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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 652
ऋषिः - असितः काश्यपो देवलो वा
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
काण्ड नाम -
2
अ꣣भि꣢ ते꣣ म꣡धु꣢ना꣣ प꣡योऽथ꣢꣯र्वाणो अशिश्रयुः । दे꣣वं꣢ दे꣣वा꣡य꣢ देव꣣यु꣢ ॥६५२॥
स्वर सहित पद पाठअ꣡भि꣢ । ते꣣ । म꣡धु꣢꣯ना । प꣡यः꣢꣯ । अ꣡थ꣢꣯र्वाणः । अ꣣शिश्रयुः । देव꣢म् । दे꣣वा꣡य꣢ । दे꣣व꣢यु ॥६५२॥
स्वर रहित मन्त्र
अभि ते मधुना पयोऽथर्वाणो अशिश्रयुः । देवं देवाय देवयु ॥६५२॥
स्वर रहित पद पाठ
अभि । ते । मधुना । पयः । अथर्वाणः । अशिश्रयुः । देवम् । देवाय । देवयु ॥६५२॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 652
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 1; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 1; खण्ड » 1; सूक्त » 1; मन्त्र » 2
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 1; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 1; खण्ड » 1; सूक्त » 1; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
अगले मन्त्र में ब्रह्मानन्दरस की उपादेयता वर्णित है।
पदार्थ
हे पवित्रतादायक सोम परमात्मन् ! (अथर्वाणः) अचञ्चल चित्तवृत्तिवाले उपासक जन (ते) तेरे (मधुना) मधुर आनन्द-रस के साथ (पयः) अपने विशुद्ध ज्ञान और कर्म के दूध को (अभि अशिश्रयुः) मिलाते हैं। (देवयु) दिव्यगुणयुक्त परमेश्वर से प्रीति चाहनेवाला सारा ही भगवद्भक्त-समाज (देवाय) दिव्य प्रकाश पाने के लिए (देवम्) तुझ प्रकाशदाता की उपासना करता है ॥२॥ इस मन्त्र में ‘देवाय, देवयु’ में छेकानुप्रास तथा ‘देवं, देवा, देव’ में वृत्त्यनुप्रास होने से दोनों अलङ्कारों का एकाश्रयानुप्रवेशरूप संकर है ॥२॥
भावार्थ
ज्ञान और कर्म से समन्वित भक्ति ही सब मनुष्यों का कल्याण करती है ॥२॥
पदार्थ
(ते) हे धारारूप में प्राप्त होने वाले परमात्मन्! तेरे (मधुना) आनन्द रस के साथ “अन्तो वै रसानां मधु” [जै॰ १.१२४] (अथर्वाणः) अचल—स्थिर मननशील योगी जन (देवयुः-देवं पयः) तुझ देव को चाहनेवाले दिव्य प्राण—अमरतत्त्व आत्मभाव को “प्राणः पयः” [श॰ ६.५.४.१५] (देवाय) तुझ परमात्म-देव की प्राप्ति के लिये (अभिशिश्रयुः) मिला देते—नितान्त अर्पित कर देते हैं। तभी तेरा साक्षात् करते हैं।
भावार्थ
स्थिर मन वाले योगी ध्यानी उपासक अपने दिव्य आत्मभाव को जो परमात्मदेव को चाहता है परमात्मदेव की प्राप्ति के लिए समस्त आनन्दों के आनन्द अन्तिम आनन्द में ध्यान द्वारा मिला देते हैं तो अपने आत्मा में उसका साक्षात्कार करते हैं॥२॥
विशेष
<br>
विषय
मधु के साथ पय का सेवन
पदार्थ
(अथर्वा) = पिछले मन्त्र में उन्नति के मार्ग का उल्लेख था । जिस नर को जीवन के उद्देश्य का स्मरण रहता है वह इस मार्ग पर निरन्तर आगे और आगे बढ़ा चला जाता है । उद्देश्य विस्मरण होते ही हम पथ-भ्रष्ट हो जाते हैं— डाँवाँडोल हो जाते हैं, परन्तु ते - वे उन्नति के लिए कटिबद्ध नर तो (अ-थर्वाणः) = डाँवाँडोल नहीं होते [थर्वतिः चरतिकर्मा–तत् प्रतिषेधः]। ये अथर्वा लोग (अभि) = क्या भौतिक व क्या आध्यात्मिक – दोनों स्तरों पर (मधुना पय:) = मधु के साथ पयस् का (अशिश्रयुः) = सेवन करते हैं ।
