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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 617
ऋषिः - नारायणः
देवता - पुरुषः
छन्दः - अनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
काण्ड नाम - आरण्यं काण्डम्
2
स꣣ह꣡स्र꣢शीर्षाः꣣ पु꣡रु꣢षः सहस्रा꣣क्षः꣢ स꣣ह꣡स्र꣢पात् । स꣢꣯ भूमि꣢꣯ꣳ स꣣र्व꣡तो꣢ वृ꣣त्वा꣡त्य꣢तिष्ठद्द꣣शाङ्गुल꣢म् ॥६१७॥
स्वर सहित पद पाठस꣣ह꣡स्र꣢शीर्षाः । स꣣ह꣡स्र꣢ । शी꣣र्षाः । पु꣡रु꣢꣯षः । स꣣हस्राक्षः꣢ । स꣣हस्र । अक्षः꣢ । स꣣ह꣡स्र꣢पात् । स꣣ह꣡स्र꣢ । पा꣣त् । सः꣢ । भू꣡मि꣢꣯म् । स꣣र्व꣡तः꣢ । वृ꣣त्वा꣢ । अ꣡ति꣢꣯ । अ꣣तिष्ठत् । दशाङ्गुल꣢म् । द꣣श । अङ्गुल꣢म् ॥६१७॥
स्वर रहित मन्त्र
सहस्रशीर्षाः पुरुषः सहस्राक्षः सहस्रपात् । स भूमिꣳ सर्वतो वृत्वात्यतिष्ठद्दशाङ्गुलम् ॥६१७॥
स्वर रहित पद पाठ
सहस्रशीर्षाः । सहस्र । शीर्षाः । पुरुषः । सहस्राक्षः । सहस्र । अक्षः । सहस्रपात् । सहस्र । पात् । सः । भूमिम् । सर्वतः । वृत्वा । अति । अतिष्ठत् । दशाङ्गुलम् । दश । अङ्गुलम् ॥६१७॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 617
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » 4; मन्त्र » 3
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 6; खण्ड » 4;
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(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » 4; मन्त्र » 3
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 6; खण्ड » 4;
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भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
अगली पाँच ऋचाओं का पुरुष देवता है। परम पुरुष परमात्मा का वर्णन करते हैं।
पदार्थ
(पुरुषः) सबका अग्रनेता, सब जगत् में परिपूर्ण और सबका पालनकर्ता परमेश्वर (सहस्रशीर्षाः) सहस्रों सिरोंवाला अर्थात् अनन्तज्ञानी, (सहस्राक्षः) सहस्रों आँखोंवाला अर्थात् सर्वद्रष्टा, और (सहस्रपात्) सहस्रों पैरोंवाला अर्थात् सर्वत्र व्याप्त है। (सः) वह (भूमिम्) पृथिवी को (सर्वतः) सब ओर से (वृत्वा) घेरकर (दशाङ्गुलम्) दसों इन्द्रियों को (अति) अतिक्रान्त करके (अतिष्ठत्) स्थित है, अर्थात् दसों इन्द्रियों की पहुँच से परे है। कहा भी है—न वहाँ आँख की पहुँच है, न वाणी की, न मन की (केन उप० १।३) ॥३॥ यास्काचार्य पुरुष शब्द का निर्वचन करते हुए लिखते हैं—पुरी में बैठने से या पुरी में शयन करने से पुरुष कहाता है (पुरिसद् या पुरिश=पुरुष) अथवा यह वृद्ध्यर्थक पूरी धातु से निष्पन्न हुआ है (पूरी आप्यायने)। अन्तःपुरुष परमात्मा को पुरुष इस कारण कहते हैं, क्योंकि वह सारे ब्रह्माण्ड को अपनी सत्ता से पूर्ण किये हुए है। कहा भी है, जिससे अधिक पर या अपर कोई वस्तु नहीं है, जिससे अधिक अणु या महान् कोई वस्तु नहीं है, वह एक पुरुष परमेश्वर वृक्ष के समान निश्चल होकर अपने तेजःस्वरूप में स्थित है, उस पुरुष से यह सकल ब्रह्माण्ड परिपूर्ण है (निरु० २।३) ॥ इस मन्त्र में सहस्र सिरवाला होने आदि रूप तथा भूमि में सर्वत्र व्यापक होने रूप कारण के विद्यमान होते हुए भी इन्द्रियगोचर होने रूप कार्य की उत्पत्ति न होने से विशेषोक्ति अलङ्कार है ॥३॥
भावार्थ
सबको उचित है कि सर्वज्ञाता, सर्वद्रष्टा, सर्वव्यापक, सर्वत्र भूगोल को व्याप्त करके स्थित, तथापि वाणी, आँख, कान, हाथ, पैर आदि की पहुँच से परे विद्यमान परमपुरुष परमात्मा का साक्षात्कार करके अनन्त सुख का भोग करें ॥३॥
पदार्थ
(सहस्रशीर्षा) असंख्यात “सहस्रं बहुनाम” [निघं॰ ३.१] शिरों वाला अनन्तज्ञानशक्तिमान् (सहस्राक्षः) असंख्यात नेत्रों वाला—अनन्तदर्शनशक्तिमान् (सहस्रपात्) असंख्य पादों वाला—अनन्तगतिशक्तिमान् (पुरुषः) सृष्टि में पूर्ण पुरुष परमात्मा है (सः) वह (भूमिं सर्वतः-वृत्वा) भुवन—जगत् को सब ओर से घेरकर—व्याप्त होकर (दशाङ्गुलम्-अत्यतिष्ठत्) दशाङ्गुल परिमाण वाले—दश अङ्गुलि सङ्केतों से गिने जाने वाले पञ्चस्थूल भूत पञ्च सूक्ष्मभूतरूप जगत् को या दशाङ्गुलिसम्पुट—दोनों हाथों की मुट्ठी में वश किए ब्रह्माण्डगोल को अतिक्रमण कर उससे भी बाहिर अनन्तरूप से रहता है “त्वमस्य पारे रजसो व्योमनः” [ऋ॰ १.५२.१२] परमात्मन्! तू आकाश के भी पार है “पादोऽस्य विश्वा भूतानि त्रिपादस्यामृतं दिवि” [ऋ॰ १०.९०.३]।
भावार्थ
समस्त जगत् का रचयिता परमपुरुष परमात्मा इस जगत् के अन्दर पूर्ण हुआ अनन्तज्ञान शक्तिमान्, अनन्तदर्शन शक्तिमान् अनन्तगति शक्तिमान् है, जगत् के सब पदार्थ उसके ज्ञान में हैं। सब जीवों के कर्मों को जानता है। सब उसकी दृष्टि में हैं। सबको गति देता है। समस्त जगत् में व्याप्त है। सब जगत् उसके सम्मुख सीमित है कारण कि उससे बाहिर भी अनन्त है। उसकी शरण परमकल्याणप्रद है॥३॥
विशेष
ऋषिः—नारायणः (नाराः—नर जिसके सूनुसन्तान हैं ऐसे “आपः-नाराः” अयनज्ञान का आश्रय जिसका हो)॥ देवता—पुरुषः (सृष्टिपुर में बसा हुआ पूर्णपुरुष परमात्मा)॥ छन्दः—अनुष्टुप्॥<br>
विषय
