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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 699
    ऋषिः - अन्धीगुः श्यावाश्विः देवता - पवमानः सोमः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम -
    6

    तं꣢ दु꣣रो꣡ष꣢म꣣भी꣢꣫ नरः꣣ सो꣡मं꣢ वि꣣श्वा꣡च्या꣢ धि꣣या꣢ । य꣣ज्ञा꣡य꣢ स꣣न्त्व꣡द्र꣢यः ॥६९९॥

    स्वर सहित पद पाठ

    तम् । दु꣣रो꣡ष꣢म् । अ꣣भि꣢ । न꣡रः꣢꣯ । सो꣡म꣢꣯म् । वि꣣श्वा꣡च्या꣢ । धि꣣या꣢ । य꣣ज्ञा꣡य꣢ । स꣣न्तु । अ꣡द्र꣢꣯यः । अ । द्र꣣यः ॥६९९॥


    स्वर रहित मन्त्र

    तं दुरोषमभी नरः सोमं विश्वाच्या धिया । यज्ञाय सन्त्वद्रयः ॥६९९॥


    स्वर रहित पद पाठ

    तम् । दुरोषम् । अभि । नरः । सोमम् । विश्वाच्या । धिया । यज्ञाय । सन्तु । अद्रयः । अ । द्रयः ॥६९९॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 699
    (कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 18; मन्त्र » 3
    (राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 1; खण्ड » 5; सूक्त » 4; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    अगले मन्त्र में पुनः उसी विषय का वर्णन है।

    पदार्थ

    (दुरोषम्) जलाये या सुखाये न जा सकने योग्य (तम्) उस पूर्ववर्णित (सोमम्) ज्ञान-कर्म-उपासनारूप सोमरस को (नरः) सज्जन लोग (विश्वाच्या) सब उत्कृष्ट विषयों के विवेचन में व्याप्त होनेवाली (धिया) बुद्धि से (अभि) अभिषुत करें, जिससे (अद्रयः) किसी भी आन्तरिक या बाह्य शत्रु से विदीर्ण न होनेवाले वे लोग (यज्ञाय) परमेश्वर की पूजा, विद्वानों के सत्कार, संगठन और परोपकार-रूप यज्ञ के लिए (सन्तु) होवें ॥३॥

    भावार्थ

    श्रेष्ठज्ञान, सत्कर्म और परमेश्वर की उपासना को जो अपने जीवन में ग्रहण करते हैं वे सदा विजयी और यज्ञपरायण होते हैं ॥३॥

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    पदार्थ

    (अद्रयः-नरः) विघ्न बाधाओं से दीर्ण—क्षीण न होने वाले मुमुक्षु उपासक “नरो ह वै दैवविशः” [जै॰ १.८९] (विश्वाच्या धिया) सर्वात्मना प्राप्ति शक्तिमयी उपासना क्रिया से “धीः कर्मनाम” [निघं॰ २.१] (तं दुरोषं सोमम्) उस ओष—दाह को ध्वंस करने वाले शान्तस्वरूप परमात्मा को (यज्ञाय) अध्यात्मयज्ञ सम्पादन के लिए (अभि सन्तु) स्वाश्रय करते हैं—स्वात्मा में धारण करते हैं।

    भावार्थ

    मुमुक्षु उपासक सर्वात्म प्राप्ति कराने वाली उपासना क्रिया से अध्यात्मयज्ञ चलाने के लिए उस दाह ताप के नाशक परमात्मा को स्वात्मा में धारण करते हैं॥३॥

    विशेष

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    विषय

    बुराइमात्र का दाह

    पदार्थ

    (तम्) = उस (अभि-दुरोषम्) = [दुर्+ओषम्, उष् दाहे] बुराइयों को सर्वतः जला डालनेवाली (सोमम्) = वीर्यशक्ति को (नरः) = [नृ नये] अपने को आगे ले-चलनेवाले मनुष्य (विश्वाच्या) = सब विषयों = में प्रगतिवाली (धिया) = बुद्धि से, अर्थात् व्यापक ज्ञान के साथ (यज्ञाय) = उत्तम कर्मों के लिए विनियुक्त करते हैं ।

