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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 832
    ऋषिः - जमदग्निर्भार्गवः देवता - पवमानः सोमः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम -
    2

    कृ꣣ण्व꣢न्तो꣣ व꣡रि꣢वो꣣ ग꣢वे꣣꣬ऽभ्य꣢꣯र्षन्ति सुष्टु꣣ति꣢म् । इ꣡डा꣢म꣣स्म꣡भ्य꣢ꣳ सं꣣य꣡त꣢म् ॥८३२॥

    स्वर सहित पद पाठ

    कृ꣣ण्व꣡न्तः꣢ । व꣡रि꣢꣯वः । ग꣡वे꣢꣯ । अ꣡भि꣢ । अ꣣र्षन्ति । सुष्टुति꣢म् । सु꣣ । स्तुति꣢म् । इ꣡डा꣢꣯म् । अ꣣स्म꣡भ्य꣢म् । सं꣣य꣡त꣢म् । स꣣म् । य꣡त꣢꣯म् ॥८३२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    कृण्वन्तो वरिवो गवेऽभ्यर्षन्ति सुष्टुतिम् । इडामस्मभ्यꣳ संयतम् ॥८३२॥


    स्वर रहित पद पाठ

    कृण्वन्तः । वरिवः । गवे । अभि । अर्षन्ति । सुष्टुतिम् । सु । स्तुतिम् । इडाम् । अस्मभ्यम् । संयतम् । सम् । यतम् ॥८३२॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 832
    (कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 2; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 1; मन्त्र » 3
    (राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 4; खण्ड » 1; सूक्त » 1; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    विषय

    आगे फिर उसी विषय का वर्णन है।

    पदार्थ

    ये सोम अर्थात् तेजस्वी उपासक लोग (गवे)अपने जीवात्मा और इन्द्रियसमूह के लिए (वरिवः) ऐश्वर्य को और (अस्मभ्यम्) हम सखाओं के लिए (संयतम्) संयमयुक्त (इडाम्) भद्र वाणी को (कृण्वन्तः) प्रयुक्त करते हुए (सुष्टुतिम्) उत्तम प्रशस्ति को (अभ्यर्षन्ति) प्राप्त करते हैं ॥३॥

    भावार्थ

    उपासक के आत्मा, मन, बुद्धि, वाणी, प्राण, इन्द्रिय आदि सब दिव्य ऐश्वर्य से युक्त हो जाते हैं और वह अन्यों के प्रति मधुर तथा भद्र वाणी का ही प्रयोग करता हुआ सुप्रशस्ति प्राप्त करता है ॥३॥

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    पदार्थ

    (गवे वरिवः सुष्टिुतिम्) वाणी के लिए बोलने का अवकाश “अन्तरिक्षं वै वरिवः” [श॰ ८.५.२.५] तथा उत्तम स्तुति करने का गुण एवं (अस्मभ्यम्) मह्यम्—“अस्मदो द्वयोश्च” [अष्टा॰ १.२.५९] मेरे—मुझ उपासक आत्मा के लिए (इडां संयतम्) श्रद्धा को “श्रद्धा-इडा” [श॰ ११.२.७.२०] ‘सम्पूर्वकयमधातोः क्विपि रूपम्’ और संयतम्—संयमशक्ति को (कृण्वन्तः) सम्पादन करता हुआ शान्तस्वरूप परमात्मा ‘बहुवचनमादरार्थम्’ (अभ्यर्षन्ति) प्राप्त होता है।

    भावार्थ

    शान्तस्वरूप परमात्मा अपने उपासक आत्मा में अपने प्रति श्रद्धा और संयमशक्ति तथा उसकी वाणी में भाषणावकाश और अपनी स्तुतिप्रवृत्ति का सम्पादन करता हुआ प्राप्त होता है॥३॥

