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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 735
    ऋषिः - वसिष्ठो मैत्रावरुणिः देवता - इन्द्रः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम -
    3

    नृ꣡भि꣢र्धौ꣣तः꣢ सु꣣तो꣢꣫ अश्नै꣣र꣢व्या꣣ वा꣢रैः꣣ प꣡रि꣢पूतः । अ꣢श्वो꣣ न꣢ नि꣣क्तो꣢ न꣣दी꣡षु꣢ ॥७३५॥

    स्वर सहित पद पाठ

    नृ꣡भिः꣢꣯ । धौ꣣तः꣢ । सु꣣तः꣢ । अ꣡श्नैः꣢꣯ । अ꣡व्याः꣢꣯ । वा꣡रैः꣢꣯ । प꣡रि꣢꣯पूतः । प꣡रि꣢꣯ । पू꣣तः । अ꣡श्वः꣢꣯ । न । नि꣣क्तः꣢ । न꣣दी꣡षु꣢ ॥७३५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    नृभिर्धौतः सुतो अश्नैरव्या वारैः परिपूतः । अश्वो न निक्तो नदीषु ॥७३५॥


    स्वर रहित पद पाठ

    नृभिः । धौतः । सुतः । अश्नैः । अव्याः । वारैः । परिपूतः । परि । पूतः । अश्वः । न । निक्तः । नदीषु ॥७३५॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 735
    (कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 8; मन्त्र » 2
    (राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 2; खण्ड » 2; सूक्त » 4; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    अगले मन्त्र में यह बताया गया है कि वह ब्रह्मविज्ञान-रस कैसा है।

    पदार्थ

    हे शिष्य ! मेरे द्वारा जो तुझे ब्रह्मज्ञान-रस दिया जा रहा है वह (नृभिः) उन्नायक श्रेष्ठ विचारों द्वारा (धौतः) धोया गया है, (अश्नैः) पाषाणों के समान कठोर व्रताचरणों द्वारा (सुतः) अभिषुत किया गया है, (अव्याः) रक्षा करनेवाली बुद्धि के (वारैः) दोषनिवारक तर्कों द्वारा (परिपूतः) पवित्र किया गया है और (नदीषु) नदियों में (निक्तः) नहलाकर साफ किये गये (अश्वः न) घोड़े के समान (नदीषु) वेदवाणी की धाराओं में (निक्तः) शुद्ध किया गया है ॥२॥ इस मन्त्र में श्लिष्टोपमालङ्कार है। यहाँ श्लेष से सोम ओषधि के पक्ष में भी अर्थ-योजना करनी चाहिए। इससे ‘ब्रह्मविज्ञान सोमरस के समान है’ यह उपमानोपमेयभाव द्योतित होगा ॥२॥

    भावार्थ

    जैसे ऋत्विज् लोग सोमलता को पवित्र जल से धोकर, सिल-बट्टों से कूटकर, रस निचोड़ कर, दशापवित्र नामक छन्नी से छानकर शुद्ध हुए सोमरस को अग्नि में होम करते हैं, वैसे ही गुरुजन ब्रह्मविद्यारूप लता को सद्विचारों से धोकर, कठोर व्रताचरणों से कूटकर, बुद्धि के तर्कों से छानकर, वेदवाणी की धाराओं में पवित्र करके शिष्य की आत्माग्नि में होम करते हैं ॥२॥

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    पदार्थ

    (नृभिः) मुमुक्षुजनों द्वारा “नरो ह वै देवविशः” [जै॰ १.८९] (सुतः) निष्पादित (धौतः) प्राप्त (अव्याः-अश्नैः-वारैः) योगभूमि—योगस्थली के “इयं पृथिवी वा-अविः” [श॰ ६.१.२.३३] दोषवारणसाधनों—अभ्यासों से (परिपूतः) सब ओर से परमात्मा रक्षित होता है (अश्वः-नदीभिः-निक्तः) जैसे खुली जलधाराओं से घोड़ा कान्त बनाया जाता है ऐसे।

    भावार्थ

    मुमुक्षुजन परमात्मा को अपने अन्दर श्रद्धा भरे योगभूमिस्थ अभ्यासों द्वारा निर्मल साक्षात् करते हैं जैसे जलधाराओं से घोड़े को स्नान करा निर्मल कान्तरूप में देखते हैं॥२॥

    विशेष

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    विषय

    आत्मिक उन्नति

    पदार्थ

    इस मन्त्र का देवता (‘इन्द्र') = आत्मा है । यह आत्मा (नृभिः) = अपने को आगे ले-चलने की भावना से ओत-प्रोत लोगों द्वारा [नृ-नये ] (धौत:) = शुद्ध किया जाता है। क्रियाशीलता ही आत्मिक शुद्धि का मुख्य साधन है।(‘योगिनः कर्म कुर्वन्ति सङ्गं त्यक्त्वात्मशुद्धये') = योगी लोग अनासक्तिपूर्वक कर्म करते ही रहते हैं, जिससे आत्मा शुद्ध बनी रहे ।

