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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 836
    ऋषिः - कविर्भार्गवः देवता - पवमानः सोमः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम -
    1

    तं꣡ त्वा꣢ नृ꣣म्णा꣢नि꣣ बि꣡भ्र꣢तꣳ स꣣ध꣡स्थे꣢षु म꣣हो꣢ दि꣣वः꣢ । चा꣡रु꣢ꣳ सुकृ꣣त्य꣡ये꣢महे ॥८३६॥

    स्वर सहित पद पाठ

    त꣢म् । त्वा꣣ । नृम्णा꣡नि꣢ । बि꣡भ्र꣢꣯तम् । स꣣ध꣡स्थे꣢षु । स꣣ध꣡ । स्थे꣣षु । महः꣢ । दि꣣वः꣢ । चा꣡रु꣢꣯म् । सु꣣कृत्य꣡या꣢ । सु꣣ । कृत्य꣡या꣢ । ई꣣महे ॥८३६॥


    स्वर रहित मन्त्र

    तं त्वा नृम्णानि बिभ्रतꣳ सधस्थेषु महो दिवः । चारुꣳ सुकृत्ययेमहे ॥८३६॥


    स्वर रहित पद पाठ

    तम् । त्वा । नृम्णानि । बिभ्रतम् । सधस्थेषु । सध । स्थेषु । महः । दिवः । चारुम् । सुकृत्यया । सु । कृत्यया । ईमहे ॥८३६॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 836
    (कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 2; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 3; मन्त्र » 1
    (राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 4; खण्ड » 1; सूक्त » 3; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    प्रथम मन्त्र में परमात्मा की कामना की गयी है।

    पदार्थ

    हे सोम अर्थात् जगत्स्रष्टा परमात्मन् ! (महः दिवः) महान् आकाश के (सधस्थेषु) सूर्य, ग्रह, नक्षत्र, चन्द्र आदि लोकों में, अथवा (महः दिवः) महान् प्रकाशमय जीवात्मा के (लोकेषु) मन, बुद्धि, प्राण, इन्द्रिय आदि लोकों में (नृम्णानि) धन और बल (बिभ्रतम्) स्थापित करनेवाले, (चारुम्) रमणीय (तं त्वा) उस सुप्रसिद्ध तुझको हम (सुकृत्यया) पुण्य कर्म से (ईमहे) प्राप्त करते हैं ॥१॥

    भावार्थ

    भूगोल, खगोल, और शरीर में सर्वत्र धन और बल को उत्पन्न करनेवाला परमेश्वर शुभ कर्मों से ही पाया जा सकता है, अशुभों से नहीं ॥१॥

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    पदार्थ

    (तं त्वा) हे सोम—शान्तस्वरूप परमात्मन्! उस तुझे (नृम्णानि बिभ्रतम्) उपासकनरों के नमाने वाले सुखसाधनों के धारण करते हुए को (महः-दिवः) महान् मोक्षधाम के समानस्थानों—सुखस्थानों में (चारुं सुकृत्यया-ईमहे) चरणशील व्यापने वाले सुन्दर को हम उपासना से चाहते हैं सङ्गति में चाहते हैं।

    भावार्थ

    महान् मोक्षधाम के समानस्थानों में उपासकजनों को झुकाने वाले धनों के धारण करने वाले उस तुझ व्यापनशील सुन्दर परमात्मा को उपासना से प्राप्त करना चाहते हैं॥१॥

    विशेष

    ऋषिः—कविः (क्रान्तदर्शी उपासक)॥ देवता—पवमानः सोमः (आनन्दधारा में प्राप्त होने वाला शान्तस्वरूप परमात्मा)॥ छन्दः—गायत्री॥<br>

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    विषय

    नृम्ण-महस्-दिव् व चारु

    पदार्थ

    ‘कवि भार्गव’=ज्ञानी, परिपक्व बुद्धिवाला व्यक्ति प्रार्थना करता है कि– हे प्रभो ! (तं त्वा) = उस आपको (सधस्थेषु) = सह स्थानों में – मिलकर बैठने के स्थानों में अथवा हृदयों में [हृदय जीव और प्रभु का सहस्थान है] (सुकृत्यया) - उत्तम पुरुषार्थ के साथ, अर्थात् स्वयं पुरुषार्थ करते हुए (ईमहे) = याचना करते हैं।‘प्रार्थना पुरुषार्थ के उपरान्त ही करनी चाहिए' इस आचार्य-वचन का मूल यह 'सुकृत्यया' शब्द ही है। बिना कर्म व पुरुषार्थ के आलसी बनकर बैठे हुओं की प्रार्थना नहीं सुनी जाती ।

    मैं उन आपकी प्रार्थना करता हूँ जो आप १. (नृम्णानि) - बलों को [नि० २.९.९] (महः) = तेज को (दिव:) = ज्ञान के प्रकाशों को तथा (चारुम्) = सब शुभों को (बिभ्रतम्) = धारण कर रहे हैं। मेरे पुरुषार्थ के अनुसार 'बल-तेज-प्रकाश व शुभ' को आप मुझे प्राप्त कराते हैं ।

    भावार्थ

    हमें पूर्ण पुरुषार्थ करके 'नृम्ण, बल, तेज, प्रकाश व शुभ' को प्राप्त करनेवाला बनना है ।

