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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 794
ऋषिः - मेधातिथिः काण्वः
देवता - मित्रावरुणौ
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
काण्ड नाम -
2
ऋ꣣ते꣢न꣣ या꣡वृ꣢ता꣣वृ꣡धा꣢वृ꣣त꣢स्य꣣ ज्यो꣡ति꣢ष꣣स्प꣡ती꣢ । ता꣢ मि꣣त्रा꣡वरु꣢꣯णा हुवे ॥७९४॥
स्वर सहित पद पाठऋते꣡न꣢ । यौ । ऋ꣣तावृ꣡धौ꣢ । ऋ꣣त । वृ꣡धौ꣢꣯ । ऋ꣣त꣡स्य꣢ । ज्यो꣡ति꣢꣯षः । पती꣢꣯इ꣡ति꣢ । ता । मि꣡त्रा꣢ । मि꣡ । त्रा꣢ । व꣡रु꣢꣯णा । हु꣣वे ॥७९४॥
स्वर रहित मन्त्र
ऋतेन यावृतावृधावृतस्य ज्योतिषस्पती । ता मित्रावरुणा हुवे ॥७९४॥
स्वर रहित पद पाठ
ऋतेन । यौ । ऋतावृधौ । ऋत । वृधौ । ऋतस्य । ज्योतिषः । पतीइति । ता । मित्रा । मि । त्रा । वरुणा । हुवे ॥७९४॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 794
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 2; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 7; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 3; खण्ड » 2; सूक्त » 2; मन्त्र » 2
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 2; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 7; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 3; खण्ड » 2; सूक्त » 2; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
विषय
अगले मन्त्र में पुनः वही विषय वर्णित है।
पदार्थ
प्रथम—प्राण-उदान के पक्ष में। (यौ) जो (ऋतेन) प्राण-क्रिया एवं उदान-क्रिया रूप सत्य व्यापार से (ऋतावृधौ) सत्यक्रियायुक्त मनोमय एवं विज्ञानमय कोशों को बढ़ानेवाले, (ऋतस्य) ऋतम्भरा प्रज्ञा, एवं (ज्योतिषः) ज्योतिष्मती वृत्ति के (पत्ती) रक्षक हैं, (ता) उन (मित्रावरुणा) प्राण-उदान को, मैं (हुवे) पुकारता हूँ, स्वस्थरूप से शरीर में प्रवृत्त करता हूँ ॥ द्वितीय—ब्रह्म-क्षत्र के पक्ष में। (यौ) जो (ऋतेन) सत्य ज्ञान और सत्य क्षात्र-बल से (ऋतावृधौ) सत्यमय राष्ट्र को बढ़ानेवाले और (ऋतस्य ज्योतिषः) सत्यरूप ज्योति के (पती) रक्षक हैं, (ता) उन (मित्रावरुणा) ब्राह्मण और क्षत्रियों को, मैं (हुवे) पुकारता हूँ ॥२॥
भावार्थ
जैसे प्राण और उदान से शरीर का स्वास्थ्य, वैसे ही ब्राह्मण और क्षत्रियों से राष्ट्र का स्वास्थ्य चिरस्थायी होता है ॥२॥
पदार्थ
(यौ) जो (मित्रावरुणौ) मित्र और वरुण परमात्मा (तौ) वे (ऋतेन) यथार्थ ज्ञान से वर्तमान हैं (ऋतावृधौ) यथार्थ ज्ञान के वर्धक हैं (ऋतस्य ज्योतिषः) यथार्थ ज्ञानज्योति के (पती) पालक हैं—पालन करने वाले हैं (ता) उन्हें (हुवे) मैं आमन्त्रित करता हूँ।
भावार्थ
संसार में कर्मकरणार्थ प्रेरक और मोक्ष कर्मफलभोगार्थ अङ्गीकारकर्ता परमात्मा यथार्थ ज्ञान से वर्तमान है, यथार्थ ज्ञान का वर्धक है। यथार्थ ज्ञान ज्योति के पालन कराने वाला है, उससे जीवन धारण करना चाहिये॥२॥
विशेष
<br>
विषय
रेतस्-यज्ञ-सत्य व ज्योति
पदार्थ