(मधु+पयस्) = मधु शहद का नाम है, जो सब ओषधियों की सारभूत अत्यन्त सात्त्विक वस्तु है । पयस् ओप्यायी वृद्धौ-वृद्धि का साधनभूत दूध है । ताज़ा दूध तो साक्षात् अमृत ही है। इनका सेवन (आहार शुद्धौ सत्त्वशुद्धिः) = हमारे अन्तःकरणों को शुद्ध बनाता है ।( सत्त्वशुद्धौ ध्रुवा स्मृतिः) = अन्त:करण की शुद्धि के परिणामरूप हमारी स्मृति ठीक बनी रहती है और हमें अपने जीवन का उद्देश्य भूलता नहीं। मधु का अभिप्राय ‘वाणी के माधुर्य' से भी है, हमारी जिह्वा से कभी कोई कटु शब्द नहीं निकलता।(‘जिह्वाया अग्रे मधु मे जिह्वामूले मधूलकम्') इस वेदवाक्य के अनुसार हमारा प्रत्येक शब्द स्नेह व माधुर्य से सना हुआ ही होता है । इस वाणी के माधुर्य के साथ-साथ सच्ची वृद्धि के साधनभूत पयस् [ओप्यायी वृद्धौ] ज्ञान का हम संचय करते हैं । यह ज्ञान हमारी इन्द्रियों को पवित्र बनाकर हमें मार्ग-भ्रष्ट नहीं होने देता । ('केतपूः केतं नः पुनातु') = ज्ञान से पवित्र करनेवाला प्रभु हमारे ज्ञान को और दीप्त करे, परन्तु साथ ही (वाचस्पतिः वाचं नः स्वदतु) = वाचस्पति प्रभु हमारी वाणी को स्वादवाला बना दे । यही तो मधु+पयस् का सेवन है । (देवम्) = यह दिव्य भोजन है मधु+पयस् देवताओं से सेवित हो 'देव' ही कहा जाने लगा | देवाय - यह दिव्य भोजन हमें उस महान् देव की प्राप्ति में सहायक होता है। (देवयुः) = यह भोजन हमें देवों के साथ [यु-मिश्रणे] मिलानेवाला है। इस भोजन के सेवन से हमारी दैवी सम्पत्ति का उचित विकास होगा ।
भावार्थ
सात्त्विक भोजन – शहद, दूध आदि उत्तम पदार्थ हमें देव की प्राप्ति के योग्य बनाते हैं।
विषय
"Missing"
भावार्थ
भा० (२) ( ते ) = तेरे ( देवं ) = दिव्यगुणसम्पन्न ( देवयुः ) = देवों, विद्वानों से अभिलषित, ( पयः ) = पोषणकारी आनन्द रस को ( अथर्वाण: ) = अहिंसक तपस्वी लोग ( मधुना ) = मनन करने योग्य ब्रह्मज्ञान के संग ( अशिश्रयुः ) = मिलाकर आस्वादन करते हैं ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः - असितः काश्यपो देवलो वा। देवता - सोमः। छन्दः - गायत्री। स्वरः - षड्जः।
संस्कृत (1)
विषयः
अथ ब्रह्मानन्दरसस्योपादेयत्वमाह।
पदार्थः
हे पवमान सोम परमात्मन् ! (अथर्वाणः) अचञ्चलचित्तवृत्तयः उपासका जनाः। [अथर्वाणोऽथर्वणवन्तः। थर्वतिश्चरतिकर्मा, तत्प्रतिषेधः इति निरुक्तम् ११।१९।] (ते) तव (मधुना) मधुरेण आनन्दरसेन (पयः) स्वकीयं विशुद्धं ज्ञानकर्मरूपं दुग्धम् (अभि अशिश्रयुः२) संमिश्रयन्ति। (देवयु३) देवं दिव्यगुणयुक्तं परमेश्वरम् आत्मनः कामयते इति देवयुः, सर्वोऽपि भगवद्भक्तो जनः। [देवयुशब्दात् प्रथमैकवचने ‘सुपां सुलुक्०’ अ० ७.१.३९ इति सोर्लुक्।] (देवाय) दिव्यप्रकाशप्राप्तये (देवम्) प्रकाशकं त्वाम् उपास्ते इति शेषः ॥२॥ अत्र ‘देवाय देवयु’ इति छेकानुप्रासः, ‘देवं, देवा, देव’ इति च वृत्त्यनुप्रासः। उभयोरेकाश्रयानुप्रवेशरूपः सङ्करः ॥२॥
भावार्थः
ज्ञानकर्मसमन्वितैव भक्तिः सर्वजनानां कल्याणकरी जायते ॥२॥
टिप्पणीः
१. ऋ० ९।११।२। २. श्रिञ् सेवायाम् भ्वादिः। “अत्र लङि प्रथमस्य बहुवचने विकरणव्यत्ययेन शपः स्थाने श्लुः ‘सिजभ्यस्त०’ इति झेर्जुस्, ‘जुसि च’ इति गुणः” इति ऋ० १।९२।२ भाष्ये द०। ३. सत्यव्रतसामश्रमिसम्पादिते सायणभाष्ये वैदिकयन्त्रालयमुद्रिते च सामवेदे ‘देवयुः’ इति सविसर्गः पाठः। सामपदपाठेषु अन्यासु च सामसंहितासु ऋग्वेदवद् विसर्गरहित एव पाठो दृश्यते।
इंग्लिश (2)
Meaning
The sedate learned persons, for the attainment of God, longing for Him, taste the invigorating joy derived from the reflective knowledge of God.
