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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 843
    ऋषिः - कश्यपो मारीचः देवता - पवमानः सोमः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम -
    3

    पु꣣नानो꣢ दे꣣व꣡वी꣢तय꣣ इ꣡न्द्र꣢स्य याहि निष्कृ꣣त꣢म् । द्यु꣣तानो꣢ वा꣣जि꣡भि꣢र्हि꣣तः꣢ ॥८४३॥

    स्वर सहित पद पाठ

    पु꣣ना꣢नः । दे꣣व꣢वी꣢तये । दे꣣व꣢ । वी꣣तये । इ꣡न्द्र꣢꣯स्य । या꣣हि । निष्कृत꣢म् । निः꣣ । कृत꣢म् । द्यु꣣ता꣢नः । वा꣣जि꣡भिः꣢ । हि꣣तः꣢ ॥८४३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    पुनानो देववीतय इन्द्रस्य याहि निष्कृतम् । द्युतानो वाजिभिर्हितः ॥८४३॥


    स्वर रहित पद पाठ

    पुनानः । देववीतये । देव । वीतये । इन्द्रस्य । याहि । निष्कृतम् । निः । कृतम् । द्युतानः । वाजिभिः । हितः ॥८४३॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 843
    (कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 2; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 4; मन्त्र » 3
    (राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 4; खण्ड » 1; सूक्त » 4; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    हिन्दी (5)

    विषय

    अगले मन्त्र में विद्यार्थी को सम्बोधन किया गया है।

    पदार्थ

    हे विद्यार्थी ! तू (देववीतये) अहिंसा, सत्य, अस्तेय, न्याय, दया, उदारता आदि दिव्य गुणों की प्राप्ति के लिए (पुनानः) स्वयं को पवित्र करता हुआ (इन्द्रस्य) कुलपति आचार्य के (निष्कृतम्) घर अर्थात् गुरुकुल को (याहि) जा और वहाँ (हितः) प्रविष्ट किया गया तू (वाजिभिः) विज्ञानी गुरुओं के द्वारा (द्युतानः) विद्या के तेज से और सच्चरित्रता के तेज से चमकनेवाला बन ॥३॥

    भावार्थ

    विद्यार्थी गुरुकुल में ब्रह्मचर्यपूर्वक विधि के अनुसार वेदादि शास्त्रों को पढ़कर, सदाचार की शिक्षा लेकर, योगाभ्यास से आध्यात्मिक उन्नति करके, विद्वान् होकर, समावर्तन के बाद बाहर जाकर पढ़ी हुई विद्या का सब जगह प्रचार करें ॥३॥ इस खण्ड में उपासक, योगी, परमात्मा, गुरु-शिष्य और प्रसङ्गतः राजा, चन्द्रमा आदि के विषय का प्रतिपादन होने से इस खण्ड की पूर्वखण्ड के साथ सङ्गति है ॥ चतुर्थ अध्याय में प्रथम खण्ड समाप्त ॥

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    पदार्थ

    (वाजिभिः-हितः) हे शान्तस्वरूप परमात्मन्! तू वाजी—छन्दी—छन्द—अर्जन स्तुति करने वाले उपासकों द्वारा “छन्दांसि वै वाजिः” [मै॰ १.१०] “छन्दति अर्चतिकर्मा” [निघं॰ ३.१४] हित—ध्याया हुआ (द्युतानः पुनानः) उपासकों को प्रकाशमान और पवित्र करता हुआ (देववीतये) देवों—जीवन्मुक्तों की गति—गमनस्थली—मुक्ति है उसके लिए (इन्द्रस्य निष्कृतं याहि) अध्यात्मयज्ञ के यजमान आत्मा के संस्कृत—सुपात्र हृदय को प्राप्त हो “यद् वै निष्कृतं तत् संस्कृतम्” [ऐ॰ आ॰ १.१.४]।

    भावार्थ

    हे शान्तस्वरूप परमात्मन्! तू अर्चना करने वाले उपासना करनेवाले उपासकों के द्वारा ध्याया हुआ, उपासकों के अन्दर प्रकाशित हुआ, उन्हें पवित्र करता हुआ, मुक्ति प्राप्ति के लिए आत्मा के सुसज्जित अन्तःपात्र को प्राप्त होता है॥३॥

    विशेष

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    विषय

    साधनत्रयी व साध्यत्रयी

    पदार्थ

    हे प्रभो! आप (पुनान:) = हमारे जीवन को पवित्र करते हुए, २. (देव-वीतये) = हमें दिव्य गुण प्राप्त कराने के लिए, ३. (इन्द्रस्य) = मुझ जितेन्द्रिय के (निष्कृतम्) = परिष्कृत हृदय में (याहि) = प्रप्त होओ । आप आते हैं और हमारा जीवन पवित्र हो जाता है- हम दिव्य गुणों को प्राप्त करनेवाले होते हैं। आपकी प्राप्ति होती उसी को है जो जितेन्द्रिय बनता है और अपने हृदय को शुद्ध बनाता है। ४. (द्युतानः) = ज्योति का विस्तार करते हुए आप ५. (वाजिभिः) = शक्तिशालियों द्वारा ही (हितः) = अपने भीतर स्थापित किये जाते हैं । प्रभु हमारे हृदयों में आते हैं तो चारों ओर ज्योति-ही-ज्योति फैल जाती है। हमारे हृदयों में अन्धकार नहीं रहता, परन्तु आप प्रकाशित उन्हीं के हृदयों में होते हैं, जो संयम के द्वारा अपने जीवन में शक्ति का पूरण करते हैं ।

