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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 628
    ऋषिः - विभ्राट् सौर्यः देवता - सूर्यः छन्दः - जगती स्वरः - निषादः काण्ड नाम - आरण्यं काण्डम्
    2

    वि꣣भ्रा꣢ड्बृ꣣ह꣡त्पि꣢बतु सो꣣म्यं꣢꣫ मध्वायु꣣र्द꣡ध꣢द्य꣣ज्ञ꣡प꣢ता꣣व꣡वि꣢ह्रुतम् । वा꣡त꣢꣯जूतो꣣ यो꣡ अ꣢भि꣣र꣡क्ष꣢ति꣣ त्म꣡ना꣢ प्र꣣जाः꣡ पि꣢पर्ति ब꣣हुधा꣡ वि रा꣢꣯जति ॥६२८॥

    स्वर सहित पद पाठ

    वि꣣भ्रा꣢ट् । वि꣣ । भ्रा꣢ट् । बृ꣣ह꣢त् । पि꣣बतु । सोम्य꣢म् । म꣡धु꣢꣯ । आ꣡युः꣢꣯ । द꣡ध꣢꣯त् । य꣣ज्ञ꣡प꣢तौ । य꣣ज्ञ꣢ । प꣣तौ । अ꣡वि꣢꣯ह्रुतम् । अ꣡वि꣢꣯ । ह्रु꣣तम् । वा꣡त꣢꣯जूतः । वा꣡त꣢꣯ । जू꣣तः । यः꣢ । अ꣣भिर꣡क्ष꣢ति । अ꣣भि । र꣡क्ष꣢꣯ति । त्म꣡ना꣢꣯ । प्र꣣जाः꣢ । प्र । जाः꣢ । पि꣣पर्त्ति । बहुधा꣢ । वि । रा꣣जति ॥६२८॥


    स्वर रहित मन्त्र

    विभ्राड्बृहत्पिबतु सोम्यं मध्वायुर्दधद्यज्ञपतावविह्रुतम् । वातजूतो यो अभिरक्षति त्मना प्रजाः पिपर्ति बहुधा वि राजति ॥६२८॥


    स्वर रहित पद पाठ

    विभ्राट् । वि । भ्राट् । बृहत् । पिबतु । सोम्यम् । मधु । आयुः । दधत् । यज्ञपतौ । यज्ञ । पतौ । अविह्रुतम् । अवि । ह्रुतम् । वातजूतः । वात । जूतः । यः । अभिरक्षति । अभि । रक्षति । त्मना । प्रजाः । प्र । जाः । पिपर्त्ति । बहुधा । वि । राजति ॥६२८॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 628
    (कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » 5; मन्त्र » 2
    (राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 6; खण्ड » 5;
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    आगे इस दशति में सब ऋचाओं का सूर्य देवता है। इस ऋचा में सूर्य के दृष्टान्त से परमात्मा का वर्णन किया गया है।

    पदार्थ

    (विभ्राट्) सूर्य के समान तेजस्वी परमात्मा (बृहत्) महान्, (सोम्यम्) ज्ञान एवं कर्म रूप सोम से युक्त (मधु) मधुर भक्तिरस को (पिबतु) पान करे और वह (यज्ञपतौ) यजमान को (अविह्रुतम्) अकुटिल (आयुः) जीवन (दधत्) प्रदान करे, (वातजूतः) प्राणायाम से प्रेरित (यः) जो परमात्मा (त्मना) स्वयम् (प्रजाः) प्रजाओं की (अभिरक्षति) रक्षा करता है तथा (पिपर्ति) उन्हें शक्ति से पूर्ण करता है और (बहुधा) सच्चिदानन्दस्वरूप, निराकार, सर्वशक्तिमान् आदि अनेक रूपों में (विराजति) विशेष रूप से शोभित होता है। यहाँ श्लेष से सूर्य के पक्ष में भी अर्थयोजना करनी चाहिए ॥२॥