संसार का निर्माता प्रभु
पदार्थ
एक छोटी-सी घड़ी का निर्माण करनेवाला शिल्पी कितना कुशल व तीव्र मस्तिष्कवाला प्रतीत होता है। घड़े को बनानेवाला कुम्हार कितनी विलक्षण आँख की शक्तिवाला है। किसी एक साधारण सी वस्तु के निर्माण करनेवाले को भी किस प्रकार भाग-दौड़ करनी पड़ती है? इन सब वस्तुओं का निर्माण करनेवालों के मस्तिष्क, चक्षु व पाँवों की शक्ति का ध्यान करते हुए जब एक भक्त इस अनन्त से संसार के निर्माता का ध्यान करता है तो कह उठता है कि- (सहस्त्रशीर्षाः पुरुषः) = वह प्रभु तो अनन्त सिरोंवाला होगा। इस सारे ब्रह्माण्डरूप पुर में निवास करनेवाला [पुरि वसति] वह प्रभु कितने महान् मस्तिष्कवाला होगा? (सहस्त्राक्षः) = उसकी आँखे अनन्त होंगी और (सहस्रपात्) = उसके पाँव भी अनन्त होंगे। क्या कोई ऐसा स्थान भी होगा जहाँ उस प्रभु की सोचने, देखने व चलने की शक्ति का अभाव हो । नहीं! वह तो सर्वत्र व्यापक ज्ञानमय है, सर्वद्रष्टा है, तथा सर्वशक्तिमान् है। प्राणी के मस्तिष्क में भी उसी प्रभु की शक्ति का अंश है, आँखों में उसी प्रभु की दर्शनशक्ति काम कर रही है और पाँव में चलने की शक्ति भी उसी की दी हुई है।
इतना ही नहीं, वे प्रभु इस ब्रह्माण्ड से भी सीमित नहीं हो गये। (सः) = वे प्रभु (भूमिम्) = [भवतीति] इस उत्पन्न ब्रह्माण्ड को (सर्वतः) = चारों ओर से (वृत्वा) = आवृत्त करके (दशांगुलम्) = इस दशांगुल ब्रह्माण्ड को (अत्यतिष्ठत्) = लाँघ कर विद्यमान हैं। गर्भ जैसे माता के एक देश में होता है उसी प्रकार यह सारा ब्रह्माण्ड उस प्रभु के एक देश में है - वे प्रभु ‘हिरण्यगर्भ' हैं—सारे ज्योतिर्मय पिण्डों को अपने गर्भ में लिये हुए हैं। यह सारा संसार उस प्रभु के सामने दशांगुल मात्र है। पञ्च तन्त्रात्माओं व पञ्चस्थूलभूतों का खेल होने से भी ये ‘दशांगुल' हैं। प्रभु इस दशांगुल संसार से परे भी रह रहें हैं। जीव का हृदय भी दशांगुल कहलाता है - प्रभु का दर्शन जीव इस दशांगुल हृदय में ही करता है। प्रभु का यही 'परम परार्ध'=सर्वोत्कृष्ट निवास स्थान है।
इस प्रकार प्रभु का ध्यान करनेवाला व्यक्ति प्रभु को नार= नरसमूह है अयन=निवासस्थान जिसका, उस ‘नारायण' के रूप में देखता है और स्वयं भी नरसमूह का शरण बनता हुआ 'नारायण' हो जाता है।
भावार्थ
नारायण का स्मरण करते हुए मैं नारायण ही बन जाऊँ।
विषय
"Missing"
भावार्थ