    = यह आत्मा (अश्नैः) = [अश्-व्याप्तौ] अपने को व्यापक बनानेवालों से सुत: - [ षु - प्रसव, ऐश्वर्य=Growth and prosperity] उन्नत व समृद्ध किया जाता है। जो जितना - जितना व्यापक होता जाता है, उतना ही उन्नत व समृद्ध होता जाता है। संकुचित मनोवृत्तिवाला होकर छोटा हो जाता है, व्यापकता विशाल – समृद्ध कर देती है। व्यापकता में ही विकास है, संकोच में ह्रास।

    'अवि' शब्द का अर्थ है ‘दयालु' [Kindly, favourably disposed] (वारै:) = पाप-1 -निवार (अव्याः) = दयालु व्यक्तियों से (परिपूत:) = यह आत्मा सब ओर से पवित्र किया जाता है। दया व अहिंसा की भावना आत्मा को सर्वथा पवित्र कर देती है । क्रूरता की भावना अपवित्रता की मूल है और दयालुता पवित्रता की ।

    यह क्रियाशील, व्यापक मनोवृत्तिवाला, दया-प्रवण व्यक्ति (न) = जैसे नदीषु - नदियों में नहलाने से (अश्वः) = घोड़ा (निक्तः) = शुद्ध हो जाता है, इसी प्रकार यह भी (नदीषु) = रभु के आनन्द-स्रोतों में शुद्ध हो जाता है। वे सहस्रधार प्रभु पवित्र हैं - यह भक्त भी उस प्रभु की स्रोत- धाराओं में स्नान कर पवित्र हो जाता है ।

    भावार्थ

    मैं सदा आगे बढ़ने के लिए क्रियाशील बनूँ । उदारमना व दयालु बनकर प्रभु के स्रोतों में स्नान करूँ ।

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    विषय

    "Missing"

    भावार्थ

    भा० = (२) ( नदीषु ) = नदियों में ( निक्त:) = स्नान कराये गये ( अश्वः न ) = अश्व के समान ( नृभिः ) = नेता लोगों द्वारा ( धौत:) = मलादि छुड़ाकर शुद्ध किया गया ( अश्नैः ) = सूक्ष्म तत्वों तक पहुंचने, एवं आत्मानन्द का भोग करने हारे विद्वानों द्वारा ( सुतः ) = उत्पन्न किया, सोमरस, आत्मज्ञान ( अव्या:) = चिति शक्ति या प्राण के ( वारैः ) = प्रकट करने हारे योगाङ्गरूप साधनों द्वारा ( परिपूतः ) = परिशोधित, ( नदीषु निक्त:) = प्रवाह के रूप में बहने वाली ज्ञानधाराओं में शुद्ध होता है ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः - काण्व: प्रियमेध:। देवता - इन्द्र:। स्वरः - षड्ज: ।

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ कीदृशः स ब्रह्मविज्ञानरस इत्याह।

    पदार्थः

    हे शिष्य ! मया तुभ्यं दीयमानः एष ब्रह्मविज्ञानरसः (नृभिः) उन्नायकैः सद्विचारैः (धौतः) प्रक्षालितः अस्ति, (अश्नैः) अश्मभिरिव कठोरैः व्रताचरणैः (सुतः) अभिषुतः अस्ति, (अव्याः) रक्षिकायाः बुद्धेः (वारैः) दोषनिवारयितृभिः तर्कैः (परिपूतः) पवित्रीकृतः अस्ति, किञ्च, (नदीषु) सरित्प्रवाहेषु (निक्तः) स्नानेन शोधितः (अश्वः न) तुरगः इव (नदीषु) वेदवाग्धारासु (निक्तः३) शोधितः विद्यते ॥२॥ अत्र श्लिष्टोपमालङ्कारः। किञ्च श्लेषेण सोमौषधिपक्षेऽप्यर्थो योजनीयः। तेन ब्रह्मविज्ञानं सोमरस इवेत्युपमानोपमेयभावो द्योत्यते ॥२॥

    भावार्थः

    यथा ऋत्विजः सोमलतां पवित्रेण जलेन प्रक्षाल्य पाषाणैः कुट्टयित्वा रसं निश्चोत्य दशापवित्रेण परिपूय शुद्धं सोमरसम् अग्नौ जुह्वति तथैव गुरवो ब्रह्मविद्यालतां सद्विचारैः प्रक्षाल्य, कठोरव्रताचरणैः संकुट्ट्य, बुद्धेस्तर्कैः परिपूय, वेदवाग्धारासु पवित्रीकृत्य शिष्यस्यात्माग्नौ जुह्वति ॥२॥

    टिप्पणीः

    २. ऋ० ८।२।२, ‘नृ॒भि॑र्धू॒तः’, ‘रव्यो॒वारैः॒’ इति पाठः। ३. निक्तः निर्णिक्तः शोधितः। यथा अप्सु स्नातो अश्वः अपगतमलः सन् दीप्तो भवति—इति सा०। निक्तः स्नातः—इति वि०।

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Spiritual knowledge, purified by learned persons, developed by penetrating intellectual scholars, cleansed through Yogic exercises of the breath, is like a courser bathed in streams.

