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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 714
ऋषिः - श्रुतकक्षः सुकक्षो वा आङ्गिरसः
देवता - इन्द्रः
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
काण्ड नाम -
2
पु꣣रुहूतं꣡ पु꣢रुष्टु꣣तं꣡ गा꣢था꣣न्या꣡३꣱ꣳस꣡न꣢श्रुतम् । इ꣢न्द्र꣣ इ꣡ति꣢ ब्रवीतन ॥७१४॥
स्वर सहित पद पाठपु꣣रुहूत꣢म् । पु꣣रु । हूत꣣म् । पु꣣रुष्टुत꣢म् । पु꣣रु । स्तुत꣢म् । गा꣣थान्य꣢꣯म् । स꣡न꣢꣯श्रुतम् । स꣡न꣢꣯ । श्रु꣣तम् । इ꣡न्द्रः꣢꣯ । इ꣡ति꣢꣯ । ब्र꣣वीतन । ब्रवीत । न ॥७१४॥
स्वर रहित मन्त्र
पुरुहूतं पुरुष्टुतं गाथान्या३ꣳसनश्रुतम् । इन्द्र इति ब्रवीतन ॥७१४॥
स्वर रहित पद पाठ
पुरुहूतम् । पुरु । हूतम् । पुरुष्टुतम् । पुरु । स्तुतम् । गाथान्यम् । सनश्रुतम् । सन । श्रुतम् । इन्द्रः । इति । ब्रवीतन । ब्रवीत । न ॥७१४॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 714
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 1; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 2; खण्ड » 1; सूक्त » 1; मन्त्र » 2
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 1; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 2; खण्ड » 1; सूक्त » 1; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
अगले मन्त्र में आचार्य शिष्यों को कह रहा है।
पदार्थ
हे शिष्यो ! तुम (पुरुहूतम्) बहुतों से पुकारे जानेवाले, (पुरुस्तुतम्) बहुत स्तुति किये जानेवाले, (गाथान्यम्) वेदवाणियों को प्राप्त करानेवाले अर्थात् वेदवाणियों के उपदेष्टा, (सनश्रुतम्) सनातन-रूप से प्रसिद्ध परमेश्वर को ही (इन्द्रः इति) इन्द्र नाम से (ब्रवीतन) कहा करो ॥२॥
भावार्थ
यद्यपि इन्द्र का अर्थ आचार्य भी होता है तथापि इन्द्रों का भी इन्द्र परमेश्वर ही है, जैसा कि योगदर्शन १।२६ में वर्णित है कि ‘ईश्वर काल से बंधा न होने के कारण प्राचीनों का भी गुरु है’ ॥२॥
पदार्थ
(पुरुहूतं पुरुष्टुतम्) बहुत आस्तिकों के द्वारा आमन्त्रणीय तथा बहुत आस्तिकों द्वारा स्तुत्य (गाथान्यम्) गाने वाली ऋचाओं से गाने योग्य (सनश्रुतम्) भजन स्तुति वाले को (इन्द्रः-इति ब्रवीतन) ऐश्वर्यवान् परमात्मा कहो—जानो।
भावार्थ
बहुत आस्तिक जनों के आमन्त्रणीय बहुत आस्तिकजनों के स्तुतियोग्य वेदमन्त्रों से गाने-जानने योग्य भजन स्तुति सुनने वाले को इन्द्र परमात्मा कहो—जानो॥२॥
विशेष
<br>
विषय
इन्द्र
पदार्थ