भा० = ( सहस्रशीर्षा: ) = सहस्रों शिरों वाला, ( सहस्राक्ष: ) = हज़ारों आखों वाला, ( सहस्रपात् ) = हज़ारों पगों वाला, ( पुरुषः ) = पुरुष, ईश्वर विराट् ( सः ) = वह ( भूमिम् ) = ब्रह्माण्ड नामक भुवन को ( वृत्वा ) = घेरकर, व्याप्त होकर और भी ( दशाङ्गुलम् ) = दश अंगुल अर्थात् दशों दिशाओं से भी ( अति अतिष्ठत् ) = परे तक विराजमान है।
१० अङ्गुल - परमात्मा के दशों दिशा में फैलने वाली व्यापक शक्तियां हैं। आत्मपक्ष में भूमि - नाभि, दश अगुल दश इन्द्रिय । सर्वव्यापक सर्वान्तर्यामी और सब का नियामक होने से समस्त प्राणियों के लक्षों शिर, आंखों और पैरों को लक्ष्य करके ईश्वर को सहस्रशीर्षा आदि विशेषणों से गौण रूप से दर्शाया है। अथवा ब्रह्माण्डगत नाना द्यौलोक उस के शिर प्रकाशमान नाना सूर्य उसकी चक्षुएं और नाना वास योग्य भूमियां उसके चरण हैं।
टिप्पणी
६१७ – ‘स भूमिं विश्वता धृत्वा' इति ऋ० । 'सर्वतः स्पृत्व' इति पाठभेदः यजुः • । 'सहस्रशीर्षा' इति यजुः० ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः - नारायणः।
देवता - पुरुषः।
छन्दः - अनुष्टुप्।
संस्कृत (1)
विषयः
अथ पञ्चानां पुरुषो देवता। परमपुरुषं परमात्मानं वर्णयति।
पदार्थः
(पुरुषः) सर्वेषाम् अग्रणीः, सर्वस्मिन् जगति परिपूर्णः, सर्वेषां पालयिता वा परमेश्वरः। पुर अग्रगमने, पॄ पालनपूरणयोः इति वा धातोः ‘पुरः कुषन्’। उ० ४।७५ इति कुषन् प्रत्ययः। (सहस्रशीर्षाः) सहस्राणि असंख्यातानि शीर्षाणि शिर उपलक्षितानि ज्ञानानि यस्य सः। ‘शीर्षंश्छन्दसि’। अ० ६।१।६० इति शिरःशब्दपर्यायः शीर्षन् शब्दो वेदे प्रोक्तः, अत्र तस्य सान्तत्वम्। (सहस्राक्षः२) सहस्राणि (अक्षीणि) दर्शनसामर्थ्यानि यस्य सः। छान्दसः समासान्तोऽच् प्रत्ययः। (सहस्रपात्३) सहस्राणि असंख्याताः पादाः व्याप्तयः यस्य तादृशश्च विद्यते। संख्यासुपूर्वस्य। अ० ५।४।१४० इति पादस्यान्तलोपः। परमेश्वरस्य निरवयवत्वात् अत्र शीर्षशब्देन मस्तिष्कशक्तिः अक्षिशब्देन दर्शनशक्तिः, पादशब्देन च व्यापनशक्तिर्लक्ष्यते। सोऽनन्तबुद्धिरनन्तदर्शनः सर्वव्यापकश्च विद्यते इत्यर्थः। किञ्च (सः) असौ (भूमिम्) पृथिवीम् (सर्वतः) परितः (वृत्वा) आवृत्य (दशाङ्गुलम्४) दश च तानि अङ्गुलानि इन्द्रियाणि तेषां समाहारः दशाङ्गुलम् तत् (अति अतिष्ठत्) अतिक्रम्य तिष्ठति, दशेन्द्रियाणामगोचर इत्यर्थः। न तत्र चक्षुर्गच्छति न वाग् गच्छति नो मनः (केन० १।३) इत्यादिश्रुतेः ॥३॥५ यास्काचार्यः पुरुषशब्दमेवं निर्वक्ति—पुरुषः पुरुषादः पुरिशयः पूरयतेर्वा। पूरयत्यन्तरित्यन्तः पुरुषमभिप्रेत्य। “यस्मात् परं नापरमस्ति किञ्चिद् यस्मान्नाणीयो न ज्यायोऽस्ति किञ्चिद्। वृक्ष इव स्तब्धो दिवि तिष्ठत्येकस्तेनेदं पूर्णं पुरुषेण सर्वम्” इत्यपि निगमो भवति, इति। निरु० २।३ ॥ अत्र सहस्रशीर्षत्वादिरूपस्य भूमौ सर्वत्र व्यापकत्वरूपस्य च कारणस्य सद्भावेऽपि इन्द्रियगोचरत्वरूपकार्यानुत्पत्तेर्विशेषोक्तिरलङ्कारः ॥३॥
