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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 876
ऋषिः - पवित्र आङ्गिरसः
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - जगती
स्वरः - निषादः
काण्ड नाम -
2
त꣡पो꣢ष्प꣣वि꣢त्रं꣣ वि꣡त꣢तं दि꣣व꣢स्प꣣दे꣡ऽर्च꣢न्तो अस्य꣣ त꣡न्त꣢वो꣣꣬ व्य꣢꣯स्थिरन् । अ꣡व꣢न्त्यस्य पवि꣣ता꣡र꣢मा꣣श꣡वो꣢ दि꣣वः꣢ पृ꣣ष्ठ꣡मधि꣢꣯ रोहन्ति꣣ ते꣡ज꣢सा ॥८७६॥
स्वर सहित पद पाठत꣡पोः꣢꣯ । प꣣वि꣡त्र꣢म् । वि꣡तत꣢꣯म् । वि । त꣣तम् । दिवः꣢ । प꣣दे꣢ । अ꣡र्च꣢꣯न्तः । अ꣣स्य । त꣡न्त꣢꣯वः । वि । अ꣣स्थिरन् । अ꣡व꣢꣯न्ति । अ꣣स्य । पविता꣡र꣢म् । आ꣣श꣡वः꣢ । दि꣣वः꣢ । पृ꣣ष्ठ꣢म् । अ꣡धि꣢꣯ । रो꣣हन्ति । ते꣡ज꣢꣯सा ॥८७६॥
स्वर रहित मन्त्र
तपोष्पवित्रं विततं दिवस्पदेऽर्चन्तो अस्य तन्तवो व्यस्थिरन् । अवन्त्यस्य पवितारमाशवो दिवः पृष्ठमधि रोहन्ति तेजसा ॥८७६॥
स्वर रहित पद पाठ
तपोः । पवित्रम् । विततम् । वि । ततम् । दिवः । पदे । अर्चन्तः । अस्य । तन्तवः । वि । अस्थिरन् । अवन्ति । अस्य । पवितारम् । आशवः । दिवः । पृष्ठम् । अधि । रोहन्ति । तेजसा ॥८७६॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 876
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 2; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 16; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 4; खण्ड » 5; सूक्त » 3; मन्त्र » 2
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 2; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 16; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 4; खण्ड » 5; सूक्त » 3; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
विषय
अगले मन्त्र में परमात्मा से रचे गए सूर्य के कर्मों का वर्णन है।
पदार्थ
(तपोः) तेजस्वी सोम परमात्मा की कृति (पवित्रम्) पवित्रता का साधन सूर्य (दिवः पदे) द्युलोक में (विततम्) फैला हुआ है। (अस्य) इस सूर्य की (अर्चन्तः) दीप्त होती हुई (तन्तवः) किरणें (व्यस्थिरन्) विविध स्थानों में स्थित होती हैं। (अस्य) इस सूर्य की (आशवः) शीघ्रगामी किरणें (पवितारम्) शुद्धिकर्ता वायु की (अवन्ति) रक्षा करती हैं। इसी सूर्य के (तेजसा) ताप से, समुद्र के जल भाप बनकर (दिवः पृष्ठम्) आकाश के पृष्ठ पर (अधि रोहन्ति) चढ़ते हैं और मेघ के आकार को प्राप्त करते हैं ॥२॥
भावार्थ
परमात्मा ने ही तेजोमय सूर्य रचा है, जिसकी किरणें पदार्थों का शोधन, समुद्रजलों को भाप बनाना, भाप को ऊपर ले जाना, बादल बनाना इत्यादि विविध कार्य करती हैं ॥२॥
पदार्थ
(तपोः-पवित्रं विततम्) काम आदि को या दुष्टों को तपाने वाले परमात्मा का पवित्र तथा उपासक को पवित्र करने वाला स्वरूप संसार में फैला हुआ है (अस्य तन्तवः) इसका अपने अन्दर विस्तार करने वाले (अर्चन्तः) इसकी अर्चना स्तुति करते हुए (दिवस्पदे) अमृतधाम मोक्षपद में “त्रिपादस्यामृतं दिवि” [ऋ॰ १०.९०.३] (व्यस्थिरन्) विशेषरूप से स्थिर हो जाते हैं—विराजमान हो जाते हैं (अस्य-आशवः) इसके अन्दर उपासना द्वारा समन्तरूप से शयन करने वाले उपासक (पवितारम्-अवन्ति) उस पवित्रकर्ता परमात्मा का आलिङ्गन करते हैं “अव रक्षण....आलिङ्गन....” [भ्वादि॰] पुनः (तेजसा दिवः पृष्ठम्-अधिरोहन्ति) अध्यात्मतेज से अमृतधाम मोक्ष के प्राप्तव्य पद पर अधिष्ठित हो जाते हैं।