    भावार्थ – हम अपने हृदय को पवित्र बनाएँ, जितेन्द्रिय बनें, शक्तिशाली बनें, जिससे हमारे हृदय में प्रभु का वास हो और हम पवित्र हो जाएँ, हम दिव्य गुणों को प्राप्त करें और हमारे जीवनों में ज्योति का विस्तार हो ।

    भावार्थ

    इस मन्त्र में तीन साधन कहे गये हैं – जितेन्द्रियता, शुद्धता, शक्ति तथा तीन ही साध्य हैं – पवित्रता, दिव्य गुणों का लाभ, ज्योति का विस्तार |

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    पदार्थ

    शब्दार्थ = हे शान्तिदायक प्रभो!  ( पुनानः ) = अपवित्रों को पवित्र करनेवाले  ( द्युतान: ) = प्रकाश करनेवाले  ( वाजिभिः ) = प्राणायामों के साथ  ( हित:) = ध्यान किये हुए आप  ( देववीतये ) = विद्वान् भक्तों को प्राप्त होने के लिए  ( इन्द्रस्य ) = इन्द्रियों में अधिष्ठाता जीव के  ( निष्कृतम् ) = शुद्ध किये हुए अन्तःकरण स्थान में  ( याहि ) = साक्षात् रूप से प्राप्त हूजिये ।

    भावार्थ

    भावार्थ = हे शुद्ध स्वरूप परमात्मन् ! आप शरणागत अपवित्रों को भी पवित्र करने और अज्ञानियों को भी ज्ञान का प्रकाश देनेवाले हो, प्राणायाम, धारणा, ध्यानादि साधनों से जो आपके विद्वान् भक्त आपके साक्षात् करने के लिए प्रयत्न करते हैं, उनके शुद्ध अन्तःकरण में प्रत्यक्ष होते हो ।

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    विषय

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    भावार्थ

    हे परमात्मन् ! (वाजिभिः) विद्वानों द्वारा (हितः) समाधि में साक्षात् किया हुआ और धारण किया गया (द्युतानः) प्रकाशस्वरूप (पुनानः) सब मलों को शोधता हुआ (देववीतये) दिव्यगुणों के प्राप्त कराने के लिये (इन्द्रस्य) आत्मा के (निष्कृतम्) आवासस्थान हृदय देश में (याहि) आ, विराजमान हो।

    टिप्पणी

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    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः—१ जमदग्निः। २ भृगुर्वाणिर्जमदग्निर्वा। ३ कविर्भार्गवः। ४ कश्यपः। ५ मेधातिथिः काण्वः। ६, ७ मधुच्छन्दा वैश्वामित्रः। ८ भरद्वाजो बार्हस्पत्यः। ९ सप्तर्षयः। १० पराशरः। ११ पुरुहन्मा। १२ मेध्यातिथिः काण्वः। १३ वसिष्ठः। १४ त्रितः। १५ ययातिर्नाहुषः। १६ पवित्रः। १७ सौभरिः काण्वः। १८ गोषूत्यश्वसूक्तिनौ काण्वायनौ। १९ तिरश्चीः॥ देवता—३,४, ९, १०, १४—१६ पवमानः सोमः। ५, १७ अग्निः। ६ मित्रावरुणौ। ७ मरुत इन्द्रश्च। ८ इन्द्राग्नी। ११–१३, १८, १९ इन्द्रः॥ छन्दः—१–८, १४ गायत्री। ९ बृहती सतोबृहती द्विपदा क्रमेण। १० त्रिष्टुप्। ११, १३ प्रगाथंः। १२ बृहती। १५, १९ अनुष्टुप। १६ जगती। १७ ककुप् सतोबृहती च क्रमेण। १८ उष्णिक् ॥ स्वरः—१—८, १४ षड्जः। ९, ११–१३ मध्यमः। १० धैवतः। १५, १९ गान्धारः। १६ निषादः। १७, १८ ऋषभः॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ विद्यार्थिनं सम्बोधयति।

    पदार्थः

    हे विद्यार्थिन् ! त्वम् (देववीतये) अहिंसासत्यास्तेयन्यायदया- दाक्षिण्यादीनां दिव्यगुणानां प्राप्तये (पुनानः) स्वात्मानं पवित्रयन् (इन्द्रस्य) कुलपतेराचार्यस्य (निष्कृतम्) गृहम्, गुरुकुलमित्यर्थः (याहि) गच्छ। तत्र च (हितः) स्थापितः प्रवेशितः त्वम् (वाजिभिः) विज्ञानवद्भिः गुरुभिः (द्युतानः) विद्यातेजसा सच्चारित्र्यतेजसा च द्योतमानो भवेति शेषः ॥३॥