भावार्थः
सर्वविद्यं सर्वद्रष्टारं सर्वव्यापकं सर्वतो भूगोलमावृत्य स्थितं तथापि वाक्चक्षुःश्रोत्रहस्तपादाद्यगोचरं परमपुरुषं परमात्मानं साक्षात्कृत्य सर्वैरनन्तसुखभोगः कार्यः ॥३॥
टिप्पणीः
१. ऋ० १०।९०।१, ‘सहस्रशीर्षा’, इति ‘सर्वतो’ इत्यत्र च ‘विश्वतो’ इति पाठः। य० ३१।१, ‘सहस्रशीर्षा’ इति, ‘सर्वतो वृत्वा’ इत्यत्र च ‘सर्वतः स्पृत्वा’ इति पाठः। अथ० १९।६।१, ‘सहस्रशीर्षाः’, ‘सर्वतो’ इत्यत्र ‘सहस्रबाहुः’, ‘विश्वतो’ इति च पाठः। २,३. अक्षिग्रहणं सर्वज्ञानेन्द्रियोपलक्षकम्। पादग्रहणं कर्मेन्द्रियोप- लक्षकम्—इति यजुर्भाष्ये म०। ४. दश च तानि अङ्गुलानि दशाङ्गुलानि इन्द्रियाणि। केचिदन्यथा रोचयन्ति दशाङ्गुलप्रमाणं हृदयस्थानम्। अपरे तु नासिकाग्रं दशाङ्गुलमिति शौनकः (उवटकृते यजुर्भाष्ये शौनकनाम्ना उद्धृतम्)। नाभेः सकाशाद् दशाङ्गुलमतिक्रम्य हृदि स्थितः इति तत्रैव महीधरस्य वैकल्पिकोऽर्थः। (दशाङ्गुलम्) पञ्च स्थूलसूक्ष्मभूतानि दश अङ्गुलानि अङ्गानि यस्य तज्जगत्—इति तत्रैव द०। ५. यजुर्भाष्ये दयानन्दर्षिरपि मन्त्रमिमं परमात्मपक्षे व्याख्यातवान्, (पुरुषः) सर्वत्र पूर्णो जगदीश्वर इति।
इंग्लिश (2)
Meaning
The Almighty God, hath the power of a thousands toxxads, a thousand eyes, a thousand feet. Pervading the Earth on every side. He transgresses, the universe.
Translator Comment
$ Griffith translates दशांगुलम् as a space of ten fingers, which is meaningless. Thousand means innumerable. Dash Angulam means the world which is made up of ten parts, i.e., five gross and five subtle elements. Five gross elements are earth, water, air, fire and atmosphere, Five subtle elements are sight (रूप), smell (गंध), speech (शब्द), taste (रस), touch (स्पर्श) vide Maharshi Dayanand's commentary on the Yajurveda. 31-1. Some commentators like Sayana and Swami Tulsi Ram have translated दशांगुलम् as heart, and Pt. Jaidev Vidyalankar has translated it as ten quarters and sub-quarters.
