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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 848
ऋषिः - मधुच्छन्दा वैश्वामित्रः
देवता - मित्रावरुणौ
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
काण्ड नाम -
3
ऋ꣣ते꣡न꣢ मित्रावरुणावृतावृधावृतस्पृशा । क्र꣡तुं꣢ बृ꣣ह꣡न्त꣢माशाथे ॥८४८॥
स्वर सहित पद पाठऋ꣣ते꣡न꣢ । मि꣣त्रा । मि । त्रा । वरुणौ । ऋतावृधौ । ऋत । वृधौ । ऋतस्पृशा । ऋत । स्पृशा । क्र꣡तु꣢꣯म् । बृ꣣ह꣡न्त꣢म् । आ꣣शाथेइ꣡ति꣢ ॥८४८॥
स्वर रहित मन्त्र
ऋतेन मित्रावरुणावृतावृधावृतस्पृशा । क्रतुं बृहन्तमाशाथे ॥८४८॥
स्वर रहित पद पाठ
ऋतेन । मित्रा । मि । त्रा । वरुणौ । ऋतावृधौ । ऋत । वृधौ । ऋतस्पृशा । ऋत । स्पृशा । क्रतुम् । बृहन्तम् । आशाथेइति ॥८४८॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 848
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 2; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 6; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 4; खण्ड » 2; सूक्त » 2; मन्त्र » 2
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 2; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 6; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 4; खण्ड » 2; सूक्त » 2; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
विषय
अगले मन्त्र में फिर ब्रह्म-क्षत्र का विषय वर्णित है।
पदार्थ
हे (ऋतस्पृशा) सत्य ज्ञान और सत्य कर्म को प्राप्त करनेवाले, (ऋतावृधा) सत्य ज्ञान और सत्य कर्म को बढ़ानेवाले (मित्रावरुणौ) ब्राह्मण-क्षत्रियो ! तुम दोनों (ऋतेन) सत्य ज्ञान और सत्य कर्म से (बृहन्तम्) विशाल (क्रतुम्) राष्ट्रयज्ञ को (आशाथे) व्याप्त करते हो ॥२॥
भावार्थ
ब्राह्मण और क्षत्रिय लोग सत्य ज्ञान और सत्य कर्म को स्वयं ग्रहण करके तथा अन्यों को उसकी शिक्षा देकर राष्ट्र की उन्नतिरूप यज्ञ को करते हैं ॥२॥
पदार्थ
(ऋतावृधा) सत्य—सत्याचरणकर्ता के वर्धक (ऋतस्पृशा) सत्य—सत्याचरणकर्ता के स्पर्शी—सङ्गतिकर्ता (मित्रावरुणौ) प्रेरक और वरने—अङ्गीकार करने वाला परमात्मा (बृहन्तं क्रतुम्) महान् ज्ञानयज्ञ को या अध्यात्मयज्ञ को (ऋतेन-आशाथे) अपने अमृतस्वरूप से प्राप्त होते हैं “ऋतममृतमित्याह” [जै॰ २.१६०]।
भावार्थ
सत्याचरणकर्ता—सत्यमानी सत्यवादी सत्यकारी का वर्धक तथा सत्यमानी सत्यवादी सत्यकारी का स्पर्शकर्ता सङ्गी प्रेरक और अङ्गीकार करने वाला परमात्मा महान् अध्यात्मयज्ञ को अपने अमृतस्वरूप से प्राप्त होता है॥२॥
विशेष
<br>
विषय
अद्भुत शक्ति
पदार्थ
(ऋतावृधा) = [ऋत सत्यनाम, यज्ञनाम–नि० ४.१९] सत्य और यज्ञ के द्वारा बढ़नेवाले तथा (ऋतस्पृशा) = [ऋतं रेत: – नि० ३.४] शक्ति देनेवाले [स्पर्शनं प्रतिपादनं] (मित्रावरुणा) = प्राणापान (ऋतेन) = मन से [जै० उ० ३.३६.५] (बृहन्तं क्रतुम्) = विशाल यज्ञों को अथवा बहुत बड़ी शक्ति को [क्रतुम्=Power] (आशाथे) = व्याप्त करते हैं ।
