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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 672
ऋषिः - अहमीयुराङ्गिरसः
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
काण्ड नाम -
4
उ꣣च्चा꣡ ते꣢ जा꣣त꣡मन्ध꣢꣯सो दि꣣वि꣡ सद्भूम्या ददे꣢꣯ । उ꣣ग्र꣢꣫ꣳ शर्म꣣ म꣢हि꣣ श्र꣡वः꣢ ॥६७२॥
स्वर सहित पद पाठउ꣣च्चा꣢ । उ꣣त् । चा꣢ । ते꣣ । जात꣢म् । अ꣡न्ध꣢꣯सः । दि꣣वि꣢ । सत् । भू꣡मि꣢꣯ । आ । द꣣दे । उग्र꣢म् । श꣡र्म꣢꣯ । म꣡हि꣢꣯ । श्र꣡वः꣢꣯ ॥६७२॥
स्वर रहित मन्त्र
उच्चा ते जातमन्धसो दिवि सद्भूम्या ददे । उग्रꣳ शर्म महि श्रवः ॥६७२॥
स्वर रहित पद पाठ
उच्चा । उत् । चा । ते । जातम् । अन्धसः । दिवि । सत् । भूमि । आ । ददे । उग्रम् । शर्म । महि । श्रवः ॥६७२॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 672
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 8; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 1; खण्ड » 3; सूक्त » 1; मन्त्र » 1
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 8; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 1; खण्ड » 3; सूक्त » 1; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
प्रथम ऋचा पूर्वार्चिक में क्रमाङ्क ४६७ पर रसागार परमेश्वर के आनन्दरस के विषय में व्याख्यात हो चुकी है। यहाँ विद्या के भण्डार गुरु के ज्ञानरस के पक्ष में व्याख्या की जा रही है।
पदार्थ
हे जीवन को पवित्र करनेवाले गुरु ! (ते) आपके (अन्धसः) ज्ञानरस का (जातम्) उत्पन्न स्वरूप (उच्चा) अत्यन्त उच्च है। (दिवि सत्) प्रकाश में विद्यमान अर्थात् प्रकाशित उस ज्ञान को (भूमि) भूमि के समान स्वतः प्रकाश से रहित मैं (आददे) ग्रहण करता हूँ। उसके ग्रहण करने से मुझे (उग्रम्) प्रबल (शर्म) सुख और (महि) महान् (श्रवः) यश तथा धन प्राप्त होगा ॥१॥
भावार्थ
गुरु से शास्त्रों का अध्ययन करके और ब्रह्मविद्या का अनुभव प्राप्त करके शिष्य अपने जीवन में शान्त, सुखी और यशस्वी होते हैं ॥१॥
पदार्थ
(ते-अन्धसः) तुझ आध्यानीय—उपासनीय पवमान सोम—आनन्दधारा में आते हुए शान्त परमात्मा का (जातम्) प्रसिद्धरूप (उच्चा) ऊँचा—उत्कृष्ट है, जो (दिवि सत्) अमृत मोक्षधाम में होते हुए को “त्रिपादस्यामृतं दिवि” [ऋ॰ १०.९०.३] (भूमि-आददे) भूमि—पृथिवी पर जन्मा हुआ पार्थिव शरीर में आया हुआ “ताद्धितेन कृत्स्नवन्निगमा भवन्ति” [निरु॰ २.५] “सुपां सुलुक्...” [अष्टा॰ ७.३.३९१] ‘सप्तम्याश्च लुक्’ मैं शरीरबन्धन से मुक्त हो मोक्षधाम में पहुँचकर ग्रहण करता हूँ प्राप्त कर लेता हूँ (उग्रं शर्म महि श्रवः) जोकि उच्च सुख बहुत प्रशंसनीय है।
भावार्थ
मोक्ष में परमात्मा का ऊँचा स्वरूप साक्षात् होनेवाला है उसकी आकांक्षा उपासक में होनी चाहिए, उपासक की प्रवृत्ति या रुचि पृथिवीलोक के भोगों में नहीं रहती वह तो ऊँचे सुख और प्रशंसनीय दर्शनामृत की चाह रखता है॥१॥
विशेष
ऋषिः—आङ्गिरसोऽमहीयुः (प्राणविद्यानिष्णात मोक्ष का इच्छुक)॥ देवता—सोमः (शान्तस्वरूप परमात्मा)॥<br>
विषय
सात्त्विक अन्न, वह भी यात्रा मात्र
पदार्थ