Meaning
Purusha, the cosmic soul of existence, is Divinity personified, of a thousand heads, a thousand eyes and a thousand feet. It pervades the universe wholly and entirely and, having pervaded and comprehended the universe of ten Prakrtic constituents, It transcends the world of existence. (Rg. 10-90-1)
गुजराती (1)
पदार्थ
પદાર્થ : (सहस्रशीर्षा) અસંખ્ય શિરવાળા અનંત જ્ઞાન શક્તિમાન (सहस्राक्षः) અસંખ્ય નેત્રોવાળા અનંત દર્શન શક્તિમાન (सहस्रपात्) અસંખ્ય પગોવાળા અનંત ગતિ શક્તિમાન (पुरुषः) સૃષ્ટિમાં પૂર્ણ પુરુષ પરમાત્મા છે (सः) તે (भूमिं सर्वतः) ભુવન-જગતને સર્વત્રથી ઘેરીને-વ્યાપ્ત થઈને (दशाङ्गुलम् अत्यतिष्ठत्) દશાંગુલ પરિમાણવાળા-દશ આંગળીના સંકેતથી પાંચ સ્થૂલભૂત પાંચ સૂક્ષ્મભૂત અથવા દશ આંગળીનો સંપુટ-બન્ને હાથોની મુઠ્ઠીમાં વશ કરેલ બ્રહ્માંડ ગોળને અતિક્રમણ કરીને તેનાથી પણ બહાર અનન્ત રૂપથી રહેલ છે. પરમાત્મન્ ! તું આકાશથી પણ પાર છે. (૩)
भावार्थ
ભાવાર્થ : સમસ્ત જગતના રચયિતા પરમ પુરુષ પરમાત્મા આ જગતની અંદર પૂર્ણ થઈને અનન્તજ્ઞાન, શક્તિમાન, અનન્ત દર્શન શક્તિમાન, અનન્ત ગતિ શક્તિમાન છે, જગતના સર્વ પદાર્થો તેના જ્ઞાનમાં છે. સર્વ જીવોના કર્મનો જ્ઞાતા છે. સર્વ તેની દ્રષ્ટિમાં છે-દષ્ટા છે. સર્વને ગતિ પ્રદાન કરે છે. સમસ્ત જગતમાં વ્યાપ્ત છે. સર્વ જગત તેની સામે સીમિત છે કારણ કે તે બહાર પણ અનન્ત છે. તેનું શરણ પરમ કલ્યાણપ્રદ છે. (૩)
उर्दू (1)
Mazmoon
ہزار سِر، آنکھیں، پیرَ یعنی بے سُمار اعضاء والا پرماتما
Lafzi Maana
دُنیا کے ذرّے ذرّے سمیں سمایا ہوا بھگوان، نو ہزاروں سروں، ہزاروں آنکھوں اور ہزاروں پیروں والا ہے، تب ہی تو وہ سب جا موجود ہے اور ہر ایک کو اپنی آنکھوں سے دیکھتا اور جان رہا ہے، سِر کا وصف خاص گیان ہے تو آنکھ کا دیکھنا اور پیروں کا سب جگہ متحرک ہونا، پھر وہ پرمیشور اِس ساری دُنیا کو اندر باہر سب طرف سے گھیرے ہوئے ہو کر اِس دس اُنگل والے برہمانڈ میں رہتا ہے۔ دس انگ یا حصے برہمانڈ کے ہیں۔ اگنی، جل، ہوا، زمین اور آسمان اور اِن کے وِشے یا مضامین ہیں۔ شبد (آواز) سپرش (چُھونا)، رُوپ، رَس، گندھ (بُو، خوشبُو، بدبُو)۔
Tashree
ہزاروں سِر ہیں ہزاروں آنکھیں ہزاروں سِروں سے سب جگہ ہے، گھیر رکھا ہے سب جہاں کو جو اُنگلی دس میں یہ سب بسا ہے۔
मराठी (2)
भावार्थ
सर्वांनी सर्वज्ञाता, सर्वदृष्टा, सर्वव्यापक, सर्व भूगोलाला व्याप्त करून विद्यमान असलेला, तरीही वाणी, नेत्र, कान, हात, पाय इत्यादीच्या पलीकडे असलेला परमपुरुष परमात्म्याचा साक्षात्कार करून अनंत सुखाचा भोग करावा ॥३॥
विषय
पुढील पाच मंत्राचा पुरुष देवता। मंत्रात परमपुरुष परमेश्वराचे वर्णन
