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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 93
    ऋषिः - वामदेव: कश्यप:, असितो देवलो वा देवता - अग्निः छन्दः - अनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः काण्ड नाम - आग्नेयं काण्डम्
    3

    रा꣣ये꣡ अ꣢ग्ने म꣣हे꣢ त्वा꣣ दा꣡ना꣢य꣣ स꣡मि꣢धीमहि । ई꣡डि꣢ष्वा꣣ हि꣢ म꣣हे꣡ वृ꣢ष꣣न् द्या꣡वा꣢ हो꣣त्रा꣡य꣢ पृथि꣣वी꣢ ॥९३

    स्वर सहित पद पाठ

    रा꣣ये꣢ । अ꣣ग्ने । महे꣢ । त्वा꣣ । दा꣡ना꣢꣯य । सम् । इ꣣धीमहि । ई꣡डि꣢꣯ष्व । हि । म꣣हे꣢ । वृ꣣षन् । द्या꣡वा꣢꣯ । हो꣣त्रा꣡य꣢ । पृ꣣थिवी꣡इ꣢ति ॥९३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    राये अग्ने महे त्वा दानाय समिधीमहि । ईडिष्वा हि महे वृषन् द्यावा होत्राय पृथिवी ॥९३


    स्वर रहित पद पाठ

    राये । अग्ने । महे । त्वा । दानाय । सम् । इधीमहि । ईडिष्व । हि । महे । वृषन् । द्यावा । होत्राय । पृथिवीइति ॥९३॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 93
    (कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 5; मन्त्र » 3
    (राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 1; खण्ड » 10;
    Acknowledgment

    हिन्दी (5)

    विषय

    अगले मन्त्र में अग्नि नाम से जीवात्मा को सम्बोधित किया गया है।

    पदार्थ

    हे (अग्ने) शरीरस्थ मन, बुद्धि, इन्द्रिय आदि देवों में अग्रणी हमारे जीवात्मन् ! हम (महे राये) प्रचुर सोना, चाँदी, विद्या, विवेक आदि धन को कमाने के लिए और (दानाय) उसके दान के लिए (त्वा) तुझे (समिधीमहि) प्रदीप्त-प्रबुद्ध करते रहें। हे (वृषन्) बली जीवात्मन् ! तू (द्यावापृथिवी) द्युलोक और भूलोक की (महे होत्राय) महान् होम के लिए (ईडिष्व) स्तुति कर, प्रशंसा कर। ये द्यावापृथिवी जगत् के हितार्थ सृष्टि-संचालन-यज्ञ में सर्वस्व-होम कर रहे हैं, इस रूप में उनके गुणों का वर्णन कर और उनसे प्रेरणा लेकर स्वयं भी परोपकारार्थ होम कर, यह भाव है ॥३॥

    भावार्थ

    मनुष्यों को चाहिए कि अपने आत्मा को प्रबोधन देकर दानशील आकाश-भूमि से शिक्षा लेकर धनों के कमाने तथा दान देने में प्रवृत्त हों ॥३॥

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    पदार्थ

    (अग्ने) हे प्रकाशस्वरूप परमात्मन्! (महे दानाय राये) महान् दान मोक्षैश्वर्य के लिये (त्वा समिधीमहि) तुझे अपने अन्दर प्रकाशित करें—साक्षात् करें, इस हेतु (वृषन्) जीवनवृष्टि करने वाले! तू (महे होत्राय) तेरे महान् दान मोक्षैश्वर्य के प्रतीकार में हमारे महान् होत्र—आत्मसमर्पण के लिये (द्यावापृथिवी हि-ईडिष्व) हमारे प्राण उदान को “इमे हि द्यावापृथिवी प्राणोदानौ” [श॰ ४.३.१.२२] बढ़ा “ईडते वर्धयन्ति” [निरु॰ ८.१]।

    भावार्थ

    प्रकाशस्वरूप परमात्मन्! तेरा दान महान् है जो कि मोक्षैश्वर्य है उससे बड़ा दान कोई नहीं है, उसकी प्राप्ति के लिये हम अपने अन्दर तुझे प्रकाशित करें—साक्षात् करें, इसका उपाय या इस के प्रतीकार या परिवर्तन में हम भी अपने आत्मा को आत्मभाव से स्तुतिसमर्पण को तेरी भेंट दे सकें इस हेतु हमारे प्राण उदान को बढ़ा अर्थात् हमें स्वस्थ दीर्घजीवी बना दे॥३॥

    विशेष

    ऋषिः—कश्यपोऽसितो देवलो वामदेवो वा (सूक्ष्मदर्शी, दुर्वासनारहित, अपने देवधर्मों को लाने वाला या वननीय देव का उपासक)॥<br>

