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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 655
    ऋषिः - कश्यपो मारीचः देवता - पवमानः सोमः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम -
    2

    हि꣣न्वानो꣢ हे꣣तृ꣡भि꣢र्हि꣣त꣡ आ वाजं꣢꣯ वा꣣꣬ज्य꣢꣯क्रमीत् । सी꣡द꣢न्तो व꣣नु꣡षो꣢ यथा ॥६५५॥

    स्वर सहित पद पाठ

    हि꣣न्वानः꣢ । हे꣣तृ꣡भिः꣢ । हि꣣तः꣢ । आ । वा꣡जम्꣢꣯ । वा꣣जी꣢ । अ꣣क्रमीत् । सी꣡द꣢꣯न्तः । व꣣नु꣡षः꣢ । य꣣था ॥६५५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    हिन्वानो हेतृभिर्हित आ वाजं वाज्यक्रमीत् । सीदन्तो वनुषो यथा ॥६५५॥


    स्वर रहित पद पाठ

    हिन्वानः । हेतृभिः । हितः । आ । वाजम् । वाजी । अक्रमीत् । सीदन्तः । वनुषः । यथा ॥६५५॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 655
    (कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 2; मन्त्र » 2
    (राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 1; खण्ड » 1; सूक्त » 2; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    अगले मन्त्र में यह कहा गया है कि हृदय में धारण किया हुआ परमात्मारूप सोम क्या करता है।

    पदार्थ

    (हेतृभिः) प्रेरक गुरुजनों के द्वारा (हितः) शिष्य के आत्मा में स्थापित किया हुआ, (हिन्वानः) तृप्ति प्रदान करता हुआ, (वाजी) बलवान् परमात्मा-रूप सोम (वाजम्) अन्तःकरण में चल रहे देवासुरसंग्राम पर (आ अक्रमीत्) चारों ओर से आक्रमण कर देता है, (यथा) जैसे (सीदन्तः) प्रयाण करते हुए (वनुषः) हिंसक योद्धा लोग [शत्रुओं पर आक्रमण करते हैं।] ॥२॥ इस मन्त्र में उपमालङ्कार है ॥२॥

    भावार्थ

    हृदय में धारण किया हुआ परमेश्वर आन्तरिक देवासुरसंग्राम में अपने उपासक को सदा विजय दिलाता है ॥२॥

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    पदार्थ

    (वाजी) अमृत अन्नभोग वाला सोम शान्त परमात्मा “अमृतोऽन्नं वै वाजः” [जै॰ २.१९३] तद्वान् (हेतृभिः-हितः) स्तुति प्रेरक उपासकों द्वारा धारित उपासित हुआ (वाजं हिन्वानः-अक्रमीत्) अमृतान्नभोग को प्रेरित करता हुआ उपासक के अन्दर प्राप्त होता है (यथा वनुषः सीदन्तः) जैसे चाहने वाले हितैषी अपने शिष्यों को गुरुजन प्राप्त होते हुए उपदेश देते हैं।

    भावार्थ

    स्तुतिकर्ता उपासकों द्वारा धारा हुआ उपासित किया हुआ अमृतभोग वाला परमात्मा अमृतभोग को प्रेरित करता हुआ उपासक को ऐसे प्राप्त होता है जैसे गुरुजन शिष्यों को प्राप्त होते हुए उपदेश देते हैं॥२॥

    विशेष

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    विषय

    कौन बनता है ?

    पदार्थ

    गत मन्त्र के उत्तरार्ध में 'कश्यप मारीच' कौन बनता है ? इस प्रश्न का उत्तर इस रूप में दिया था कि सोम, शुक्र और गवाशिर, परन्तु पुनः प्रश्न उत्पन्न होता है कि सोम, शुक्र व गवाशिर भी कौन बन पाता है ? इस प्रश्न का उत्तर प्रस्तुत मन्त्र में इस प्रकार दिया गया है कि -