गत मन्त्र में यह स्पष्ट हो गया है कि प्राणापान ही सोम का पान करनेवाले हैं। (इन्द्र) = जीवात्मा का सोमपान भी इन प्राणापान के द्वारा ही होता है । एवं, (यौ मित्रावरुणा) = ये प्राण और अपान (ऋतेन) = रेतस् [नि० ३.४] के द्वारा, शक्तिशाली रक्षण के द्वारा (ऋतावृधौ) = हमारे जीवनों में यज्ञ [नि० ४.१९] की भावना को बढ़ानेवाले हैं, क्योंकि अशक्त पुरुष में उत्तम कर्मों की वृत्ति का विकास नहीं होता – सशक्त पुरुष ही यज्ञादि की वृत्तिवाला होता है। ये प्राणापान शक्ति की वृद्धि से हमारे जीवनों में यज्ञात्मक कर्मों की वृद्धि करते हैं और (ऋतस्य) = सत्य के [नि० ३.१०] तथा (ज्योतिषः) = विशोका ज्योतिष्मती प्रज्ञा के ये प्राणापान (पती) = रक्षक हैं । इन प्राणापानों की साधना से – १. शक्ति की रक्षा होती है, २. हमारे जीवन में यज्ञात्मक कर्मों की प्रवृत्ति होती है, ३. हमारा मन सत्यप्रवण होता है और ४. हमें वह ज्योति प्राप्त होती है, जो एकत्व का दर्शन कराती हुई हमें शोकमोहातीत बनाती है। एवं, अत्यन्त उपकारक ता मित्रावरुणा=उन प्राणापानों को हुवे-हम पुकारते हैं। प्राणापानों की साधना का महत्त्व सुव्यक्त है। प्राणापान ही से दोषों का नाश होता है ।
भावार्थ
प्राणापान की साधना से हम सशक्त, यज्ञिय मनोवृत्तिवाले, सत्यवादी व ज्योतिर्मय मस्तिष्कवाले बनें ।
संस्कृत (1)
विषयः
अथ पुनस्स एव विषयो वर्ण्यते।
पदार्थः
प्रथमः—प्राणोदानपक्षे। (यौ ऋतेन) प्राणनोदाननरूपेण सत्यव्यापारेण (ऋतावृधौ) ऋतयोः सत्यक्रियायुक्तयोः मनोमयविज्ञानमयकोशयोः वर्द्धकौ, (ऋतस्य) ऋतम्भरायाः प्रज्ञायाः (ज्योतिषः) ज्योतिष्मत्याः वृत्तेश्च (पती) रक्षकौ स्तः (ता) तौ (मित्रावरुणा) मित्रावरुणौ प्राणोदानौ, अहम् (हुवे) आह्वयामि, स्वस्थरूपेण शरीरे प्रवर्तयामि ॥ द्वितीयः—ब्रह्मक्षत्रपक्षे। (यौ ऋतेन) सत्येन ज्ञानेन सत्येन क्षात्रबलेन च (ऋतावृधौ) सत्यस्य राष्ट्रस्य वर्धकौ, (ऋतस्य ज्योतिषः) सत्यरूपस्य प्रकाशस्य (पती) रक्षकौ स्तः, (ता) तौ (मित्रावरुणा) मित्रावरुणौ ब्राह्मणक्षत्रियौ, अहम् (हुवे) आह्वयामि ॥२॥३
भावार्थः
यथा प्राणोदानाभ्यां देहस्य स्वास्थ्यं तथा ब्राह्मणक्षत्रियाभ्यां राष्ट्रस्य स्वास्थ्यं चिरस्थायि जायते ॥२॥
टिप्पणीः
२. ऋ० १।२३।५। ३. ऋग्भाष्ये दयानन्दर्षिर्मन्त्रमिमं सूर्यवायुपक्षे व्याचष्टे।
इंग्लिश (2)
Meaning
I long for Prana and Apana, which both, on the strength of Law, uphold our life, and are lords of the shining light of the soul.
Translator Comment
The verse is the same as 597.
Meaning
For our enlightenment and spiritual advancement, we invoke Mitra and Varuna, light of the sun and motive energy of the wind, both guardians of the light of truth and natural laws of Divinity, which, by that very light of truth, extend the operation of that law in the Lords creation upto the mind and soul of humanity. (Rg. 1-23-5)
गुजराती (1)
पदार्थ
પદાર્થ : (यौ) જેઓ (मित्रावरुणौ) મિત્ર અને વરુણ પરમાત્મા (तौ) તેઓ (ऋतेन) યથાર્થ જ્ઞાનથી વિદ્યમાન છે (ऋतावृधौ) યથાર્થ જ્ઞાનના વર્ધક છે. (ऋतस्य ज्योतिषः) યથાર્થ જ્ઞાન જ્યોતિના (पती) પાલક છે-પાલન કરનાર છે (ता) તેઓને (हुवे) હું આમંત્રિત કરું છું. (૨)
भावार्थ
ભાવાર્થ : સંસારમાં કર્મ કરવા માટે પ્રેરક અને મોક્ષ કર્મફળ ભોગ માટે અંગીકારકર્તા પરમાત્મા યથાર્થજ્ઞાનથી વિદ્યમાન છે, યથાર્થ જ્ઞાનના વર્ધક છે. યથાર્થ જ્ઞાન જ્યોતિનું પાલન કરનાર છે, તેના દ્વારા જીવન ધારણ કરવું જોઈએ. (૨)
मराठी (1)
भावार्थ
जसे प्राण व उदानमुळे शरीराचे स्वास्थ्य टिकते तसेच ब्राह्मण व क्षत्रियांद्वारे राष्ट्राचे स्वास्थ्य चिरस्थायी टिकते. ॥२॥
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