प्रभु-स्तवन करता हुआ श्रुतकक्ष कहता है कि (पुरुहूतम्) = बहुतों से पुकारे गये उस प्रभु को (इन्द्रः इति ब्रवीतन) = इन्द्र इस नाम से स्मरण करो । सन्त लोग सदा उस प्रभु का स्मरण करते हैं, दूसरे भी कष्ट में उसे ही पुकारते हैं। अन्य सब आधारों की असारता अनुभव होने पर किसने उस प्रभु को याद नहीं किया। (पुरुष्टुतम्) = वे प्रभु ही सदा खूब स्तुत होते हैं। सज्जनों से सुख में और सामान्य लोगों से दु:ख में उस प्रभु को याद किया जाता है । (गाथान्यम्) = वस्तुतः हमें उस प्रभु की ही गुणगाथा गानी चाहिए–वे प्रभु ही गायन के योग्य हैं, क्योंकि वे (सनश्रुतम्) = [सन्=संविभाग] इस संसार में उचित संविभाग के कारण प्रसिद्ध हैं। प्रभु के सभी कार्य सन्तुलित व न्याय्य हैं । अन्धे पुरुष के आँखें नहीं होती तो उसे स्मृतिशक्ति व मनः प्रसाद अधिक मात्रा में दिया गया है ।
जिस प्रकार आध्यात्मिक क्षेत्र में पुरुहूत आदि गुणों के कारण प्रभु 'इन्द्र' हैं, उसी प्रकार आधिभौतिक क्षेत्र में राजा इन्द्र है। राजा को भी (पुरुहूतम्) = बहुतों से पुकारा गया (पुरुष्टुतम्) = खूब स्तुति किया गया, (गाथान्याम्) = गाई गई कीर्तिगाथाओंवाला तथा (सनश्रुतम्) = प्रजा में धनों का उचित संविभाग करनेवाला होना चाहिए ।
इस शरीर में हमें [जीवात्मा को] भी अपने को पुरुहूत आदि गुणों से विशिष्ट बनाने के लिए प्रयत्नशील होना अनिवार्य है। यदि हम स्वार्थ में ही न रमकर कुछ परार्थ की वृत्तिवाले होंगे तो पुरुहूत व पुरुष्टुत तो होंगे ही, हमारे न चाहते हुए भी हमारी कीर्तिगाथाएँ गाई जाएँगी और हम अपने धनादि के संविभाग के कारण प्रसिद्धि पाएँगे । जब जीव इस मार्ग पर चलता है, तभी वह अपने सोम की भी रक्षा कर पाता है, इसलिए इन उल्लिखित शब्दों में प्रभु का स्मरण करते हुए अपने जीवन का ध्येय भी 'सत्य इन्द्र' बनने का रखना चाहिए ।
भावार्थ
प्रभु का इन्द्र नाम से स्मरण करते हुए हम भी इन्द्र बनने के लिए प्रयत्नशील हों ।
विषय
"Missing"
भावार्थ
भा० = ( २ ) ( पुरुहूतं ) = इन्दियों द्वारा, या प्रजाओं द्वारा अपनी रक्षा के निमित्त पुकारे गये, ( पुरुष्टुतं ) = प्रजाओं या इन्द्रियों द्वारा स्तुति किये गये, ( गाथान्यं ) = गाथारूप, वेदवाणियों के श्रवण द्वारा प्राप्त करने योग्य, ( सनश्रुतं ) = सदाकाल से गुरुपदेशों में सुने गये विशेष पुरुष आत्मा को ( इन्द्रः ) = इन्द ( इति ) = इस प्रकार ( ब्रवीतन ) = कहो । राजा, आत्मा, परमात्मा सर्वत्र समान है ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः - श्रुतकक्ष:। देवता - इन्द्र:। छन्दः - गायत्री । स्वरः - षड्ज: ।
संस्कृत (1)
विषयः
अथाचार्यः शिष्यान् प्राह।
पदार्थः