Translator Comment
$ In the first Prapathak (Book ) of the second part, there are 23 verses, each of which is divided Into three parts, hence called तृच. Some commentators like Sayana, Swami Tulsi Ram, Pt. Jaidev Vidyalankar, have treated the three parts of each verse as separate verses, and numbered them as such.
Meaning
O Soma, you are the lover of the noble and divine, and you love to bless humanity to rise to divinity. The Atharvans, people on the rock-bed foundation of piety, are stead fast, they direct their concentrated mind to you and drink the life giving nectar mixed with honey sweets of divinity. (Rg. 9-11-2)
गुजराती (1)
पदार्थ
પદાર્થ : (ते) હે ધારા રૂપમાં પ્રાપ્ત થનાર પરમાત્મન્ ! તારા (मधुना) આનંદ૨સની સાથે (अथर्वाणः) અચલ-સ્થિર મનનશીલ યોગીજન (देवेयुः देवं पयः) તુજ દેવને ચાહનાર દિવ્ય પ્રાણ-અમર તત્ત્વ આત્મભાવને (देवाय) તુજ પરમાત્મદેવની પ્રાપ્તિને માટે (अभिशिश्रयुः) આશ્રય લે છે.-નિતાન્ત અર્પિત કરી દે છે; ત્યારે તારો સાક્ષાત્ કરે છે. (૨)
भावार्थ
ભાવાર્થ : સ્થિર મનવાળા યોગી, ધ્યાની, ઉપાસક પોતાના દિવ્ય આત્મભાવને જે પરમાત્મદેવને ચાહે છે, પરમાત્મદેવની પ્રાપ્તિને માટે સમસ્ત આનંદોના આનંદ અંતિમ આનંદમાં ધ્યાન દ્વારા મિલન કરે છે, ત્યારે પોતાના આત્મામાં તેનો સાક્ષાત્કાર કરે છે. (૨)
मराठी (2)
भावार्थ
ज्ञान व कर्मानी समन्वित भक्तीच सर्व माणसांचे कल्याण करते. ॥२॥
विषय
या मंत्रात ब्रह्मानन्दरसाची उपादेयता स्पष्ट केली आहे.
शब्दार्थ
हे पावित्र्यदाता सोम परमेश्वरा (अथर्वाण:) अचंचल चित्त असणारे तुझे दृढ उपासकगण तुझ्या (मधुना) मधुर आनन्दरसात (पद) स्वत:चे विशुद्ध ज्ञान आणि कर्मरूप दूध (अभि अशिश्रयु:) मिसळतात (म्हणजे तुझ्या भक्तीच्या आनंदात आपले ज्ञान आणि त्याप्रमाणे होणारे आचरण यांचे मिश्रण करतात. अशाप्रकारे आनंद आणि ज्ञान दोन्हींचा लाभ घेतात.) (देवयु) दिव्यगुणयुक्त परमेश्वरावर प्रेम करणारा सर्वच भगवद् भक्त समाज (देवाय) तुझ्याकडून दिव्य प्रकाश प्राप्त करण्यासाठी (देवयु) तुझी म्हणजेच एकमेव प्रकाशदात्याची उपासना करतात. ।।२।।
भावार्थ
ज्ञान आणि तद्नुसार होणारे आचरण दोन्हीशी समन्वित भक्तीच सर्व मनुष्यांची कल्याणकारीणी आहे.।।२।।
विशेष
या मंत्रात देवाय, देवयु या शब्दांमुळे येथे छकनिप्रास अलंकार आणि देवं, देवा, देव या शब्दात वृत्यानुप्रास अलंकार निर्माण झाला आहे आणि या नोद शब्दालंकारांचा एकाश्रयानुप्रवेश संकर उत्पन्न झाला आहे
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