    , १. (हेतृभिः हिन्वानः) =[हि=to send forth, impel=प्रेरणा देना, भेजना] जीवन में प्रेरणा देनेवाला व्यक्ति ‘हेता' कहलाता है, उन हेताओं से निरन्तर ' हिन्वानः ' प्रेरणा दिया जाता हुआ व्यक्ति ही सौम्यतादि गुणों से सम्पन्न होता है । जिन्हें उत्तम प्रेरणा देनेवाले माता-पिता, आचार्य व अतिथि प्राप्त होते हैं, वे ही उत्तम मार्ग पर आगे और आगे बढ़ते हुए 'कश्यप-मारीच'=ज्ञानी बना करते हैं ।

    २. (हितः) = ज्ञानी वे बनते हैं जोकि माता-पिता आदि से सदा सन्मार्ग पर हित=निहित व स्थापित होते हैं। मनुष्य सदा त्रुटियाँ करता है, परिणामत: पग-पग पर मार्गभ्रष्ट होने का भय है । उस समय जो व्यक्ति इन गुरुओं से पुनः ठीक मार्ग पर स्थापित कर दिये जाते हैं, वे ही अन्त में ‘कश्यप मारीच' की स्थिति को पाते हैं ।

    ३. (वाजी वाजम् आ अक्रमीत्) = यह माता-पिता आदि से प्रेरणा पानेवाला व्यक्ति यदि वाजी [वज गतौ] क्रियाशील=active होता है तभी (वाजम्) = ज्ञान (आ अक्रमीत्) = प्राप्त करता है । क्रियाशील, पुरुषार्थी ही ज्ञान के मार्ग पर आगे बढ़ पाता है।

    ४. वे क्रियाशील व्यक्ति ही (यथा वनुष:) = [वन्-to win] विजेताओं की भाँति (सीदन्त:) = [सद्-to go, proceed=प्र+सद्] विघ्न-बाधाओं को पार करते हुए आगे बढ़ते चलते हैं।

    कश्यप मारीच बनने के लिए माता-पिता आदि की प्रेरणा के साथ बालक व युवा में भी सहज क्रियाशीलता व पुरुषार्थ का होना आवश्यक है। न अकेली प्रेरणा कार्य कर सकती है, न अकेला पुरुषार्थ। प्रेरणा और पुरुषार्थ का समन्वय होते ही ‘कश्यप मारीच' बन सकना सम्भव हो जाता है। 

    भावार्थ

    हमें सदा गुरुओं की उत्तम प्रेरणा प्राप्त होती रहे और पुरुषार्थ हमें कभी छोड़ न जाए।
     

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    विषय

    "Missing"

    भावार्थ

    भा० = (२) ( यथा ) = जिस प्रकार ( वनुषः ) = हिंसक योद्धा लोग ( सीदन्तः ) = विशेष पैतरों पर रहते हुए आक्रमण करते हैं, या जिस प्रकार ( वाजी ) = बलवान् घोड़ा ( हेतृभिः ) = हण्टरों से ( हिन्वानः ) = ताड़ा गया ( वाजं ) = युद्ध के मैदान में ( अक्रमीत् ) = दौड़ता है उसी प्रकार ( वाजी ) = ज्ञानवान् पुरुष ( हेतृभिः ) = लौकिक कष्टों या हेय, त्याज्य दुःखों से ( हिन्वानः ) = प्रेरित होकर ( हितः ) = सन्मार्ग में आकर ( वाजं ) = ज्ञानपथ पर ( अक्रमीत् ) = कदम रख देता है ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः - कश्यपो मारीचः। देवता - सोमः। छन्दः - गायत्री। स्वरः - षड्जः।

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ हृदि धारितः परमात्मसोमः किं करोतीत्याह।

    पदार्थः

    (हेतृभिः) प्रेरकैः गुरुभिः। [हि गतौ वृद्धौ च, तृच्।] (हितः) शिष्यस्य आत्मनि स्थापितः। [निष्ठायां दधातेर्हिः।] (हिन्वानः) प्रीणयन्। [हिवि प्रीणनार्थः, आत्मनेपदं छान्दसम्।] (वाजी) बलवान् परमात्मसोमः (वाजम्) अन्तःकरणे प्रवृत्तं देवासुरसंग्रामम्। [वाज इति बलनामसु संग्रामनामसु च पठितम्। निघं० २।९, २।७।] (आ अक्रमीत्) आक्रामति। कथम् ? (यथा) येन प्रकारेण (सीदन्तः) प्रयान्तः। [षदलृ विशरणगत्यवसादनेषु।] (वनुषः२) हिंसकाः योद्धारः। [वनुष्यतिर्हन्तिकर्मा। निघं० ५।२।८।] शत्रून् आक्रामन्ति तद्वत् ॥२॥ अत्रोपमालङ्कारः ॥२॥