भोः शिष्याः ! यूयम् (पुरुहूतम्) पुरुभिः बहुभिः आहूतम्, (पुरुष्टुतम्) बहुस्तुतम्, (गाथान्यम्२) गीयन्ते इति गाथाः वेदवाचः ताः नयति प्रापयतीति गाथानीः तम्,वेदवाचामुपदेष्टारम्, (सनश्रुतम्३) सनातनतया प्रसिद्धम् परमेश्वरमेव (इन्द्रः इति) इन्द्र इति नाम्ना (ब्रवीतन) ब्रूत। [ब्रूञ् व्यक्तायां वाचि, अदादिः, ईडागमश्छान्दसः, तस्य तनबादेशः] ॥२॥
भावार्थः
यद्यप्याचार्योऽपि ‘इन्द्र’ पदवाच्योऽस्ति तथापि इन्द्राणामपि इन्द्रः परमेश्वर एव विद्यते, “स पूर्वेषामपि गुरुः कालेनानवच्छेदात्” (योग० १।२६) इत्युक्तेः ॥२॥
टिप्पणीः
१. ऋ० ८।९२।२ २. गाथाः स्तोत्रशस्त्रमन्त्राणि ताभिः नीयते यः स गाथान्यः तं गाथान्यम्—इति वि०। गाथान्यं गानयोग्यं गातव्यम्—इति सा०। (गाथान्यः) यो गाथा नयति तस्य—इति ऋ० १।१९०।१ भाष्ये द०। ३. सनशब्दः सदावाची, सदैव विश्रुतम्—इति वि०।
इंग्लिश (2)
Meaning
O men know God as Indra, lauded by many, much invoked; knowable through Vedic verses. Renowned of old !
Meaning
Call him by the name and title of Indra, invoked by many, adored by all, worthy of celebration in story, all time famous who is also a scholar of universal knowledge. (Rg. 8-92-2)
गुजराती (1)
पदार्थ
પદાર્થ : (पुरुहूतं पुरुष्टुतम्) અનેક આસ્તિકો દ્વારા આમંત્રણીય અને અનેક આસ્તિકો દ્વારા સ્તુતિ કરવામાં આવે છે. (गाथान्यम्) ગાન કરનારી ઋચાઓથી ગાવા યોગ્ય (सनश्रुतम्) ભજન સ્તુતિવાળાને (इन्द्रः इति ब्रवीतन) ઐશ્વર્યવાન પરમાત્મા કહો-જાણો. (૨)
भावार्थ
ભાવાર્થ : અનેક આસ્તિકજનોનાં આમંત્રણીય તથા અનેક આસ્તિકજનોનાં સ્તુતિ યોગ્ય વેદમંત્રોથી ગાવા-જાણવા યોગ્ય ભજન, સ્તુતિવાળાને ઇન્દ્ર પરમાત્મા કહો-જાણો. (૨)
मराठी (2)
भावार्थ
जरी इन्द्राचा अर्थ आचार्य असा ही आहे तरी ही इन्द्राचा ही इन्द्र परमेश्वरच आहे. जसे योगदर्शन १/२६ मध्ये वर्णन केलेले आहे की ‘ईश्वर काळाने बंधित नसल्यामुळे प्राचीनांचाही गुरू आहे’’ ॥२॥
विषय
पुढच्या मंत्रात आचार्य शिष्यांना सांगत आहेत-
शब्दार्थ
हे शिष्यांनो, तुम्ही (पुरुहुतम्) ज्याला अनेक जण पुकारतात, (पुरुस्तुम्) ज्याची अनेकजण स्तुती करतात, (गाथान्यम्) जो वेदवाणीचा उपदेश देणारा आहे आणि जो (समश्रुतम्) सनातन काळापासून प्रसिद्ध आहे, अशा परमेश्वराला (इन्द्र इति) इन्द्र नावाने (ब्रवीतम्) हाक मारत जा. (आचार्याला इन्द्र माना म्हणजे ऐश्वर्यावान परमेश्वर समजा ।।२।।
भावार्थ
जरी इन्द्र या शब्दाचा एक अर्थ आचार्य असादेखील आहे, तथापि, इन्द्राचा इन्द्र तो परमेश्वर आहे. योगदर्शन (१/२६) येथे असे म्हटले आहे की ईश्वर काळ वा मर्यादेच्या बंधनात नाही. त्यामुळे ही प्राचीन सर्व गुरु, ऋषींचा गुरुही आहे. ।।२।।
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