    भावार्थ

    जैसे तेजस्वी सूर्य समुद्र आदि के जल का पान करता है, वैसे तेजस्वी परमेश्वर भक्तजनों के भक्तिरस का पान करता है। जैसे सूर्य दीर्घायुष्य प्रदान करता है, वैसे परमेश्वर अकुटिल जीवन प्रदान करता है। जैसे अपने अन्दर विद्यमान घनीभूत हवाओं से गतिमान् हुआ सूर्य मनुष्यों की रक्षा करता है, वैसे योगियों के प्राणायाम के अभ्यासों द्वारा हृदय में प्रेरित परमेश्वर उन योगीजनों की रक्षा करता है। जैसे सूर्य प्रजाओं का पालन करता है और प्रतिमास विभिन्न रूपों में प्रकट होता है, वैसे परमेश्वर प्रजाजनों का पालन करता तथा उन्हें पूर्ण बनाता है और अनेक रूपों में उपासकों के हृदय में प्रकाशित होता है ॥२॥

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    पदार्थ

    (यज्ञपतौ) अध्यात्मयज्ञ के यजमान उपासक के निमित्त (अविह्नुतम्-आयुः-दधत्) अविकलित—सरल जीवन को धारण कराने के हेतु (विभ्राट्) विशेष प्रकाशमान सब प्रकाशमानों में प्रकाशमान परमात्मा (बृहत् सोम्यं मधु) भारी उपासनारस वाला मधुपानक (पिबतु) पान करे—स्वीकार करे—करता है (यः-वातजूतः) जो मन से प्रेरित प्रार्थित “वातो वा मनो वेति” [श॰ ५.१.४.८] (त्मना) आत्मभाव से—स्नेह से (प्रजाः-अभिरक्षति) उपासक प्रजाओं पर दया करता है (पिपर्ति) उनका पालन करता है (बहुधा विराजति) बहुत प्रकार से उनके अन्दर प्रकाशमान होता है।

    भावार्थ

    अध्यात्मयज्ञ के यजमान उपासक को सरल जीवन को धारण करने के हेतु विशेष प्रकाशमान अध्यात्मप्रकाशदाता परमात्मा उपासकों द्वारा आत्मभाव से समर्पित मधुर उपासनारस को दया कर स्वीकार करता है तथा उनका पालन करता एवं उनको साक्षात् होता है॥२॥

    टिप्पणी

    [*50. खण्ड के अन्त तक।]

    विशेष

    ऋषिः—विभ्राट् सौर्यः (सूर्य समान अध्यात्म तेज वाला योगी)॥ देवता—सूर्यः*50 (उपासकों को अध्यात्म प्रकाशदाता परमात्मा)॥ छन्दः—जगती॥<br>

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    विषय

    जीवन-यात्रा के चार प्रयाण

    पदार्थ

    (ब्रह्मचर्य–) मानव-जीवन की यात्रा में प्रथम प्रयाण ‘ब्रह्मचर्याश्रम' कहलाता है। इसमें मनुष्य १. (विभ्राट्) = विशेषरूप से [भ्राज- दीप्ति] दीप्त होनेवाला, चमकनेवाला बने। आचार्य द्वारा इसकी ज्ञानाग्नि पृथिवी, अन्तरिक्ष व द्युलोकरूपी तीन समिधाओं से समिद्ध की जाती है और यह ब्रह्मचारी ज्ञान की दीप्ति से चमक उठता है । इस आश्रम का मूल कर्त्तव्य ‘ब्रह्म’=ज्ञान का ‘चर' - भक्षण ही तो है। २. (बृहत्) = [ वृहि वृद्धौ ] ब्रह्मचारी को सब दृष्टिकोणों से– ‘शरीर-मन व बुद्धि' के विचार से वृद्धि का सम्पादन करना है। ३. ज्ञान की दीप्ति के लिए तथा सब दृष्टिकोणों से वृद्धि के लिए ही ब्रह्मचारी (सोम्यं मधु) = सोम-सम्बन्धी मधु का (पिबतु) = पान करे। सोम- semen = वीर्य का नाम है, आहार का सार होने से यह 'मधु' है । मधु शहद भी पुष्प-रसों का सार ही होता है। इस वीर्य रक्षा से ही यह अपनी ज्ञानाग्नि को समिद्ध करेगा। इसी से रोग-कृमियों को नष्ट करके यह शरीर को नीरोग बनाएगा और वीर्यवान् होने पर द्वेष की भावना से ऊपर उठकर निर्मल मनवाला होगा।