यह तृच ‘अमहीयुः आङ्गिरस' = ऋषि का है । 'मही' का अर्थ पृथिवी या पार्थिव भोग हैं । अ-महीयु' इन पार्थिव भोगों की कामना से ऊपर उठा है। इन भोगों में न फँसने से ही वह आङ्गिरस=शक्तिशाली भी बना रहा है । यह प्रभु से कहता है कि मैं (दिवि सत्) = ज्ञान में स्थित होता हुआ (ते) = तुझसे (जातम्) = पैदा किये गये उच्चा (अन्धसः) = सात्त्विक अन्नों का (भूम्या) = केवल पार्थिव शरीर को धारण के लिए (आददे) = स्वीकार करता हूँ । अमहीयु तामस् व राजस् भोजनों के सेवन का तो विचार ही नहीं करता । वह सात्त्विक भोजन का ही सेवन करता है । (धुलोक) = मस्तिष्क में स्थित होनेवाला, अर्थात् ज्ञान-प्रधान जीवन बितानेवाला व्यक्ति सात्त्विक भोजन ही तो करेगा ।
(भूम्या) = पार्थिव शरीर के धारण के लिए इन्हें मिततम मात्रा में लेता है । इस मिततम आहार से जहाँ वह रोगों से बचा रहता है, वहाँ उसका मस्तिष्क उज्ज्वल बना रहता है । वह सदा सत्त्वगुण में विचरता है।
इस प्रकार यह नित्य सत्त्वस्थ व्यक्ति (उग्रम्) = उदात्त [Noble= ऊँचे] (शर्म) = सुख को तथा (महिश्रवः) = महनीय कीर्त्ति को प्राप्त करता है। पार्थिव भोगों में फँसकर मनुष्य प्रभु की समीपता और महान् आनन्द का अनुभव कभी नहीं कर पाता, यह प्रकृति में फँसकर जीर्ण शक्ति हो, व्याधियों का शिकार हो जाता है। साथ ही, यह अधिक खानेवाला व्यक्ति लोक में भी निन्दित होता है। लोग उसे पेटू=Glutton= व वृकोदर आदि शब्दों से स्मरण करने लगते हैं । वस्तुतः हम संसार में खाने के लिए ही आये भी तो नहीं । स्वादिष्ट भोजनों के खाने में व्यस्त पुरुष तो पशुओं से भी कुछ गिरसा जाता है, पशु भी शरीर धारण के लिए ही खाते हैं – स्वाद के लिए नहीं । इस सारी बात का ध्यान करके ही 'अमहीयु' अग्रिम मन्त्र में प्रार्थना करता है कि
भावार्थ
हम सत्त्वगुणों में अवस्थित हो शरीर - यात्रा के लिए ही भोजन करें ।
विषय
"Missing"
भावार्थ
भा० = इन तीनों ऋचाओं का व्याख्यान क्रम से देखो अविकल संख्या [४६७] पृ० २३६, और [५९२, ५९३] पृ० २९८ ॥ यह मंत्र प्रथम क्रम है ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः - अहमीयुराङ्गिरसः। देवता - सोमः। छन्दः - गायत्री। स्वरः - षड्जः।
संस्कृत (1)
विषयः
तत्र प्रथमा ऋक् पूर्वार्चिके ४६७ क्रमाङ्के रसागारस्य परमेश्वरस्यानन्दरसविषये व्याख्याता। अत्र विद्यागारस्य गुरोर्ज्ञानरसविषये व्याख्यायते।
पदार्थः
हे पवमान सोम जीवनस्य पवित्रतासम्पादक गुरो ! (ते) तव (अन्धसः) ज्ञानरसस्य (जातम्) उत्पन्नं रूपम् (उच्चा) अत्युच्चं वर्त्तते। (दिवि सत्) प्रकाशे विद्यमानं तत् (भूमि) भूमिः, भूमिवत् स्वतःप्रकाशरहितोऽहम् [सोर्लोपः सन्धिश्च छान्दसः।] (आ ददे) गृह्णामि। तज्ज्ञानग्रहणेन च मम (उग्रम्) प्रबलम् (शर्म) सुखम्, (महि) महत् श्रवः यशः धनं च जनिष्यते ॥१॥२
भावार्थः
गुरोः सकाशाच्छास्त्राण्यधीत्य ब्रह्मविद्यां चानुभूय शिष्याः स्वजीवने शान्ताः सुखिनो यशस्विनश्च जायन्ते ॥१॥
टिप्पणीः
१. ऋ० ९।६१।१०, ‘दिविषद्’ इति पाठः। य० २६।१६, साम० ४६७। २. यजुर्भाष्ये दयानन्दर्षिर्मन्त्रमिमं ‘विद्वद्भिर्मनुष्यैः सूर्यकिरणवायुमन्त्यन्नादियुक्तानि महान्त्युच्चानि गृहाणि रचयित्वा तत्र निवासेन सुखं भोक्तव्यम्’ इति विषये व्याख्यातवान्। यजुर्वेदे तन्मते अस्य मन्त्रस्य महीयव ऋषिः, अग्निर्देवता।
इंग्लिश (2)
Meaning
O Soma, the denizen of the earth, enjoys the intense pleasure and great glory, derived from drinking thee found in a happy spot!