प्राणापान की वृद्धि के लिए यज्ञमय जीवन आवश्यक है । यज्ञमय जीवन सरल जीवन है, उसमें छल-छिद्र की पेचीदगियाँ नहीं हैं। कुटिलताएँ प्राणशक्ति की विघातक हैं। इसी प्रकार असत्य भी प्राणशक्ति का ह्रास करनेवाला है।
= ये प्राणापान यज्ञ और सत्य से बढ़कर हमारी शक्ति को बढ़ानेवाले हैं। प्राणापान की साधना ही वीर्य की ऊर्ध्वगति का कारण बनती है और शरीर में सुरक्षित ऋत रेतस् [वीर्य] मनुष्य को अनन्त शक्ति प्राप्त कराता है। प्राणापान की साधना से मन की निर्मलता भी सिद्ध होती है और यह निर्मल मन सदा यज्ञात्मक कर्मों में लगा रहता है ।
भावार्थ
प्राणापान सत्य व यज्ञों से बढ़ते हैं। हमारे जीवनों को ये शक्तिशाली बनाते हैं
संस्कृत (1)
विषयः
अथ पुनर्ब्रह्मक्षत्रविषयमाह।
पदार्थः
हे (ऋतस्पृशा) ऋतं सत्यं ज्ञानं सत्यं कर्म च स्पृशतः प्राप्नुतः यौ तौ, (ऋतावृधा) ऋतं सत्यं ज्ञानं सत्यं कर्म च वर्धयतः यौ तौ। [पूर्वपदान्तस्य दीर्घश्छान्दसः। सुपां सुलुक्० अ० ७।१।३९ इति विभक्तेराकारादेशः] (मित्रावरुणौ) ब्राह्मणक्षत्रियौ। युवाम् (ऋतेन) सत्यज्ञानेन सत्यकर्मणा च (बृहन्तम्) विशालम् (क्रतुम्) राष्ट्रयज्ञम् (आशाथे) आनशाथे व्याप्नुतः। [अशू व्याप्तौ संघाते च। छन्दसि लुङ्लङ्लिटः। अ० ३।४।६ इति वर्तमाने लिट्। वा छन्दसि सर्वे विधयो भवन्तीति नुडभावः] ॥२॥२
भावार्थः
ब्राह्मणाः क्षत्रियाश्च सत्यं ज्ञानं सत्यं कर्म च स्वयमुपादायान्यांश्च शिक्षयित्वा राष्ट्रोन्नयनयज्ञं निर्वहतः ॥२॥
टिप्पणीः
१. ऋ० १।२।८। २. ऋग्भाष्ये दयानन्दर्षिणा मन्त्रोऽयं सूर्यवाय्वोः प्राणापानयोश्च विषये व्याख्यातः ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
By Truth, O Mitra, Varuna, Truth-strengtheners, who cleave to Truth, have you obtained your lofty power !
Translator Comment
Truth means law, regularity observed by the breaths controlled by a Yogi.
Meaning
By virtue of the divine law, Mitra and Varuna, sun and pranic energy, both extend the operation of the natural law of cosmic evolution and inspire the human intelligence to reach unto divine realisation. They both pervade and energize the mighty yajna of the expanding universe. (Rg. 1-2-8)
गुजराती (1)
पदार्थ
પદાર્થ : (ऋतावृधा) સત્ય-સત્યાચરણ કરનારના વર્ધક (ऋतस्पृशा) સત્ય-સત્યાચરણકર્તાના સ્પર્શીસંગતિકર્તા (मित्रावरुणौ) પ્રેરક તથા વરનાર-અંગીકાર કરનાર પરમાત્મા (बृहन्तं क्रतुम्) મહાન જ્ઞાનયજ્ઞને અથવા અધ્યાત્મયજ્ઞને (ऋतेन आशाथे) પોતાના અમૃતરસને પ્રાપ્ત થાય છે. (૨)
भावार्थ
ભાવાર્થ : સત્યાચરણકર્તા-સત્યમાની, સત્યવાદી, સત્યકારીના વર્ધક તથા સત્યમાની, સત્યવાદી, સત્યકારીના સ્પર્શકર્તા-સંગી, પ્રેરક અને અંગીકાર કરનાર પરમાત્મા મહાન અધ્યાત્મયજ્ઞને પોતાનાં અમૃત સ્વરૂપથી પ્રાપ્ત થાય છે. (૨)
मराठी (1)
भावार्थ
ब्राह्मण व क्षत्रिय लोक सत्य ज्ञान व सत्यकर्म स्वत: ग्रहण करून व इतरांना त्याचे शिक्षण देऊन राष्ट्राचा उन्नतीरूपी यज्ञ करतात. ॥२॥
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