    विशेष

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    विषय

    वरणीय-धन

    पदार्थ

    १. सुरक्षित हुए-हुए सोम गवे=  इन्द्रियों के लिए (वरिवः) = वरणीय धन को (कृण्वन्तः) = करनेवाले हैं। सोम की रक्षा से प्रत्येक इन्द्रिय अपनी सम्पत्ति को प्राप्त करके अपने-अपने कार्य को पटुता से करनेवाली होती है । २. ये सोम (सुष्टुतिम्) = उत्तम स्तुति को (अभ्यर्षन्ति) = प्राप्त कराते हैं [अन्तर्भावितण्यर्थोऽत्र धातुः] मनुष्य की प्रवृत्ति सोम-रक्षा से प्रभु-प्रवण हो जाती है ३. (इडाम्) = ये सोम हमें वेदवाणी को प्राप्त कराते हैं [इडा-वाणी] तथा ये सोम (अस्मभ्यम्) = हमारे लिए (संयतम्) = संयम की भावना देते हैं ।

    भावार्थ

    सोमरक्षा से १. इन्द्रियाँ सशक्त बनती हैं, २. मन प्रभु प्रवण होता है, ३. मस्तिष्क वेदवाणियों के प्रकाश से परिपूर्ण होता है और जीवन संयमी बनता है ।

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ पुनरपि तमेव विषयमाह।

    पदार्थः

    एते सोमासः तेजस्विनः उपासकाः (गवे) स्वकीयाय जीवात्मने इन्द्रियगणाय च (वरिवः) ऐश्वर्यम् [वरिवः इति धननाम। निघं० २।१०।] किञ्च (अस्मभ्यम्) सखिभ्यो नः (संयतम्) संयमयुक्तां। [संपूर्वात् यम उपरमे धातोः क्विपि स्त्रियां द्वितीयैकवचने रूपम्।] (इडाम्) भद्रां वाचम् [इडा इति वाङ्नाम निघं० १।११।] (कृण्वन्तः) कुर्वन्तः, प्रयुञ्जानाः (सुष्टुतिम्) सुप्रशस्तिम् (अभ्यर्षन्ति) प्राप्नुवन्ति ॥३॥

    भावार्थः

    उपासकस्यात्ममनोबुद्धिवाक्प्राणेन्द्रियादीनि सर्वाण्यपि दिव्यैश्वर्यमयानि जायन्ते, स चान्यान् प्रति मधुरां भद्रामेव वाचं प्रयुञ्जानः सुप्रशस्तिं लभते ॥३॥

    टिप्पणीः

    १. ऋ० ९।६२।३।

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    The learned, singing the noble praise of the Omniscient God, pour on us wealth, strengthening food, and nice relative position.

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    Meaning

    Creating, collecting and preserving noble wealth and strength and sustenance for us and for our lands and cows and the honour and culture of our tradition, they go on winning appreciation and admiration. (Rg. 9-62-3)

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : (गवे वरिवः सुष्टुतिम्) વાણીને માટે બોલવાનો અવકાશ તથા ઉત્તમ સ્તુતિ કરવાનો ગુણ અને (अस्मभ्यम्) મારા ઉપાસકના આત્માને માટે (इडां संयतम्) શ્રદ્ધાને તથા સંયમ શક્તિને (कृण्वन्तः) સંપાદન કરતાં શાન્ત સ્વરૂપ પરમાત્મા (अभ्यर्षन्ति) પ્રાપ્ત થાય છે. (૩)

     

    भावार्थ

    ભાવાર્થ : શાન્તસ્વરૂપ પરમાત્મા પોતાના ઉપાસક આત્મામાં પોતાના પ્રત્યે શ્રદ્ધા અને સંયમશક્તિ તથા તેની વાણીમાં ભાષણાવકાશ અને પોતાની સ્તુતિ પ્રવૃત્તિનું સંપાદન કરતાં પ્રાપ્ત થાય છે. (૩)

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    उपासकाचा आत्मा मन, बुद्धी, वाणी, प्राण, इंद्रिय इत्यादी सर्व दिव्य ऐश्वर्याने युक्त होतात व तो इतरांबरोबर मधुर व भद्र वाणीचा प्रयोग करतो, त्याला उत्तम प्रशंसा प्राप्त होते. ॥३॥

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