    भावार्थः

    हृदि धृतः परमेश्वरो मानसे देवासुरसंग्रामे स्वोपासकं सदा विजयिनं कुरुते ॥२॥

    टिप्पणीः

    १. ऋ० ९।६४।२९, ‘हे॒तृभि॑र्य॒त’ इति भेदः। २. वनुषः हन्तारो भटाः, सीदन्तः युद्धं प्रविशन्तः आक्रामन्ति तद्वत्—इति सा०। वनुषाः मनुष्याः उच्यन्ते। यथा, उपविशन्तो मनुष्या आसनमाक्रामन्ति तद्वत् द्रोणकलशं सोमः—इति वि०।

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Just as violent warriors attack from the positions of advantage, and just as a powerful horse, impelled by hunters, runs in the battlefield ; so does a man of learning, goaded by worldly privations, choose the right course of conduct and tread on the path of knowledge.

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    Meaning

    Just as a warrior spurred on by ambition and love of victory rushes to the field and wins the battle, and just as ardent yajakas sit on the vedi and win their object of yajna, so does the soul assisted by senses, mind and intelligential vision win the target of its meditation on Om, the presence of divinity. (Rg. 9-64-29)

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : (वाजी) અમૃત અન્નભોગવાળા સોમ શાન્ત પરમાત્મા (हेतृभिः हितः) સ્તુતિ પ્રેરક ઉપાસકો દ્વારા ધારિત ઉપાસિત થઈને (वाजं हिन्वानः अक्रमीत्) અમૃતાન્નભોગને પ્રેરિત કરીને ઉપાસકની અંદર પ્રાપ્ત થાય છે (यथा वनुषः सीदन्तः) જેમ ચાહનાર હિતૈષી પોતાના શિષ્યોને ગુરુજન પ્રાપ્ત થઈને ઉપદેશ આપે છે. (૨)
     

    भावार्थ

    ભાવાર્થ : સ્તુતિકર્તા ઉપાસકો દ્વારા ધારણા કરેલ, ઉપાસિત કરેલ, અમૃતભોગવાળા પરમાત્મા અમૃતભોગને પ્રેરિત કરીને ઉપાસકને એવી રીતે પ્રાપ્ત થાય છે, જેમ ગુરુજન શિષ્યોને પ્રાપ્ત થઈને ઉપદેશ આપે છે. (૨)

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    हृदयात धारण केलेला परमेश्वर आंतरिक देवासुर संग्रामात उपासकाला सदैव विजयी करतो. ॥२॥

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    विषय

    आता पुढे हे सांगितले आहे की, हृदयी धारण केलेला सोम परमेश्वर काय करतो? काय फळ देतो?

    शब्दार्थ

    (हेदृभि) प्रेरक अशा गुरूजनांकडून (हित:) शिष्याच्या अंत:करणात स्थापित केलेला (हिन्वाना) आणि शिष्याला तृप्त करणारा तसेच अतिशय (राजी) बलवान असा परमात्मरूप सोम (वाजम्) शिष्याच्या अंत:करणात होणाऱ्या देवासुर-मंग्रामानर (चलबिचल, संदेह आदी वृऱ्हींवर) (आ अक्रमांत्) चारही दिशांनी आक्रमण करतो (म्हणजे शिष्याच्या मनातील सर्व संशयांचे निवारण करतो. कशाप्रकारे? की (यथा) जसे (सीदन्त:) युद्धासाठी प्रस्थान करणारे हिंसक योद्धा (शत्रुवर आक्रमण करता) (तसेच गुरुंचा उपदेश शिष्याच्या मनातील सर्व संदेह नष्ट करून टाकतो.।।२।।

    विशेष

    या मंत्रात उपमा अलंकार आहे ।।२।।

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