    (गृहस्थ)— अब यह ब्रह्मचारी गृहस्थ में प्रवेश करता है। यहाँ इसे 'ब्रह्मयज्ञ, देवयज्ञ, पितृयज्ञ, अतिथियज्ञ और बलिवैश्वदेव यज्ञ' नामक पाँच यज्ञों को करते हुए चलना है, परन्तु इन यज्ञों के कर्तृत्व का स्वयं गर्व न करके इसने उस प्रभु को ही इन यज्ञों के पति के रूप में देखना है। प्रभु-कृपा से ही ये पूर्ण होते हैं, वे प्रभु ‘यज्ञस्य देवम्'- यज्ञों के प्रकाशक हैं, ‘होतारम्'=वस्तुत: 'होता' ।' प्रभु ही हैं। (यज्ञपतौ) = उस यज्ञों के रक्षक प्रभु में (अविद्रुतम्) = कुटिलताशून्य (आयु:) = जीवन को (दधत्) = धारण करता हुआ यह गृहस्थ जीवन-यात्रा में आगे बढ़े। एवं, गृहस्थ के लिए तीन बातें हैं - १. यज्ञमय जीवन बिताये, २. यज्ञों का गर्व न कर प्रभु को ही यज्ञपति माने, ३. कुटिलता से दूर रहे।

    (वानप्रस्थ) – अब यह गृहस्थ 'वनस्थ' बनता है। वानप्रस्थ वह है (यः) = जो (वातजूतः) = प्राणों से प्रेरित हुआ-हुआ (त्मना)=आत्मना-अपने मन के द्वारा (अभिरक्षति) = अपनी सर्वतः रक्षा करता है। प्राणायाम की नियमित साधना से यह चित्तवृत्ति का निरोध करता है और इस निरुद्ध चित्त के द्वारा यह अपनी रक्षा करता है। ('मन एव मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्षयोः') = मन ही तो मनुष्यों के बन्ध व मोक्ष का कारण है। मन मित्र भी है, शत्रु भी। मन को वश में कर लिया तो यह मित्र है और यदि हम मन के वश में हो गये तो यह शत्रु है। इस मन की वृत्ति को वशीभूत करने के लिए साधकतम 'प्राणायाम' है। एवं, वनस्थ - १. प्राणायाम करता है, २. इसके द्वारा चित्तवृत्ति को वश में करने का प्रयत्न करता है, ३. रक्षित चित्त के द्वारा आसुर वृत्तियों के आक्रमण से अपनी रक्षा करता है।

    (ब्रह्माश्रमी)–उपर्युक्त साधना के बाद आज यह मानव जीवन यात्रा की अन्तिम मंजिल में प्रवेश करता है और यहाँ (प्रजा:) = प्रजाओं का (पिपर्ति) = पालन व पूरण करता है। उन्हें प्रभु का उपदेश देता हुआ कर्तव्य पथ पर आगे बढ़ने के लिए प्रोत्साहित करता है। उनके दोषों को उचित प्रेरणा द्वारा दूर करने का प्रयत्न करता है और यह (बहुधा) =  बहुतों का धारण करनेवाला (विराजति) = विशेषरूप से दीप्त होता है। 

    मानवममात्र का पालन करते हुए सब प्रकार के स्वार्थों से ऊपर उठ जाने के कारण यह विशेष चमकवाला होता है। सबके पालन करनेवाले सूर्य की भाँति चमकने से यह ‘विभ्राट् सौर्यः' कहलाता है और इस प्रकार अपनी जीवन-यात्रा को सफलता के साथ समाप्त करता है।

    भावार्थ

    हम अपनी जीवन-यात्रा के सभी प्रयाणों को उत्तमता से पूर्ण करनेवाले हों ।

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    विषय

    "Missing"