शब्दार्थ
(पुरुषः) सर्वांचा अग्रनेता, सर्व जगात परिपूर्ण आणि सर्वांचा पालक तो परमेश्वर (सहस्त्रशीर्षाः) हजार डोकी असलेला म्हणजेच अनंतज्ञानी आहे. तो (सहस्राक्षः) हजार नेत्र असलेला म्हणजे सर्वद्रष्टा आहे. तो (सहस्रपात्) हजारो पाय असलेला म्हणजे सर्वत्र व्याप्त आहे. (सः) तो (भूमिम्) पृथ्वीला (सर्वतः) सगळीकडून (वृत्वा) घेरून (दशाङ्गुलम्) तसेच दहा इंद्रियांना (अति) अतिक्रांत करून ( त्यांच्या पुढे व सगळीकडे) (अतिष्ठत्) स्थित आहे म्हणजे तो दहाही इन्द्रियांच्या क्षेत्रांपेक्षा खूप खूप दूर आहे (इंद्रियगम्य नाही) उपनिषदात हेच अशाप्रकारे म्हटले आहे की (तिथपर्यंत नेत्रांची पोहोच वा विस्तार नाही, वाणी वा मनदेखील तिथपर्यंत पोहोचू शकत नाहीत (केनोपनिषद् १/३)।।३।। ‘पुरूष’ शब्दाचे निर्वचन करताना मास्काचार्य म्हणतात. ‘पुरीत निवास करीत असल्यामुळे वा पुरीत शयन करीत असल्यामुळे तो ‘पुरुष’ आहे (पुरिसद् वा पुरिश=पुरूष) अथवा असेहर निर्वचन करता येते की वृद्धचर्थक ‘पुरी’ धातूपासून निष्पन्न झाल्यामुळे (पुरी आप्यायते) या अंतः पुरुष परमात्म्याला पुरुष म्हणतात कारण की तो समस्त ब्रह्मांडाला आपल्या सत्तेने परिपूर्ण करून आहे. म्हटले आहेच ‘‘त्यापेक्षा अधिक पर वा अपर अशी कोणती वस्तू नाही, त्यापेक्षा अधिक अणू वा महान काही नाही. तो एकमेव परमेश्वर वृक्षाप्रमाणे निश्चल होऊन आपल्या तेजोमय स्वरूपात स्थित आहे. त्या परम पुरुषाने हे सकल ब्रह्माण्ड परिपूर्ण केले आहे.’’(निरुक्त २/३) या मंत्रात सहस्र शिर, पाय आदी रूप असलेल्या परमेश्वराने तसेच भूमीत तोच सर्वव्यापी रूप असलेल्या परमेश्वराचे वर्णन करून पुन्हा त्याला इंद्रिं-अगोचर म्हटले आहे. अशाप्रकारे कारणाचे अस्तित्व असूनही कार्य उत्पन्न होत नाही, असे म्हटल्यामुळे येथे विशेषोक्ती अलंकार आहे.।।३।।
भावार्थ
सर्वांनी सर्वज्ञ, सर्वद्रष्टा, सर्वव्यापी सर्व भूगोल-खगोलास व्याप्त करून स्थित असलेल्या त्या परमेश्वराचा साक्षात्कार करून आनंद अनुभवला. जरी तो वाणी, नेत्र, कर्ण, हात, पाय यांच्या पोहोचल्या पलीकडे आहे, तरीही ध्यानाद्वारे त्यापासून मिळणाऱ्या अनंत सुखाचा उपभोग घ्यावा.।।३।।
तमिल (1)
Word Meaning
ஆயிரம் தலைகளுள்ளவன் -அதாவது எங்குமுள்ளவன் -புருஷன், ஆயிரம் கண்கள் ஆயிரம் பாதங்களுள்ளவன்; பூமியில் எங்கும் வியாபகமாகி பத்துதிசைகளில் இந்திரியங்களில் நிலைத்துள்ளான்.சத்து சித்து ஆனந்தத்தால் புருஷன் உயரமாகிறான்;இவன் பாதமானது ஞானமானது இங்கு உண்டு; அவனை அடையும் ஞானமென்னும் சாதனமானது எங்கும் வியாபகமாய் இருக்கிறது. அவனே புசிக்கும் புசிக்காததுமான அனைத்திலும் வியாபகமாகிறான்.
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