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    पदार्थ

     शब्दार्थ = हे परमात्मन्! ( महोदिवः ) = अनन्त आकाश के  ( सधस्थेषु ) = साथवाले सब लोकों में और उनसे भी बाहिर व्यापक  ( नृम्णानि ) = धनों व बलों को  ( बिभ्रतम् ) = धारते हुए  ( चारुम् ) = आनन्द स्वरूप  ( तम् त्वा ) = उस अनेक वैदिक सूक्तों से स्तुति किये हुए आपको  ( सुकृत्यया ) = सुकर्म से  ( ईमहे ) = हम पाते हैं। 

    भावार्थ

    भावार्थ = हे सर्वव्यापक परमात्मन्! इस बड़े आकाश में और इससे बाहिर भी आप व्यापक होकर, सब धन और बल को धारण करनेवाले आनन्द स्वरूप हो। ऐसे आपको उत्तम वैदिक कर्म करते हुए और वैदिक स्तोत्रों से ही आपकी  स्तुति करते हुए हम प्राप्त होते हैं ।

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ परमात्मानं कामयते।

    पदार्थः

    हे सोम जगत्स्रष्टः परमात्मन् ! (महः दिवः) महतः आकाशस्य (सधस्थेषु) लोकेषु सूर्यग्रहनक्षत्रचन्द्रादिषु, यद्वा (महः दिवः) महतः प्रकाशमयस्य जीवात्मनः (लोकेषु) मनोबुद्धिप्राणेन्द्रियादिषु (नृम्णानि) धनानि बलानि च। [नृम्णमिति धननाम बलनाम च। निघं० २।६, २।१०। नृम्णं च बलं नॄन् नतम्। निरु० ११।७।५] (बिभ्रतम्) धारयन्तम् (चारुम्) रमणीयं (तं त्वा) तं सुप्रसिद्धं त्वां, वयम् (सुकृत्यया) पुण्यकर्मणा (ईमहे) प्राप्नुमः ॥१॥

    भावार्थः

    भूगोले खगोले देहे च सर्वत्र धनबलयोरुत्पादकः परमेश्वरः शुभैरेव कर्मभिः प्राप्तुं शक्यते, नाशुभैः ॥१॥

    टिप्पणीः

    १. ऋ० ९।४८।१।

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    O God, the Lord of riches, through noble deeds, do we attain unto Thee, Who is Almighty, and pervades the various globes in the universe !

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    Meaning

    O Soma, Spirit of peace, purity and power, with holy acts of homage in the halls of yajna, we invoke, adore and worship you, lord of beauty and bliss, and exalt you in action, harbinger of the jewels of wealth, honour and excellence from the lofty regions of the light of heaven. (Rg. 9-48-1)

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : (तं त्वा) હે સોમ-શાન્ત સ્વરૂપ પરમાત્મન્ ! તે તને (नृम्णानि बिभ्रतम्) ઉપાસક નરોને નમાવનાર સુખ સાધનોને ધારણ કરનારને (महः दिवः) મહાન મોક્ષધામનાં સમાન સ્થાનો-સુખ સ્થાનોમાં (चारुं सुकृत्यया ईमहे) ચરણશીલ વ્યાપનાર સુંદરને અમે ઉપાસનાથી ચાહીએ છીએ. સંગતિમાં ચાહીએ છીએ. (૧)


     

    भावार्थ

    ભાવાર્થ : મહાન મોક્ષધામમાં સમાન સ્થાનોમાં ઉપાસકજનોને ઝુકાવનાર, ધનોને ધારણ કરનાર તે તું વ્યાપનશીલ સુંદર પરમાત્માને ઉપાસનાથી પ્રાપ્ત કરવા ઇચ્છે છે. (૧)

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    बंगाली (1)

    পদার্থ

    তং ত্বা নৃম্ণানি বিভ্রতং সধস্থেষু মহো দিবঃ।

    চারুং সুকৃত্যয়েমহে।।৯৫।।

    (সাম ৮৩৬)

    পদার্থঃ হে পরমাত্মা! (মহঃ দিবঃ) অনন্ত আকাশের (সধস্থেষু) সাথে অন্যান্য লোকে এবং সেগুলোর বাইরেও ব্যাপক, (নৃম্ণানি) ধন ও বল (বিভ্রতম্) ধারণকারী, (চারুম্) আনন্দ স্বরূপ, (তম্ ত্বা) সেই অনেক বৈদিক সূক্ত দ্বারা স্তুতিকৃত তোমাকে (সুকৃত্যয়া) সুকর্ম দ্বারা (ঈমহে) আমরা পেয়ে থাকি।

     

    ভাবার্থ

    ভাবার্থঃ হে সর্বব্যাপক পরমাত্মা! এই বিশাল আকাশে ও এর বাইরেও ব্যাপ্ত হয়ে সমস্ত ধন এবং বল ধারণকারী তুমিই আনন্দস্বরূপ। এভাবেই উত্তম বৈদিক কর্ম করে এবং বৈদিক স্তোত্র দ্বারা স্তুতি করে আমরা তোমাকে প্রাপ্ত হই।।৯৫।।

     

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    भूगोल, खगोल व सर्वत्र धन व शरीरात बल उत्पन्न करणारा परमेश्वर शुभ कर्मांनी प्राप्त केला जाऊ शकतो, अशुभाने नाही. ॥१॥

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