुभे’ इत्यत्र ‘यज्ञिया उभे’ इति पाठः। २. (अपाम्) प्राणानाम् (नपात्) अनाशकम् (मन्म) विज्ञानम् इति ऋ० ६।५२।१४ भाष्ये द०। ३. “अन्तः सामीप्यमेषामस्ति ते ऽन्तिकाः, अतिशयेनान्तिका अन्तमाः। अत्रान्तिकशब्दात् तमपि कृते पृषोदरादित्वात् तिकलोपः। अन्तमानाम् इत्यन्तिकनामसु पठितम्। निघं० २।१६” इति ऋ० १।४।३ भाष्ये द०। ४. ऋग्भाष्ये दयानन्दर्षिणा मन्त्रोऽयं विद्वत्परो व्याख्यातः।
इंग्लिश (2)
Meaning
O all learned persons, pray listen to my reflective prayer. May the Barth and Heaven and God even listen to it. May I never disobey Your commands, rather remember them at times of festivity. May we remain in happiness in Your utmost proximity !
Meaning
O Vishvedevas, adorable leading lights, protective like both earth and sky, the fire divine, listen to my thought and word. Never shall I speak any words against your life sustaining powers and science worthy of universal celebration. Pray let us rejoice at the closest with you in comfort and joy of all aspects of life. (Rg. 6-52-14)
गुजराती (1)
पदार्थ
પદાર્થ : (विश्वेदेवाः) સમસ્ત વિદ્વાન વેદ પ્રવક્તા ઋષિજન (मम) મારા (यज्ञम्) અધ્યાત્મયજ્ઞને અનુમોદિત કરે-તેમાં સહયોગ આપીને વૃદ્ધિ કરે (उभे रोदसी) બન્ને દ્યાવા પૃથિવી મારા પિતા અને માતા પણ અનુમોદન કરે-પુષ્ટ કરે. અથવા વિશ્વેદેવ-ઇન્દ્રિયો અને દ્યાવા પૃથિવી-પ્રાણ-ઉદાન (च) અને (अपान्नपात्) આપ્ત ઉપાસકોને ન પાડનાર-રક્ષા કરનાર અપનાવનાર પરમાત્મા મારા (मन्म) મનનીય સ્તુતિ વચન (श्रृण्वन्तु) સાંભળે-સ્વીકાર કરે (वः) તમારા માટે (परिचक्ष्याणि वचांसि) નિંદાના વચનોને (मा वोचम्)હું ન બોલું - પ્રતિકૂળ આચરણ ન કરું (सुम्नेषु इत्) તમારાથી મળનારા સુખોને માટે (वः अन्तमाः मदेम) તમારી અત્યંત નજીક રહીને આનંદમાં રહું. (૯)
भावार्थ
ભાવાર્થ : હે સર્વ મુમુક્ષુ ૠષિઓ મારા અધ્યાત્મયજ્ઞનું અનુમોદન કરો, પુષ્ટ કરો, વૃદ્ધિ કરો, માતા-પિતાઓ અને પ્રાણ-ઉદાનો તમે પણ વૃદ્ધિ કરો, આપ્ત, જીવન્મુક્તોના રક્ષક, અપનાવનાર પરમાત્મા મનનીય સ્તુતિ વચનોને સાંભળે, સ્વીકાર કરે, હું તમારા માટે નિંદાના વચન ન બોલું, પ્રતિકૂળ આચરણ ન કરું. સુખોને માટે તમારી અત્યંત નજીક રહીને આનંદમાં રહું. (૯)
उर्दू (1)
Mazmoon
کِسی کے متعلق گھٹیا باتیں نہ بولیں!
