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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 719
    ऋषिः - मेधातिथिः काण्वः प्रियमेधश्चाङ्गिरसः देवता - इन्द्रः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम -
    3

    व꣣य꣡मु꣢ त्वा त꣣दि꣡द꣢र्था꣣ इ꣡न्द्र꣢ त्वा꣣य꣢न्तः꣣ स꣡खा꣢यः । क꣡ण्वा꣢ उ꣣क्थे꣡भि꣢र्जरन्ते ॥७१९॥

    स्वर सहित पद पाठ

    व꣣य꣢म् । उ꣣ । त्वा । तदि꣡द꣢र्थाः । त꣣दि꣢त् । अर्थाः । इ꣡न्द्र꣢꣯ । त्वा꣣य꣡न्तः꣢ । स꣡खा꣢꣯यः । स । खा꣣यः । क꣡ण्वाः꣢꣯ । उ꣣क्थे꣡भिः꣢ । ज꣣रन्ते ॥७१९॥


    स्वर रहित मन्त्र

    वयमु त्वा तदिदर्था इन्द्र त्वायन्तः सखायः । कण्वा उक्थेभिर्जरन्ते ॥७१९॥


    स्वर रहित पद पाठ

    वयम् । उ । त्वा । तदिदर्थाः । तदित् । अर्थाः । इन्द्र । त्वायन्तः । सखायः । स । खायः । कण्वाः । उक्थेभिः । जरन्ते ॥७१९॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 719
    (कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 3; मन्त्र » 1
    (राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 2; खण्ड » 1; सूक्त » 3; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    हिन्दी (5)

    विषय

    प्रथम ऋचा पूर्वार्चिक में क्रमाङ्क १५७ पर परमात्मोपासना के विषय में व्याख्यात हो चुकी है। यहाँ शिष्यगण आचार्य को कह रहे हैं।

    पदार्थ

    हे आचार्यप्रवर ! (तदिदर्थाः) वह लौकिक विद्या तथा ब्रह्मविद्या का अध्ययन ही जिनका उद्देश्य है, ऐसे (वयम्) हम विद्यार्थी (त्वा) आपके समीप आते हैं। हे (इन्द्र) विद्याओं के अधिपति ! (सखायः) सहाध्यायी हम (त्वायन्तः) आपको चाहते हैं। सभी (कण्वाः) मेधावी विद्यार्थी (उक्थेभिः) स्तोत्रों से आपकी (जरन्ते) स्तुति करते हैं ॥१॥

    भावार्थ

    शिष्यों को चाहिये कि गुरुओं के प्रति सदा ही विनय का व्यवहार करें, नित्य उनकी सेवा करें। कहा भी है—पढ़ाए हुए जो विप्र छात्र मन-वाणी-कर्म से गुरु का आदर नहीं करते, वे गुरु के कृपापात्र नहीं बनते और न ही पढ़ी हुई विद्या उनकी रक्षा करती है (निरुक्त २।४) ॥१॥

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    टिप्पणी

    (देखो अर्थव्याख्या मन्त्र संख्या १५७)

    विशेष

    ऋषिः—मेधातिथिः प्रियमेधा वा (मेधा से परमात्मा में अतन गमन प्रवेश करने वाला या प्रिय है अध्यात्मयज्ञ जिसको)॥ देवता—इन्द्रः (ऐश्वर्यवान् परमात्मा)॥ छन्दः—गायत्री॥<br>

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    विषय

    'मेध्यातिथि प्रियमेध' की उपासना

    पदार्थ

    इस मन्त्र के ऋषि मेध्यातिथि व प्रियमेध हैं । (मेध्यः) = पवित्र प्रभु ही है अतिथि जिसका, वह ‘मेध्यातिथि' है । (तदिदर्थाः) = वह प्रभु ही उसका एकमात्र प्रयोजन होता है। (त्वायन्तः) = वह उस प्रभु की ही ओर चलता है, उसी का सखा बनता है । वह स्पष्ट कहता है कि (वयम्) = हम (त्वा) = तुझे ही चाहते हैं। वस्तुत: जिन्हें मेधा प्रिय है, वे (कण्वाः) = मेधावी पुरुष (उक्थेभिः) = स्तोत्रों से प्रभु की ही तो (जरन्ते) = स्तुति करेंगे । अन्य सांसारिक वस्तुएँ अन्यत्र मिल भी जाएँ, परन्तु मेधा तो प्रभु की उपासना से ही प्राप्त होगी, अतः यह ज्ञानी प्रभु का ही भक्त बनता है ।

    भावार्थ

    मेधावी तेरी ही कामना करते हैं ।

    टिप्पणी

    इस मन्त्र का व्याख्यान मन्त्र संख्या १५७ पर हो चुका है, अतः यहाँ संक्षेप से ही दिया है ।

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    पदार्थ

    शब्दार्थ  = ( इन्द्र ) = हे परमात्मन् ! ( सखायः ) = मित्र वर्ग  ( कण्वा: ) मेधावी  ( त्वा ) = आपका  ( उक्थेभिः ) = वेद मन्त्रों से  ( जरन्ते ) = पूजन करते हैं और  ( त्वा यन्तः ) = आपको चाहते हुए  ( तदिदर्था: ) = अनन्य भक्त  ( वयम् ) = हम  ( उ ) = भी  आपको ही पूजते है ।

    भावार्थ

    भावार्थ = हे परम पूजनीय परमेश्वर ! संसार में महाज्ञानी, सबके मित्र, महानुभाव महात्मा लोग, वेदों के पवित्र मन्त्रों से आप का पूजन करते हैं। दयामय ! हम भी सांसारिक भोगों से उपराम होकर आपको ही चाहते हुए आपकी शरण में आते हैं और आपको अपना इष्ट देव जानकर आपकी भक्ति में अपने मन को लगाते हैं ।