    यह सोम क्या शरीर, क्या मन और क्या बुद्धि सभी स्थानों की मलिनता को नष्ट कर देता है । रोगकृमियों को, द्वेषादि की वृत्तियों को तथा बुद्धि की कुण्ठता को दूर करता हुआ यह सचमुच ‘अभिदुरोषम्' है। इस सोम की रक्षा के लिए इसका कहीं-न-कहीं विनियोग आवश्यक है। नर लोग इसका विनियोग ऊँचे-से-ऊँचे ज्ञान को प्राप्त करने में तथा उत्तम कर्मों में किया करते हैं और इस प्रकार ‘ अन्धीगुः श्यावाश्व' बनते हैं। हम भोग में फँसकर इसका अपव्यय कर बैठते हैं, परन्तु नर व्यक्ति ऐसा कभी नहीं करते, इसलिए वे (अद्रयः सन्तु) = आदरणीय होते हैं। मन्त्र में 'विश्वाच्या धिया' शब्द से 'व्यापक ज्ञान में लगे रहना' तथा 'यज्ञाय' शब्द से 'उत्तम कर्मों में लगे रहनासोमपान के इन दो साधनों का उल्लेख हुआ है। ये सोमपान के साधन भी हैं, फल भी हैं। सोमपान से हम इनमें प्रवृत्त होते हैं और इनमें प्रवृत्त होना सोमपान के लिए सहायक होता है ।

    भावार्थ

    हम व्यापक ज्ञान की उपलब्धि व यज्ञों में प्रवृत्त हो सोमपान करके सब बुराइयों को भस्म कर दें और आदरणीय हों ।

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    विषय

    "Missing"

    भावार्थ

    भा० = ( ३ ) ( तं ) = उस ( दुरोषं ) = दुःखकारी रोष या दाह, प्रताप या तेज वाले ( सोमं ) = सोम्य योगी के पास ( नरः ) = लोग ( विश्वाच्या धिया ) = विश्वव्यापी प्रेमबुद्धि से ( अभि ) = आते हैं। मनुष्यों को चाहिये कि वे ( अद्रयः ) = पर्वत के समान स्थिर, अभेद्य हृदय या मेघ के समान आदरपूर्ण, उदार हृदय होकर ( यज्ञाय ) = दान आदि शुभ कार्यों के निमित्त ( सन्तु ) = लगे रहें ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः - श्यावाश्व: । देवता - सोम:। छन्दः - अनुष्टुप् । स्वरः -  गान्धार: ।

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ पुनरपि तमेव विषयमाह।

    पदार्थः

    (दुरोषम्२) दुर्दहं दुःशोषं वा। [दुःखेन उष्यते दह्यते इति दुरोषः तम्। दुर्पूर्वः उष दाहे भ्वादिः।] पूर्ववर्णितम् (सोमम्) ज्ञानकर्मोपासनारूपम् सोमरसम् (नरः) सज्जनाः (विश्वाच्या३) सर्वान् सद्विषयान् व्याप्नुवानया। [विश्वान् सर्वान् विवेचनीयान् विषयान् प्रति अञ्चति गच्छतीति तया।] (धिया) बुद्ध्या (अभि) अभिषुण्वन्तु। [उपसर्गबलेन योग्यक्रियाध्याहारः।] येन (अद्रयः४) केनापि आन्तरिकेण बाह्येन वा शत्रुणा अविदृताः ते (यज्ञाय) ईशपूजनाय विद्वत्सत्काराय संगतिकरणाय परोपकाराय च (सन्तु) भवन्तु ॥३॥