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    विषय

    महान् त्याग

    पदार्थ

    हे (अग्ने) = उन्नत भावों को प्राप्त करानेवाले प्रभो! हम (त्वा) = आपको (समिधीमहि) =अपने हृदयों में दीप्त करते हैं। किसलिए? (राये)= धन के लिए, उस धन के लिए जोकि [ रा = दाने] लोकहित के लिए दिया जाता है। (महे)= महान् बनने के लिए, अपने हृदयों को विशाल बनाने के लिए। हम उदार हों, और (दानाय) = दिल खोलकर देने के लिए समर्थ हों। इस उदारता व दान के लिए हम आपकी ज्योति को अपने हृदयों में जगाते हैं। इस ज्योति के अभाव में धन की चमक हमारी आँखों को अपनी ओर आकृष्ट कर लेती है और हम संकुचित हृदय बनकर उसका दान नहीं कर पाते।

    (वृषम्)=सब धनों की वर्षा करनेवाले (महे) = महान् (द्यावा-पृथिवी होत्राय) = द्युलोक से पृथिवीलोक तक सम्पूर्ण ऐश्वर्य के होत्र के लिए अर्थात् सर्वस्व के दान के लिए (ईडिष्व हि) = हम आपकी स्तुति करते हैं। इस भावना के उदय होने पर ही मैं इन अर्थों धनों में आसक्त न होऊँगा और तभी मुझे धर्म का ज्ञान होगा। ('अर्थकामेष्वसक्तानां धर्मज्ञानं विधीयते') = धन में आसक्त को धर्म का ज्ञान नहीं हुआ करता, मुझे धर्मज्ञ होने का सौभाग्य प्राप्त होगा तो मैं अपने अन्दर दिव्य गुणों का विकास करनेवाला वामदेव बन पाऊँगा और तभी मैं ज्ञानी-काश्यप भी कहला पाऊँगा। अग्ने! आपकी कृपा से मैं ऐसा ही बनूँगा।
     

    भावार्थ

    सब धनों के वर्षक उस प्रभु का स्मरण करते हुए हम अपने जीवन को 'महान् त्याग' का जीवन बना पाएँ।

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    विषय

    परमेश्वर की स्तुति

    भावार्थ

    भा० = हे अग्ने ! हे ( वृषन् ) = आत्मा और मानस में आनन्द की वर्षा करने वाले प्रभो ! ( त्वा ) = तुझको ( महे ) = बड़े भारी विशाल ( राये ) = अनुपम धन के निमित्त ( दानाय ) = अपने को आत्मसमर्पण करने के लिये हम साधक लोग ( समिधीमहि ) = उत्तम रीति से योग द्वारा प्रज्वलित करते हैं । ( हि ) = क्योंकि ( द्यावापृथिवी ) = द्यौलोक और पृथिवी लोक दोनों ( महे होत्राय१   ) =उसी परमेश्वर रूप कालाग्नि में बड़ी भारी आहुति के लिये है। तू भी उसी की ( इंडिष्व  ) = स्तुति कर ।  

    टिप्पणी

    १. होमग्रहणञ्चात्र प्रदर्शनार्थम्  । मा० वि०।  
    १ . दधन्वे  धारयति धारणेनात्र श्रवणं लक्ष्यते । मा०वि ० ॥ 

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

     

    ऋषिः - वामदेव: कश्यप:, असितो देवलो वा। 

    देवता - अङ्गिराः। 

    छन्दः - अनुष्टुप्। 

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    Bhajan

    आज का वैदिक भजन 🙏 1111

    ओ३म् राये अग्ने महे त्वा दानाय समिधीमहे।

    ईडिष्वा हि महे वृषं द्यावा होत्राय पृथिवी ।।

    सामवेद  93               

           

    आग जलाई ब्रह्मा ने 

    यजमानों के लिए

    देवपूजा संगतिकरण

    शुभ दानों के लिए 

     

    आहुतियों के प्रवाह फैले 

    इदं न मम के भाव जगे 

    अयंत इध्म आत्मा के भाव 

    इस आत्मा के चाव बढ़े

    बनेंगे हम चिंगारी 

    तो ज़माने के लिए 

    देवपूजा संगतिकरण

    शुभ दानों के लिए 

     

    इस ब्रह्माण्ड के परमाणु सब 

    एक हो गए दान के कारण 

    ऐसी आग की चिंगारी को 

    रोम-रोम में करले धारण 

    महायज्ञ करते ईश्वर 

    समझाने के लिए 

    देवपूजा संगतिकरण

    शुभ दानों के लिए 

     