Translator Comment
See verse 467, which is the same as 672, but with a different interpretation.^Persons residing on the Earth, who drink the Soma juice derive pleasure and glory. Soma juice is derived from creepers which are white like the milk, vide Rigveda 9-10-9, and Rig 9-61-10.
Meaning
O Soma, high is your renown, great your peace and pleasure, born and abiding in heaven, and the gift of your energy and vitality, the earth receives as the seed and food of life. (Rg. 9-61-10)
गुजराती (1)
पदार्थ
પદાર્થ : (ते अन्धसः) તુજ આધ્યાનીય ઉપાસનીય પવમાન સોમ-આનંદધારામાં આવતાં શાન્ત પરમાત્માનું (जातम्) પ્રસિદ્ધ રૂપ (उच्चा) ઊચ્ચ ઉત્કૃષ્ટ છે, (दिवि सत्) જે અમૃત મોક્ષધામમાં થઈને (भूमि आददे) ભૂમિ-પૃથિવી પર જન્મેલ પાર્થિવ શરીરમાં આવેલ હું શરીર બંધનથી મુક્ત થઈને મોક્ષધામમાં પહોંચીને ગ્રહણ કરું છું, પ્રાપ્ત કરું છું (उग्रं शर्म महि श्रवः) જે શ્રેષ્ઠ સુખ અત્યંત પ્રશંસનીય છે. (૧)
भावार्थ
ભાવાર્થ : મોક્ષમાં પરમાત્માનું શ્રેષ્ઠ સ્વરૂપ સાક્ષાત્ થનાર છે. તેની આકાંક્ષા ઉપાસકને થવી જોઈએ, ઉપાસકની પ્રવૃત્તિ અથવા રુચિ પૃથિવી લોકના ભોગોમાં રહેતી નથી, ત્યારે તે શ્રેષ્ઠ સુખ અને પ્રશંસનીય દર્શનામૃતની ઇચ્છા રાખે છે. (૧)
मराठी (2)
भावार्थ
गुरूकडून शास्त्राचे अध्ययन करून व ब्रह्मविद्येचा अनुभव प्राप्त करून शिष्य आपल्या जीवनात शांत, सुखी व यशस्वी होतात. ॥१॥
विषय
ही ऋचा पूर्वार्चिक भागात क्र. ६४७ वर आली आहे. तिथे हिची व्याख्या रसागार परमेश्वराच्या आनन्द रसाविषयी केली आहे. इथे या मंत्राची व्याख्या विद्येचे भांडार जे ज्ञान गुरूचा त्या ज्ञानरसापक्षी केली आहे.
शब्दार्थ
जीवनाला पवित्र करणारे हे गुरूदेव (ते) तुमच्या (अन्धस:) ज्ञानरसाचे (जातम्) उत्पन्न स्वरूप (त्यातून निघणारा अर्थ) (उचा) अत्यंत उच्च आहे. (दिरिसत्) प्रकाश में वा आकाश में स्थित अर्थात अत्यंत श्रेष्ठ व उच्च ज्ञानाला मी (तुमचा शिष्य) (भूमि) भूमीप्रमाणे (आदये) ग्रहण करीत आहे. (म्हणजे भूमी ज्याप्रकारे उच्चस्थित सूर्याचा प्रकाश ग्रहण करते, तद्वत मी तुमचे श्रेष्ठ ज्ञान प्राप्त करीत आहे. त्या ज्ञानाचा स्वीकार केल्यामुळे मला (उग्रम) प्रबळ (शर्म) सुख शांती (महि) महान (श्रव:) कीर्ती व धन प्राप्त होईल. (यावर माझा दृढ विश्वास आहे.) ।।१।।
भावार्थ
गुरूपासून शास्त्र शिकून व ब्रह्मविद्येचा अनुभव प्राप्त करूनच शिष्य जीवनात शांती, सुख आणि यशस्विता प्राप्त करू शकतात. ।।१।।
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