    भावार्थः

    विद्यार्थिनो गुरुकुले ब्रह्मचर्यपूर्वकं यथाविधि वेदादिशास्त्राण्यधीत्य सदाचारशिक्षां गृहीत्वा योगाभ्यासेनाध्यात्मिकीमुन्नतिं विधाय विद्वांसो भूत्वा समावर्तनानन्तरं बहिर्गत्वाऽधीतां विद्यां सर्वत्र प्रचारयेयुः ॥३॥ अस्मिन् खण्डे उपासकयोगिपरमात्मगुरुशिष्यविषयाणां प्रसङ्गतश्च नृपतिचन्द्रादिविषयाणां प्रतिपादनादेतत्खण्डस्य पूर्वखण्डेन सह संगतिरस्ति ॥

    टिप्पणीः

    १. ऋ० ९।६४।१५।

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    O God, realised by the learned through deep concentration, granting light to the blind, purifying the impure, come to the resting place of the soul, to be acquired by the learned devotees !

    Translator Comment

    Resting place of the soul means the heart.

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    Meaning

    Purified, bright and clear Soma, songs of adoration for service of divinity, go upto the presence of Indra, lord omnipotent. Shining powerful, sent up, inspired by enthusiastic celebrants, rise up to divinity. (Rg. 9-64-15)

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : (वाजिभिः हितः) હે શાન્ત સ્વરૂપ પરમાત્મન્ ! તું વાજી =છંદી =છંદ-અર્જન સ્તુતિ કરનારા ઉપાસકો દ્વારા હિત-ધ્યાન કરેલ (द्युतानः पुनानः) ઉપાસકને પ્રકાશમાન અને પવિત્ર કરતાં (देववीतये) દેવો-જીવન્મુક્તોની ગતિ-ગમનસ્થાન-મુક્તિ છે તેને માટે (इन्द्रस्य निष्कृतं याहि) અધ્યાત્મયજ્ઞના યજમાન આત્માનાં સુસંસ્કૃત-સુપાત્ર હૃદયને પ્રાપ્ત થા. (૩)

     

    भावार्थ

    ભાવાર્થ : હે શાન્ત સ્વરૂપ પરમાત્મન્ ! તું અર્ચના કરનારા, ઉપાસના કરનારા ઉપાસકોના દ્વારા ધ્યાન પામેલ, ઉપાસકોની અંદર પ્રકાશિત થઈને, તેને પવિત્ર કરીને, મુક્તિ પ્રાપ્તિને માટે આત્માને સુસજ્જિત અન્તઃપાત્રને પ્રાપ્ત થાય છે. (૩)
     

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    बंगाली (1)

    পদার্থ

     

    পুনানো দেববীতয় ইন্দ্রস্য যাহি নিষ্কৃতম্।

    দ্যুতানো বাজিভির্হিতঃ।।৪৩।।

    (সাম ৮৪৩)

    পদার্থঃ হে শান্তিপ্রদাতা পরমেশ্বর! (পুনানঃ) অপবিত্রকে পবিত্রকারী, (দ্যুতানঃ) প্রকাশক, (বাজিভিঃ) প্রাণায়ামের সহিত (হিতঃ) ধ্যানকৃত, তুমি (দেববীতয়ে) বিদ্বান ভক্তদের প্রাপ্ত হওয়ার জন্য (ইন্দ্রস্য) ইন্দ্রিয়াদির অধিষ্ঠাতা জীবকে (নিষ্কৃতম্) শুদ্ধকৃত অন্তঃকরণে (য়াহি) সাক্ষাৎরূপে প্রাপ্ত হও। 

     

    ভাবার্থ

    ভাবার্থঃ হে শুদ্ধস্বরূপ পরমাত্মা! তুমি শরণাগত অপবিত্রদের পবিত্রতা দানকারী এবং অজ্ঞানীদেরও জ্ঞানপ্রদাতা। প্রাণায়াম, ধারণা, ধ্যান সাধনাদির দ্বারা যে বিদ্বান উপাসক তোমাকে সম্যকভাবে জানার জন্য চেষ্টা করেন, তাঁর শুদ্ধ অন্তঃকরণে তোমার প্রত্যক্ষ উপলব্ধি হয়ে থাকে।।৪৩।।

     

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    विद्यार्थ्यानी गुरुकुलमध्ये ब्रह्मचर्यपूर्वक विधीनुसार वेद इत्यादी शास्त्रे शिकावीत. सदाचाराचे शिक्षण घ्यावे व योगाभ्यासाने आध्यात्मिक उन्नती करावी. समावर्तनानंतर बाहेर पडल्यावर अध्ययन केलेल्या विद्येचा सर्व ठिकाणी प्रचार करावा. ॥३॥

    टिप्पणी

    या खंडात उपासक, योगी, परमात्मा, गुरू-शिष्य व प्रसंगत: राजा, चंद्र इत्यादी विष्याचे प्रतिपादन असल्यामुळे या खंडाची पूर्व खंडाबरोबर संगती आहे

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