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    विषय

    "Missing"

    भावार्थ

    भा० = ( १ ) व्याख्या देखो अविकल सं०[१५७] पृ० ८८ ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः - मेध्यातिथिप्रियमेधौ । देवता - इन्द्र। छन्दः - गायत्री । स्वरः - षड्ज: ।

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    तत्र प्रथमा ऋक् पूर्वार्चिके १५७ क्रमाङ्के परमात्मार्चनविषये व्याख्याता। अत्र शिष्या आचार्यं निवेदयन्ति।

    पदार्थः

    हे आचार्यप्रवर ! (तदिदर्थाः) तदित् तदेव लौकिकविद्याब्रह्मविद्याध्ययनम् (अर्थः) प्रयोजनं येषां तथाविधाः (वयम्) विद्यार्थिनः (त्वा) त्वाम्, उपैमः इति शेषः। हे (इन्द्र) विद्याधिपते ! (सखायः) सहाध्यायिनो वयम् (त्वायन्तः) त्वां कामयमानाः स्मः। सर्वे एव (कण्वाः) मेधाविनो विद्यार्थिनः (उक्थेभिः) स्तोत्रैः, त्वाम् (जरन्ते) स्तुवन्ति ॥१॥

    भावार्थः

    शिष्यैर्गुरून् प्रति सदैव विनयेन वर्तनीयं, नित्यं ते परिचरणीयाश्च। उक्तञ्च यथा, “अध्यापिता ये गुरुं नाद्रियन्ते विप्रा वाचा मनसा कर्मणा वा। यथैव ते न गुरोर्भोजनीयास्तथैव तान्न भुनक्ति श्रुतं तत्” (निरु० २।४)इति ॥१॥

    टिप्पणीः

    ३. ऋ० ८।२।१६, अथ० २०।१८।१, साम० १५७।

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    O King, we thy friends, longing to be associated with thee, and devoted to thee, sing thy praise. Learned persons also praise thee with Vedic verses !

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    Meaning

    Indra, we too have the same aims and objectives as you. We are your friends and admirers. We know and wish to achieve, and with all words of praise and appreciation, we adore you as others, wise devotees, do. (Rg. 8-2-16)

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : (इन्द्र) હે પરમ ઐશ્વર્યવાન પરમાત્મન્ ! (कण्वाः) મેધાવી (सखायः) તારા મિત્રજન (त्वायन्तः) તારી કામના કરતા (उक्थेभिः) પ્રશંસનીય વચનો-વૈદિક સ્તુતિના નામો દ્વારા (जरन्ते) સ્તુતિમાં લાવીએ છીએ. (वयम् उ) અમે પણ (तदिदर्थाः) તે માટે-લક્ષ્યને લઈને, તેવા બનીને (त्वा) તને સ્તુતિમાં લાવીએ છીએ. (૩)

     

    भावार्थ

    ભાવાર્થ : પરમાત્મન્ ! અમે પણ પૂર્વવર્તી અથવા અમારાથી શ્રેષ્ઠ વિદ્વાનોની માફક તને ચાહતાકામના કરતા વૈદિક નામો દ્વારા તારી સ્તુતિ કરીએ છીએ. આપણાથી શ્રેષ્ઠ વિદ્વાનોને આદર્શ માનીને પરમાત્માની સ્તુતિ કરવી જોઈએ. (૩)
     

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    शिष्यांनी गुरूबरोबर सदैव विनयाचा व्यवहार करावा, नित्य त्यांची सेवा करावी, असेही म्हटले आहे, अध्ययन केलेले जे विद्यार्थी विद्वान बनतात व मन-वाणी-कर्माने गुरूचा आदर करत नाहीत ते गुरूचे कृपापात्र बनत नाहीत व अध्ययन केलेली विद्या त्यांचे रक्षण करत नाही (निरुक्त २।४) ॥१॥

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    विषय

    प्रथम ऋचेची व्याख्या पूर्वार्चिक भागामध्ये क्र. १५७ वर केली आहे. तिथे अंतरात्मपर व्याख्या केली असून, इथे शिष्यगण आचार्याला काही सांगत आहेत.

    शब्दार्थ

    हे आचार्यप्रवर (तदिदर्था:) ती लौकिकविद्या आणि ती ब्रह्मविद्या या दोन विद्यांचे अध्ययन हा ज्यांच्या जीवनाचा उद्देश आहे, असे (वयम्) आम्ही (त्वा) तुमच्या जवळ येत आहोत. हे (इन्द्र) विद्यांचे अधिपती, (सखाय:) आम्ही सर्व विद्यार्थी मित्र (बायन्त:) मनापासून आपणांस आदरणीय मानत आहोत. सर्व (कण्वा:) मेधानी विद्यार्थी (उक्देभि:) स्तोत्रांद्वारे तुमचे (जत्रे) स्तुतिगान करीत आहोत. ।।१।।

    भावार्थ

    शिष्यांनी गुरुविषयी नेहमी विनयपूर्ण आचरण ठेवावे आणि सदा त्यांची सेवा करावी. म्हटले आहेच की, गुरूकडे शिक्षण घेणारे जे विप्र छान मन, वाणी, कर्म यांद्वारे गुरुविषयी आदर बाळगत नाहीत, ते कधीच गुरुचे कृपापात्र होत नाहीत. अशा अश्रद्ध शिष्यांची विद्या कधीच त्यांच्या कामाला येत नाही. ।।(निरूक्त २/४) ।।१।।

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