    भावार्थ

    भा०  = ( विभ्राट् ) = विशेषरूप से देदीप्यमान सूर्य के समान स्वतःप्रकाश, परमात्मा ( बृहत् ) = बड़ा भारी ( सांम्यं  ) = उत्पादक और प्रेरक गुणों से युक्त  ( मधु ) = जीवनरस को ( पिवतु ) = पान अर्थात् अपने भीतर धारण करे । और ( यज्ञपतौ ) = यज्ञ जीवनयज्ञ या अन्य देवपूजा आदि सत्कर्मों के अनुष्ठाता पुरुष को ( अविह्रुतम् ) = सरल, अकुटिल धार्मिक ( आयुः ) = जीवन ( दधन् ) = धारण करता है । ( यः ) = जो परमात्मा ( वातजूतः ) = वात, वायु के समान गतिमान् शक्तियों से युक्त होकर ( त्मना ) = स्वयं ( प्रजाः ) = प्रजाओं को ( अभि रक्षति ) = रक्षा करता है, ( पिपर्ति ) = पालन पोषण करता है और ( बहुधा विराजीत ) = बहुत प्रकारों से सबके ऊपर शासक रूप से विराजमान है ।

    टिप्पणी

    ६२८ -प्रजाः पुपोष पुरुधा' इति ऋ० ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

     

    ऋषिः - विभ्राट् सूर्यपुत्र:।

    देवता - अग्नि: पवमान:।

    छन्दः - गायत्री ।

    स्वरः - निषादः। 

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथाग्रे सर्वासां सूर्यो देवता। सूर्यदृष्टान्तेन परमात्मानं वर्णयति।

    पदार्थः

    (विभ्राट्) सूर्यवद् विभ्राजमानः परमात्मा (बृहत्) महत् (सोम्यम्) ज्ञानकर्मरूपेण सोमेन युक्तम्। अत्र सोमशब्दात् ‘मये च। अ० ४।४।१३८’ इति मयडर्थे यः प्रत्ययः। (मधु) मधुरं भक्तिरसम् (पिबतु) आस्वादयतु, किञ्च सः (यज्ञपतौ) यजमाने (अविह्रुतम्) अकुटिलम्। ह्वृ कौटिल्ये, ‘ह्रु ह्वरेश्छन्दसि। अ० ७।२।३१’ इति धातोः ह्रुः आदेशः। (आयुः) जीवनम् (दधत्) स्थापयन्, भवत्विति शेषः, (वातजूतः) वातेन प्राणायामेन जूतः प्रेरितः (यः) परमात्मा (त्मना) आत्मना। ‘मन्त्रेष्वाङ्यादेरात्मनः। अ० ६।४।१४१’ इत्याकारलोपः। (प्रजाः) जनान् (अभिरक्षति) परित्रायते, (पिपर्ति) शक्त्या पूरयति, (बहुधा) बहुप्रकारेण सच्चिदानन्द-स्वरूप-निराकार-सर्वशक्तिमद्-दयाल्वादिरूपेण (विराजति) विशेषेण शोभते च। अत्र श्लेषेण सूर्यपक्षेऽप्यर्थो योजनीयः ॥२॥२

    भावार्थः

    यथा भ्राजमानः सूर्यः समुद्रादीनां सलिलं पिबति तथा विभ्राजमानः परमेश्वरः भक्तजनानां भक्तिरसं पिबति। यथा सूर्यो दीर्घायुष्यं प्रयच्छति तथा परमेश्वरोऽकुटिलं जीवनं प्रयच्छति। यथा स्वाभ्यन्तरे विद्यमानैर्घनीभूतैर्वायुभिर्गतिमयः सूर्यो जनानभिरक्षति, तथा योगिनां प्राणायामाभ्यासैर्हृदये प्रेरितः परमेश्वरस्तान् रक्षति। यथा सूर्यः प्रजाः पालयति प्रतिमासं विभिन्नरूपैश्च प्रकटीभवति तथा परमेश्वरो जनान् पालयति पूरयति वा, बहुभी रूपैश्चोपासकानां हृदि प्रकाशते ॥२॥