भावार्थ
काम आदि दोषों और दुष्टों का तापक उपासकों के पवित्रकारक परमात्मा का स्वरूप संसार में फैल रहा है, इसका अपने अन्दर विस्तार करने वाले मननशील उपासकजन इसकी अर्चना स्तुति करते हुए अमृतधाम मोक्षपद में विशेषरूप से विराजमान हो जाते हैं तथा इसके अन्दर उपासना द्वारा समन्त रूप से शयन करने वाले उपासक पवित्रकर्ता परमात्मा का आलिङ्गन करते हैं। पुनः अध्यात्मतेज से अमृतधाम मोक्ष के प्राप्तव्य पद पर अधिष्ठित हो जाते हैं॥२॥
विशेष
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विषय
तपस्वी का जीवन
पदार्थ
१. (तपो:) = तपस्वी अतएव ‘पवित्र आङ्गिरस' [पवित्र जीवनवाले, शक्तिशाली] का (पवित्रम्) = ज्ञान (दिवः पदे) = द्योतनात्मक प्रभु के आधार में (विततम्) = विस्तृत होता है, अर्थात् तपस्वी व्यक्ति परमात्मा को अपना आधार बनाने का प्रयत्न करता है और इस प्रभुरूप आधार में इसका ज्ञान विस्तृत होता चलता है। प्रकृति का ज्ञान प्राप्त करके यह ब्रह्म का ज्ञान भी प्राप्त करने का प्रयत्न करता है । इस सारे ज्ञान की प्राप्ति के लिए तपस्वी होना अत्यन्त आवश्यक है । २. (अस्य) = इस तपस्वी के (तन्तव:) = नानाविध यज्ञ [सप्ततन्तुः=तन्तुः= यज्ञ] (अर्चन्तः) = प्रभु की उपसना करते हुए व्(यस्थिरन्) = इस तपस्वी को स्थिरवृत्ति का बनाते हैं। प्रभु यज्ञमय हैं— उसकी उपासना यज्ञों से ही होती है [यज्ञेन यज्ञमयजन्त देवाः]। इन यज्ञों के द्वारा प्रभु की उपासना करनेवाले की वृत्ति स्थिर बनती है । ३. (अस्य) = इस' पवित्र आङ्गिरस' के (आशवः) = शीघ्रगामी – शीघ्रता से कार्यों में व्याप्त होनेवाले इन्द्रियरूप अश्व (पवितारम्) = पवित्र करनेवाले प्रभु की ओर (अवन्ति) = जाते हैं, अर्थात् इसकी इन्द्रियाँ इसे परमेश्वर की ओर ले जानेवाली होती हैं । यह प्रभु-प्रवण होता है । ४. इस प्रभु-प्रवणता का परिणाम यह होता है कि ये तपस्वी लोग (तेजसा) = अपने तेज के कारण (दिवः पृष्ठम्) = द्युलोक की पीठ पर, अर्थात् ब्रह्मलोक का (अधिरोहन्ति) = अधिरोहण करते हैं, मोक्ष पानेवाले होते हैं ।
भावार्थ
हम तपस्वी बनें, जिससे हमारा ज्ञान बढ़े, यज्ञों के द्वारा प्रभु का उपासन करते हुए हम स्थिर चित्तवृत्तिवाले हों । हमारी इन्द्रियाँ प्रभु की ओर जानेवाली हों, जिससे हम तेजस्वी बनकर मोक्षपद पर आरूढ़ हों ।
संस्कृत (1)
विषयः
अथ परमात्मविरचितस्य सूर्य्यस्य कर्माणि वर्णयति।
पदार्थः