Lafzi Maana
ہے پرمیشور! نیک کاموں کے محافظ!! سارے عالم اور زمین آسمان کے اندر سبھی بسنے والے راجہ، پرجا، امیر، کبیر، فقیر ہمارے یگ آدی نیک کاموں کو دیکھیں اور سُنیں، ہم آپ کی نندا (گھٹیا باتیں) کے کلمات کبھی نہ بولیں۔ آپ کے نزدیک رہ کر سُکھی ہوں۔
Tashree
یک کرتے ہم، دیکھیں سب جن اور سُنیں اِس کی بانی، بُری زبان نہ کہیں کسی سے رہیں نکٹ تیرے جگ بانی۔
मराठी (2)
भावार्थ
माणसांनी शरीरस्थ देव, आत्मा, मन, बुद्धी, प्राण व इंद्रियांच्या, तसेच राष्ट्रातील देव, विद्वान, राजमंत्री, न्यायाधीश, राजा इत्यादींच्या साह्याने सर्व प्रकारचा उत्कर्ष साधावा ॥९॥
विषय
विश्वेदेवाः देवता। त्यांना उद्देशून कथन
शब्दार्थ
(प्रथम अर्थ) (अध्यात्मपर) - (विश्वेदेवाः) ज्ञानाचे जे प्रकाशक ते शरीरस्य माझे मन, बुद्धी, ज्ञानेंद्रिये रूप सर्व देवता, (उभे रोदसी) प्राण व अपान दोन्ही (अपां न पात् च) आणि प्राणांना पतनापासून रोकणारा जीवात्मा व परमेश्वर या सर्वांनी (मम) माझ्या (यज्ञम्) विषय आणि इंद्रिये यांच्या संसर्गापासून प्राप्त होणाऱ्या (मन्भ) विज्ञानाला (शृण्वन्तु) पूर्ण करावे. हे शरीरस्य देवगण हो, (वः) तुमच्यासाठी मी (परिचक्ष्याणि) निंदनीय (वचांसि) वचन (मा वाचम्) कधीही उच्चारू नये. म्हणजे हा! ‘माझे मन कुंठित झाले आहे,’ बुद्धी काम देईनाशी झालीफ असे नैराश्यपूर्ण वचन मी कधीही बोलूं नये, याउलट तुमच्या शक्तीचे गुण गात मी तुमच्यापासून अधिकाधिक लाभ प्राप्त करावे. आम्ही सर्वजण (वः) तुमचे (अन्तमाः) निकटवर्ती होऊन (सुम्नेषु) तुम्ही देत असलेल्या सुखांद्वारे (मदेम) तृप्त रहावे.।। द्वितीय अर्थ - (राष्ट्रपर) विश्वे देवाः) सर्व विद्वज्जम, (उभे रोदसी) दोन्ही राज-परिषदा म्हणजे सभाव समिती तसेच अपां न पात्च) प्रजाजनांना पति होण्यापासून वाचविणारा राजा या सर्वांनी (मम) माझ्या (यज्ञम्) राष्ट्रविषयक (मन्म) विचारांना (शृष्वन्तु) ऐकावे (मी एक सूज्ञ नागरिक सुचवीत असलेल्या विचारांवर वा प्रस्तावावर विचार करावा) हे देवगण हो (राजा व राजसभा-सदस्य हो) मी (वः) तुमच्याविषयी (परिचक्ष्याणि) निंदनीय वा अभद्र (वचांसि) वचन कधीही (मा वोचम्) उधारूं नये. आम्ही प्रजाजन (वः) तुमच्या (अन्तमाः) घनिष्ठ सान्निध्यात राहून (सुम्नेषु) तुम्ही आमच्यासाठी केलेल्या सुखसोयीमुळे (मदेम) सदे आनंदित राहू (असे होऊ द्यावा असे व्हावे)।।९।।
भावार्थ
सर्व मनुष्यांचे कर्तव्य आहे की त्यांनी शरीरस्थ देव म्हणजे आत्मा, मन, बुद्धी, प्राण व इंद्रिये यांच्या साह्याने तसेच राष्ट्रस्थ देव म्हणजे विद्वज्जन, राजमंत्री, न्यायाधीश व राजा आदीच्या साह्याने सर्वप्रकारे आपला उत्कर्ष साध्य करावा.।।९।।
विशेष
या मंत्रात श्लेषालंकार आहे.।।९।।
तमिल (1)
Word Meaning
எங்கள் யக்ஞத்தை நாடும் எல்லா தேவர்களும் என் மனோ துதிகளை கேட்கட்டும்; சலத்தின் மகனும் வானமும் பூமியும் கேட்கட்டும்; நீங்கள் அலட்சியஞ் செய்யும் மொழிகளை என் மொழியப் போவதில்லை; உங்களுடன் நெருங்கி நாங்கள் சந்தோஷமுடனாகலாமோ!
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