    टिप्पणीः

    १. ऋ० १०।१७०।१, य० ३३।३०, उभयत्र ‘प्रजाः पुपोष पुरुधा विराजति’ इति पाठः। साम० १४५३। २. दयानन्दर्षिर्मन्त्रमिमं यजुर्भाष्ये “हे राजादयो मनुष्याः ! यथा सूर्यो वृष्टिद्वारा सर्वेषां जीवनं पालयति तद्वत् सद्गुणैर्महान्तो भूत्वा न्यायविनयाभ्यां प्रजाः सततं रक्षन्तु” इत्यर्थे व्याख्यातवान्।

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    May God, Lustrous like the Sun, bestowing uncooked life on the accomplisher of life’s Yajna (sacrifice), make him drink the nectar of life. All of extreme felicity. Adored by the Controller of breath. He Himself, protects His subjects, and nourishes them in diverse ways. He lords over all.

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    Meaning

    May the mighty refulgent sun hold, shower, protect and promote the honey sweets of lifes soma nourishment, and bear and bring untainted health and long life for the performer and promoter of yajna, the sun which, energised by Vayu energy of divine nature protects and sustains all forms of life by its very essence, shines and rules life in many ways. (Rg. 10-170-1)

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : (यज्ञपतौ) અધ્યાત્મયજ્ઞના યજમાન ઉપાસકને માટે (अविह्नुतम् आयुः दधत्) અવિકલિતસરળ જીવનને ધારણ કરાવવા માટે (विभ्राट्) વિશેષ પ્રકાશમાન સમસ્ત પ્રકાશમાનોમાં પ્રકાશમાન પરમાત્મા (बृहत् सोम्यं मधु) ખૂબ જ ઉપાસનારસયુક્ત મધુપાનક (पिबतु) પાન કરે-સ્વીકાર કરે-કરે છે. (यः वातजूतः) જે મનને પ્રેરિત-પ્રાર્થિત (त्मना) આત્મભાવથી-સ્નેહથી (प्रजाः अभिरक्षति) ઉપાસક પ્રજાઓ પર દયા કરે છે (पिपर्ति) તેનું પાલન કરે છે (बहुधा विराजति) અનેક પ્રકારથી તેની અંદર પ્રકાશમાન થાય છે. (૨)
     

    भावार्थ

    ભાવાર્થ : અધ્યાત્મયજ્ઞના યજમાન ઉપાસકે સરળ જીવનને ધારણ કરવા માટે વિશેષ પ્રકાશમાન અધ્યાત્મપ્રકાશદાતા પરમાત્મા ઉપાસકો દ્વારા આત્મભાવથી સમર્પિત મધુર ઉપાસનારસનો દયા કરીને સ્વીકાર કરે છે તથા ઉપાસકનું પાલન કરીને તેને સાક્ષાત્ થાય છે. (૨)
     

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    उर्दू (1)

    Mazmoon

    یَگ کرنیوالے کو بدیوں سے چُھڑا دیتا ہے!

    Lafzi Maana

    ہزارہا سُورجوں کی روشنی سے بھی زیادہ منّور پر ماتما ہماری سچی پاکیزہ عبادتوں کو منظورِ نظر کرتا ہے اور یگ کرم کرنے والے کو بدیوں سے چُھڑا دیتا ہے، اپنے قدرتی قاعدے سے سبھی انسانات کی ہر دم رکھشا کرتا ہوا سب کا پالن پوشن کرتا ہوا سب جگہ حاضر ناظر ہے۔

    Tashree

    سُورجوں سا چمکیلا اِیشور، بھگتی کو سویکار ہے کرتا، دُور ہٹا عارف کو بدی سے سب کی ہے وہ رکھشا کرتا۔

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    जसा तेजस्वी सूर्य समुद्र इत्यादीच्या जलाचे पान करतो, तसे तेजस्वी परमेश्वर भक्तजनांच्या भक्तिरसाचे पान करतो. जसे सूर्य दीर्घायुष्य प्रदान करतो, तसे परमेश्वर अकुटिल जीवन प्रदान करतो. जसा स्वत:मध्ये विद्यमान घनीभूत हवेने गतिमान झालेला सूर्य माणसांचे रक्षण करतो तसे योग्यांच्या प्राणायाम अभ्यासाद्वारे हृदयात प्रेरित परमेश्वर त्या योगिजनांचे रक्षण करतो. जसे सूर्य प्रजेचे पालन करतो व प्रत्येक महिन्यात विभिन्न रूपाने प्रकट होतो. तसे परमेश्वर प्रजेचे पालन करतो व त्यांना पूर्ण बनवितो. अनेक रूपात उपासकांच्या हृदयात प्रकाशित होतो ॥२॥