    परमात्मा की दसों दिशाएँ 

    विश्व याग में हो गई तत्पर 

    हर क्षण व्यापक यज्ञ की अग्नि 

    निष्ठित है निष्काम के पथ पर 

    यज्ञ भाव हैं उपासना 

    करवाने के लिए 

    देवपूजा संगतिकरण

    शुभ दानों के लिए 

     

    यह आत्मा प्रभु इंधन तेरा 

    इसे  जाज्वल्यमान बनाओ 

    पृथ्वी और द्युलोक की दो 

    समिधाएँ दूँ तो इन्हें जलाओ 

    दो समिधा स्वीकार करो 

    दो लोकों के लिए 

    देवपूजा संगतिकरण

    शुभ दानों के लिए 

     

    तेरी ज़मी और आसमान को 

    पहले अपना घर तो बना लूँ 

    अग्निहोत्र करते-करते ही 

    छोड़ इसे परलोक सजा लूँ 

    विश्व दिया तूने सेवा 

    करवाने के लिए 

    देवपूजा संगतिकरण

    शुभ दानों के लिए 

     

    विश्व को दे दूँ आत्मा मेरी 

    और आत्मा को विश्व विशाल 

    लोभ ना हो लेने में

    ना देने में हो अभिमान उछाल

    लेना हो जाए अब केवल

    देने के लिए 

    देवपूजा संगतिकरण

    शुभ दानों के लिए 

    आग जलाई ब्रह्मा ने 

    यजमानों के लिए

    देवपूजा संगतिकरण

    शुभ दानों के लिए 

     

    रचनाकार व स्वर :- पूज्य श्री ललित मोहन साहनी जी – मुम्बई

    रचना दिनाँक :-     

     

    राग :- भैरवी

    भैरवी राग का गायन समय चारों प्रहर, ताल विलंबित कहरवा 8 मात्रा   

     

    शीर्षक :- अग्नि-होत्र भजन ६८४वां

    *तर्ज :- *

    717-0118  

     

    ब्रह्मा = यज्ञ कराने वाला 

    संगतिकरण = मेलजोल 

    इदं न मम = यह मेरा नहीं का भाव 

    चाव = इच्छा   

    तत्पर = तैयार 

    जाज्वल्यमान = प्रकाशमान 

    निष्ठित = दृढ़ रूप से स्थित

    समिधा = यज्ञ की लकड़ी 

    विशाल = बहुत बड़ा,महान

     

    Vyakhya

    प्रस्तुत भजन से सम्बन्धित पूज्य श्री ललित साहनी जी का सन्देश :-- 👇👇

     

    अग्नि-होत्र

    आज हमने आग जलाई है इसलिए कि हम दान करें। छोटे-मोटे दान तो बिना श्रद्धा के लोक लाज से या धर्म भीरुता(डर) से भी हो सकते हैं।

     हम माने ना माने कुछ एक टके तो बिरादरी अपने बल से भी रखवा ही लेती है। थोड़े से पैसों के लिए हम समाज से लड़ने नहीं जाते। इसको चाहे समाज का भय समझा जाए या बिरादरी की लाज। हम इतना दान तो अपने दिल की कमजोरी से भी दे ही देते हैं। आज हम चाहते हैं कि हमारा दान महान हो। उस दान के महत्व का, याने= उसकी पूजा का भाव स्वयं हमारे हृदयों में अंकित हो जाए। जब हम यह दान कर रहे हों हमारा हृदय इसकी गंभीरता को अनुभव करे इसे एक पवित्र कार्य समझे। यह अनुभूति बिना यज्ञ की भावना के नहीं हो सकती। इसलिए इसके लिए धूनी रमाने की यानी आग जलाने की अग्नि देव की उपासना करने की आवश्यकता है। जब तक हम अपने आप को विश्व का अंग नहीं समझते यज्ञ नहीं कर सकते। जब तक हमारा रोम-रोम इस भावना से सराबोर नहीं हो जाता कि हम उसी आग की चिंगारी हैं जिसके द्वारा ब्रह्मांड के संपूर्ण परमाणु एक हो रहे हैं ,तब तक इस महान दान के हम अधिकारी ही नहीं हैं। भौतिक संसार को भौतिकता अपने और फिर इस भौतिक व आध्यात्मिक अग्नि ने ही आश्रय प्रदान कर रखा है। योगी के हृदय में इस अग्नि की लपटें उठ रही हैं। बाहर की धूनी अंदर की आग का केवल एक धुआं ही है।तो आज हमने अपने अंदर आग जलाई है। 