    भावार्थः

    सज्ज्ञानं सत्कर्म परमेश्वरोपासनां च ये स्वजीवने गृह्णन्ति ते सदा विजयिनो यज्ञपरायणाश्च जायन्ते ॥३॥

    टिप्पणीः

    १. ऋ० ९।१०१।३ ‘य॒ज्ञं हि॑न्व॒न्त्यद्रि॑भिः’ इति तृतीयः पादः। २. रोषतेहिंसार्थस्य रेफलोपे दीर्घाभावे ओषतेर्दाहार्थस्य वा णलि रूपमिति सन्देहादनवग्रहः—इति सा०। दुरोषम् अरोषम्—इति वि०। ३. विश्वाच्या विश्वगामिन्या—इति वि०। सर्वान् कामान् अञ्चित्र्या कामान् प्रापयित्र्या—इति सा०। ४. अद्रयः मेघाः वर्षस्वभावाः अथवा अद्रयः अभिषवग्राव्णः—इति वि०। अद्रयः अवारणयुक्ताः इति सा०।

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    People approach a majestic and amiable Yogi, with universal love and devotion. They being large-hearted like a cloud, should continue performing noble deeds of charity.

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    Meaning

    That blazing unassailable Soma, adorable in yajna, leading lights of rock-bed foundation invoke and impel with universal thought and speech, with controlled mental reflection for self-realisation. (Rg. 9-101-3)

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : (अद्रयः नरः) વિઘ્ન બાધાઓથી દીર્ણ-ક્ષીણ ન થનાર મુમુક્ષુ ઉપાસક (विश्वाच्या धिया) સર્વાત્મના પ્રાપ્તિ શક્તિમયી ઉપાસના ક્રિયાથી (तं दुरोषं सोमम्) તે ઓષ = દાહનો ધ્વંસ કરનાર શાન્ત સ્વરૂપ પરમાત્માને (यज्ञाय) અધ્યાત્મયજ્ઞ સંપાદન કરવા માટે (अभि सन्तु) સ્વાશ્રય કરે છે-સ્વાત્મામાં ધારણ કરે છે. (૩)
     

    भावार्थ

    ભાવાર્ય : મુમુક્ષુ ઉપાસક સર્વાત્મ પ્રાપ્તિ કરાવનારી ઉપાસના ક્રિયાથી અધ્યાત્મયજ્ઞ ચલાવવા માટે તે દાહ, તાપનાશક પરમાત્માને પોતાના આત્મામાં ધારણ કરે છે. (૩)
     

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    श्रेष्ठ ज्ञान, सत्कर्म व परमेश्वराची उपासना करून जे आपले जीवन स्वीकारतात, ते सदैव विजयी व यज्ञपरायण असतात ॥३॥

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    विषय

    पुन्हा तोच विषय वर्णित आहे.

    शब्दार्थ

    (दुरोषम्) ज्या जाळता येत नाही वा वाळविता येत नाही अशा (तम्) त्या पूर्वी वर्णन केलेल्या (सोमम्) ज्ञान, कर्म, उपासनारूप सोमरसाला (नर:) सज्जन लोकांनी (विश्वाच्या) सर्व उत्कृष्ट विषयांच्या विवेचनात समर्थ अशा (धिया) बुद्धीने (अभि) अभिपुत करावे (तयाभूत घ्यावे) की ज्यामुळे (अद्रय:) कोणाही बाह्य वा आंतरिक शत्रुद्वारे भग्न न होऊ शकणारे ते लोक सारक (यज्ञाय) परमेश्वराची पुजा, विद्वानांचा सत्कार समर्थ अशा मनाला (अपश्नथिष्टन) त्या सोमरसाकडे प्रवृत्त करा ।।१।।

    भावार्थ

    ज्ञान, कर्म आणि उपासना यांकडे मनास प्रवृत्त करून त्यामुळे जो आनंद मिळतो तो सर्वांनी अवश्य मिळवावा, हा या मंत्राचा संदेश आहे. ।।१।।

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