(तपोः) तेजस्विनः सोमस्य परमात्मनः कृतिः (पवित्रम्) पवित्रतासाधनं सूर्यः। [सूर्यः पवित्रमुच्यते। निरु० ५।६।] (दिवः पदे) द्युलोके (विततम्) विस्तीर्णमस्ति। (अस्य) सूर्यस्य (अर्चन्तः) दीप्यमानाः२ (तन्तवः) किरणाः (व्यस्थिरन्) विविधेषु स्थानेषु तिष्ठन्ति। [विपूर्वात् ष्ठा गतिनिवृत्तौ इति धातोः लुङि छान्दसो झस्य रन् आदेशः सिचो लोपश्च।] (अस्य) सूर्यस्य (आशवः) शीघ्रगामिनः किरणाः (पवितारम्) शोधकं वायुम् (अवन्ति) रक्षन्ति, अस्यैव सूर्यस्य (तेजसा) तापेन समुद्रजलानि वाष्पीभूय (दिवः पृष्ठम्) आकाशस्य पृष्ठम् (अधि रोहन्ति) अधिगच्छन्ति, मेघाकारतां च प्रपद्यन्ते ॥२॥
भावार्थः
परमात्मनैव तेजोमयः सूर्यो रचितो यस्य रश्मयः पदार्थशोधनं, समुद्रजलानां वाष्पीकरणं वाष्पतस्योपरि नयनं, मेघनिर्माणमित्यादीनि विविधानि कार्याणि कुर्वन्ति ॥२॥
टिप्पणीः
१. ऋ० ९।८३।२, ‘ऽर्चन्तो’, ‘पवितार’, ‘रोहन्ति तेजसा’ इत्यत्र क्रमेण ‘रोच॑न्तो’, ‘पवी॒ तार॑’, ‘तिष्ठन्ति चेत॑सा’ इति पाठः। २. अर्चन्तः दीप्यमानाः इति सा०। ऋग्वेदे ‘अर्चन्तः’ इत्यत्र ‘शोचन्तः’ इत्येव पाठः।
इंग्लिश (2)
Meaning
God, the Warmer and Purifier of all, pervades all luminous objects. The multifarious sacrificial verses which display His attributes. His mighty powers, guard the Sun and Air, and have mounted up to the height of heaven.
Meaning
The holy light of the cosmic sun extends and lights the regions of heaven where the rays shine and blaze, radiate all round and abide in constancy. Those instant radiations in heavenly state protect the devotee of holy commitment. Indeed the devotees abide there on top of the state of heavenly light with their mind stabilised in peace and joy. (Rg. 9-83-2)
गुजराती (1)
पदार्थ
પદાર્થ : (तपोः पवित्रं विततम्) કામ આદિને તથા દુષ્ટોને તપાવનાર પરમાત્માનું પવિત્ર તથા ઉપાસકને પવિત્ર કરનાર સ્વરૂપ સંસારમાં વ્યાપ્ત થયેલું છે (अस्य तन्तवः) એનો પોતાની અંદર વિસ્તાર કરનાર (अर्चन्तः) એની અર્ચના સ્તુતિ કરનાર (दिवस्पदे) અમૃતધામ મોક્ષપદમાં (व्यस्थिरन्) વિશેષ રૂપથી સ્થિર બની જાય છે-વિરાજમાન થઈ જાય છે. (अस्य आशवः) એની અંદર ઉપાસના દ્વારા સમગ્રરૂપથી શયન કરનારા ઉપાસકો (पवितारम् अवन्ति) તે પવિત્રકર્તા પરમાત્માને ભેટે છે. પુનઃ (तेजसा दिवः पृष्ठम् अधिरोहन्ति) અધ્યાત્મતેજથી અમૃતધામ મોક્ષના પ્રાપ્ત કરવા યોગ્ય પદ પર અધિષ્ઠિત થઈ જાય છે. (૨)
भावार्थ
ભાવાર્થ : કામ આદિ દોષો અને દુષ્ટોના દાહક, ઉપાસકોના પવિત્રકારક પરમાત્માનું સ્વરૂપ સંસારમાં વિસ્તારથી વ્યાપી રહ્યું છે, પરંતુ તેનો પોતાની અંદર વિસ્તાર કરનારા મનનશીલ ઉપાસકો એની અર્ચના, સ્તુતિ કરતાં અમૃતધામ મોક્ષપદમાં વિશેષરૂપ વિરાજમાન થઈ જાય છે; તથા એની અંદર ઉપાસના દ્વારા સમગ્રરૂપથી શયન કરનારા ઉપાસકો પવિત્રકર્તા પરમાત્મા નું આલિંગન કરે છે-ભેટે છે. પુનઃ અધ્યાત્મતેજથી અમૃતધામ મોક્ષમાં પ્રાપ્તવ્ય પદ પર અધિષ્ઠિત થાય છે. (૨)
मराठी (1)
भावार्थ
परमेश्वरानेच तेजोमय सूर्य निर्माण केलेला आहे. ज्याची किरणे पदार्थांची शुद्धी, समुद्रजलाची वाफ बनविणे, वाफ वर नेणे, मेघ तयार करणे इत्यादी कार्य करतात. ॥२॥
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