    आज हमें एक महान अग्निहोत्र करना है। भगवान का अग्निहोत्र दसों दिशाएं कर रही हैं। विश्व-याग की आग में सब ओर से आहुति पड़ रही है। हर क्षण आहुति पड़ रही है। कितना बड़ा विशाल व्यापक यज्ञ हर समय हो रहा है, उसके यज्ञ कर्ता तो परमात्मा ही हैं।  अग्निदेव !  मैंने तुम्हें एक छोटे से कुंड में तो बहुत दिनों तक प्रदीप्त किया ही है, प्रतिदिन प्रदीप्त करता ही हूं। तुम्हारी इस छोटी सी ज्वाला में मुझे एक आध्यात्मिक ज्योति के दर्शन होते हैं। लुक छुप के रूप में प्रकट हो रही अग्नि की झांकियों पर वक्त भी बार-बार हुआ हूं। पर एक कसक है जो दिल में खटके जाती है कि भला होता जो यह केवल सिरे से झांकियां ही ना होती- मेरे लिए केवल आग होती लकड़ी लकड़ी ही रहती पर मैंने तो हमेशा पढा़ है 'अयंत इध्मआत्मा' आत्मा मेरी आत्मा इंधन बनी हो ना बनी हो यह आत्मा तेरा इंधन है। अग्निदेव यह तो तुम ही जानो कि तुम मेरे सुखे काठ से भी प्रदीप्त हुए या नहीं, पर इतना ज्ञान तो मुझे भी है कि मैंने जल रही लकड़ी को तुम्हारी आत्मा समझा है,उसका जो आग मैंने जलाई है उसके पीछे कोई आत्मावान अग्निदेव था। मेरे मानस नेत्रों को उसकी झांकियां मिली हैं। वे झांकियां ना होती तो यह यांत्रिक क्रिया प्रतिदिन कैसे हो पाती?

    इन झांकियों ने मुझे बेचैन कर दिया है आत्मवान अग्नि देव की लपटें एक झांकी में कैसे समा जायें?  उसका जाज्वल्यमान रूप देखने की इच्छा है, उसका पूरा स्पष्ट दर्शन करने की अभिलाषा है। यह झांकियां भी तो मुझे दर्शन का प्रलोभन दे रही हैं। अग्निदेव वेद ने ब्रह्मचारी के हाथों तुम्हें दो समझाएं दिलवाना चाहीं। एक पृथ्वीलोक की दूसरी द्यु: लोक की। क्या यह दो समिधाएं मैं तुम्हारे अर्पित कर सकता हूं? वैसे यह लोक और परलोक दोनों फूंक दूं। शरीर फूंक दूं ,आत्मा दे दूं जमीन फूंक दूं, आसमान फूक दूं। पहले यह जमीन आसमान मेरे हो भी तो ! मैं इन्हें अपना बना तो लूं ।संपूर्ण विश्व पहले मेरा घर बने भी। तब कहीं घर फूंक तमाशा देख की नौबत आ सके। हे अग्नि देव तुम्हारी झांकी अब मेरे हृदय में समा नहीं सकती बल्कि यह आज मेरे अंग अंग में छा रही है मेरी नस नस नाड़ी नाड़ी को अपना इंधन बना रही है। यह आग भड़केगी प्रस्तुति आपको मैं अपने हृदय के कुंड में बंद कैसे रखूंगा इसकी ज्वालाएं अभी से बाहर लपकने लगी हैं। तो अपने आप एक व्यापक जीभ सी बन जाती है। उन्हें द्युलोक से परे चयन ही नहीं पड़ता। वे जमीन आसमान दोनों को अपने सुवर्णिम संकेतों में समेट रही है।  उन्हें यही दो समिधाएं पसंद हैं। अपनी मूक भाषा में वह उनकी प्रशंसा कर रही हैं।  आज मेरी आंखों में विश्व की कोई छोटी चीज जंचती ही नहीं। मुझे विश्व प्यारा है। इसके अणु अणु से मुझे प्रेम है। यह प्रेम मेरे प्यारे की भेंट है। आज मैंने एक महान अग्निहोत्र किया है।यानी इस लोक का अग्नि होत्र । मैंने यह दोनों लोक विश्वाग्नि की भेंट कर दिए हैं। शरीर भेंट कर दिया हैं--यह मेरी पृथ्वी है। आत्मा भेंट कर दी है।यानी यह मेरा द्युलोक है। परमात्मलोक में यह दोनों लोक स्वाहा कर दिए हैं।यह दान रमणीय दान हैं। 'रयि' हैं। दान की लीला आज हुई है। 