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    Meaning

    Stirred by best of men, crushed and filtered by men of adamantine character, purified and guarded by best of the brave, it is sparkling like sun rays reflected on the river waters. (Rg. 8-2-2)

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : (नृभिः) મુમુક્ષુજનો દ્વારા (सुतः) નિષ્પાદિત (द्यौतः) પ્રાપ્ત (अव्याः अश्नैः वारैः) યોગભૂમિયોગસ્થલીના દોષ આવરણ સાધનો-અભ્યાસોથી (परिपूतः) સર્વ તરફથી પરમાત્મા રક્ષિત થાય છે. (अश्वः नदीभिः निक्तः) જેમ ખુલી જળધારાઓ દ્વારા ઘોડાને કાન્ત બનાવવામાં આવે છે તેમ. (૨)

     

    भावार्थ

    ભાવાર્થ : જેમ જળધારાઓમાં ઘોડાને નવડાવીને નિર્મળ કાન્તરૂપમાં જોવામાં આવે છે, તેમ મુમુક્ષુજનો પરમાત્માને પોતાની અંદર શ્રદ્ધાભરી યોગભૂમિ રૂપ અભ્યાસો દ્વારા નિર્મળ સાક્ષાત્ કરે છે. (૨)

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    जसे ऋत्विज लोक सोमलतेला पवित्र जलाने धुऊन पाटा वरवंट्यावर वाटून, रस गाळून, दशापवित्र नावाच्या चाळणीने चाळून शुद्ध झालेला सोमरस अग्नीत होम करतात... तसेच गुरुजन ब्रह्मविद्यारूपी लतेला सद्विचारांनी धुऊन, कठोर व्रताचरणांनी कुटून बुद्धीला तर्कांनी गाळून वेदवाणीच्या धारांमध्ये पवित्र करून, शिष्याच्या आत्माग्नीमध्ये होम करतात. ॥२॥

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    विषय

    पुढच्या मंत्रात ब्रह्मविज्ञान रस कसा आहे हे सांगितले आहे.

    शब्दार्थ

    हे शिष्या, मी तुला जो ब्रह्मज्ञानरूप रस देत आहे, तो (वृभि:) उन्नत करणाऱ्या श्रेष्ठ विचारांद्वारे (धौता) धुतला गेला आहे. पाषाणासारख्या कठोर व्रत आचरणाने (सुत:) पिळून काढलेला आहे. (अव्या:) रक्षण करणाऱ्या बुद्धीद्वारे (वारै: दोष निवारक तर्कांद्वारे (परिपूत:) पवित्र केला गेला आहे. (म्हणजे या ब्रह्मज्ञानाचे मी चिंतन मनन केले आहे. याच्या प्राप्तीसाठी कठोर व्रत केले आहे आणि बुद्धी व तर्काच्या आधारे निश्चित केले आहे. एवढे केल्यानंतर मी हे ब्रह्मज्ञान तुला देत आहे. आता हे ज्ञान केवढे पवित्र आहे? उपमा देताना सांगतात की (नरिषु) नदीच्या पाण्यात (निक्त:) धुतलेल्या (अश्वन) घोड्याच्या अंगाप्रमाणे हे ज्ञान आता शुद्ध झालेले आहे. ।।२।।

    भावार्थ

    ऋत्विज लोक ज्याप्रमाणे सोमलतेला पवित्र, स्वच्छ जलाने धुवून घेतात, त्या जलांना पाटा वरवंटा साधनांनी कुटून घेतात. नंतर पिळून त्याचा रस काढतात पुन्हा दशापवित्र नाम चाळणीने तो रस गाळून घेतात आणि मग अशा शुद्ध सोमरसाचे यज्ञ करतात. त्याप्रमाणे गुरूजन ब्रह्मविद्यारूप लतेला सद्विचारांने धुऊन, कठोर व्रत आचरणाने ज्ञान कुटून घेतात. त्यास बुद्धी तर्कांद्वारे गाळून घेतात आणि वेदवाणीच्या धारांनी त्या ज्ञानास पवित्र करून शिष्याच्या आत्मरूप अग्नीमध्ये आहुत करतात. अशाप्रकारे हा ब्रह्म ज्ञानरूप यज्ञ संपन्न होत असतो. ।।२।।

    विशेष

    या मंत्रात श्लिष्टोपमा अलंकार आहे. या मंत्रात या श्लेषाद्वारे दोन अर्थ निघत असल्यामुळे दुसरा सोम औषधीविषयक अर्थही केला पाहिजे. यामुळे ब्रह्मविज्ञान सोमरसाप्रमाणे आहे हा उपमानोपमेय भाव देखील प्रकट होईल. ।।२।।

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