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    विषय

    पुढील सर्व मंत्राची देवता-सूर्य। सूर्याच्या उदाहरणावरून परमेश्वराचे वर्णन

    शब्दार्थ

    (प्रथम अर्थ) (सूर्यपर) - (देवानाम्) प्रकाशास सूर्य-किरणांची (चित्रम्) अद्भुत वा रंगी-बेरंगी (अनीकम्) सेना (उद् अगात्) उदित झाली आहे. ही सेना (मित्रस्य) शरीरात प्राणाचे व बाहेर दिवसाचे तसेच (वरूणस्य) शरीरात अपानाचे व बाहेर रात्रीचे तसेच (अग्नेः) शरीरात वाणीचे व बाहेर पार्थिव अग्नीचे (चक्षुः) प्रकाशन वा प्रगटीकरण करते. (सूर्यः) सूर्याने (द्यावापृथिनी) धूलोकाला आणि भूलोकाला तसेच (अंतरिक्षम्) मध्यवर्ती अंतरिक्षलोकाला (आ अप्राः) प्रकाशाने भरून टाकले आहे. सूर्य (जगतः) जंगम प्राणी म्हणजे मनुष्य, पशू, पक्षी, आदींचा तसेच (तस्युषः) स्थावर पर्याय जसे वृक्ष, पर्वत, आदींचा (आत्मा) जीवनाधार आहे.। द्वितीय अर्थ - (परमात्मापर)-(देवानाम्) सत्य, अहिंसाआदी गुणांची (चित्रम्) वांछनीय वा प्रिय (अनीकम्) सेना (उद् अगात्) माझ्या हृदयात उदित झाली आहे. ही गुणांची सेना (मित्रस्थ) मैत्री गुणांची (वरूणस्य) पापनिवारक गुणाची आणि (अग्नेः) अध्यात्म-ज्योतीची प्रकाशक आहे. हे परमात्म्यसूर्य, तुम्ही (द्यावापृथिवी) आमच्या (आनंदमर कोशाला व अन्नमयकोशाला तसेच (अन्तरिक्षम्) मध्यस्थिती प्राणमय, मनामय व विज्ञानमय कोशाला (आ अप्राः) आपल्या तेजाने भरून टाकले आहे अथवा- (द्यावापृथिवी) घूलोक व भूलोकाला व (अंतरिक्ष)। अंतरिक्षलोकाला (आ अप्राः) आपल्या कीर्तीने व्याप्त करून टाकले आहे. (सूर्यः) सूर्याप्रमाणे प्रकाशक असलेले तुम्ही (जगतः) चल जगताचे व (तस्थुषः) अचल जगाचे (आत्मा) अंतर्यामी आहात.।।३।।

    भावार्थ

    जसा सूर्य आपल्या किरणांचा विस्तार करून स्थावर-जंगम, जड-चेतन जगावर उपकार करतो, तसेच परमेश्वर हृदयातील दिव्य गुणांचा प्रकाश फैलावून मनुष्यांचे हित करतो.।।३।।

    विशेष

    या मंत्रात श्लेष व स्वभावोक्ती अलंकार आहे.।।३।।

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    तमिल (1)

    Word Meaning

    வெகு ஒளியுள்ள சூரியன்(ஈசன்) யக்ஞபதியின் குடிலமற்ற ஆயுட் நாட்களை செய்துகொண்டு பெரியதாய் சோம மயமான மதுவைப் பருகட்டும், அவன் (சூரியன்) வாயுவினால் தூண்டப்பட்டு சுவயமாகவே பிரசைகளைக்காப்பாற்றுகிறான்; போஷணஞ் செய்கிறான்; வெகு விதமாய் பிரகாசஞ் செய்கிறான்.

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