    दे रहा हूं और ले रहा हूं। आत्मा दे दी है किसे? विश्व को।  विश्व दे दिया है किसे? आत्मा को । लेने में लोभ नहीं देने में अभिमान नहीं । देना- लेना अब हो गया लेना- देना।

    अग्निदेव! यह सब तुम्हारी कृपा है । यह सब तुम्हारा ही महान 'होत्र' है। 

    अग्निहोत्र। महान अग्निहोत्र! रमणीय अग्निहोत्र!                                🕉️👏🧎‍♂️ईश भक्ति भजन।     भगवान् ग्रुप द्वारा🎧🙏

     

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथाग्निनाम्ना जीवात्मा सम्बोध्यते।

    पदार्थः

    हे (अग्ने) देहस्थेषु मनोबुद्धीन्द्रियादिषु देवेषु अग्रणीभूत अस्मदीय जीवात्मन् ! वयम् (महे राये) विपुलाय धनाय, विपुलं स्वर्णरजतविद्याविवेकादिधनम् अर्जयितुमिति भावः, (दानाय) अर्जितं धनं सत्पात्रेभ्यो दातुं च (त्वा) त्वाम् (समिधीमहि) प्रदीपयेम, प्रबोधयेम इत्यर्थः। हे (वृषन्) बलवन् जीवात्मन् ! त्वम् (द्यावा-पृथिवी) द्युलोकं भूलोकं च (महे होत्राय) महते होमाय (ईडिष्व) स्तुहि, प्रशंस। द्यावापृथिवी इमे जगतो हिताय सृष्टिसञ्चालनयज्ञे सर्वस्वहोमं कुरुत इति तयोर्गुणान् वर्णय, ततः प्रेरणां गृहीत्वा स्वयमपि परोपकाराय होमं कुरु, इति भावः ॥३॥

    भावार्थः

    मनुष्यैः स्वात्मानं प्रबोध्य दानशीलाभ्यां द्यावापृथिवीभ्यां शिक्षां गृहीत्वा धनानामर्जने दाने च प्रवृत्तिर्विधेया ॥३॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    O God, the Rainer of happiness on the soul, for ample wealth and self dedication, we kindle. Thee through Yoga. Both Heaven and Earth are a great oblation to Him. Worship Him, O spiritually advanced men.

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    Meaning

    Agni, divinity self-refulgent and omnificent, we kindle the yajna fire together for the gift of great wealth, power and excellence. O generous lord of showers, pray inspire, energise and fertilise heaven and earth with abundance of food and energy so that we may continue the yajnic process of creation and production.

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    Translation

    O fire-divine, we always kindle you, so that you ever send down to us ample wealth. O showerer of blessings, for your superb favours, we pray, may the bounties of heaven and earth come to us.

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : (अग्ने) હે પ્રકાશસ્વરૂપ પરમાત્મન્ ! (महे दानाय राये) મહાન દાન મોક્ષ ઐશ્વર્યને માટે (त्वा समिधीमहि) તને પોતાની અંદર પ્રકાશિત કરે - સાક્ષાત્ કરે , તે માટે (वृषन्) જીવન સૃષ્ટિ કરનાર ! તું (महे होत्राय) તારા મહાન દાન મોક્ષ ઐશ્વર્યના પ્રતિકારમાં અમારા મહાન હોત્ર આત્મસમર્પણને માટે (द्यावापृथिवी हि ईडिष्व) અમારા પ્રાણ ઉદાનની વૃદ્ધિ કર. (૩)

    भावार्थ

    ભાવાર્થ : પ્રકાશસ્વરૂપ પરમાત્મન્ ! તારું દાન મહાન છે , જે મોક્ષ ઐશ્વર્યરૂપ છે , તેનાથી મોટું બીજું કોઈ દાન નથી , તેની પ્રાપ્તિ માટે અમે પોતાની અંદર તને સ્થાપિત કરીએ -  સાક્ષાત્ કરીએ , તેના ઉપાય અથવા તેના પ્રતિકાર અથવા પરિવર્તનમાં અમે પણ અમારા આત્મભાવથી સ્તુતિ સમર્પણની તને ભેટ ધરી શકીએ , તે માટે પ્રાણ અને ઉદાનની વૃદ્ધિ અર્થાત્ અમને સ્વસ્થ અને દીર્ઘજીવી બનાવી દે. (૩)

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    उर्दू (1)

    Mazmoon

    مُکتی مارگ کا دان

    Lafzi Maana

    (اگنے) نُورِ مُجسّم بھگوان (مہے رائے) اِس سنسار کی جو سب سے بڑی سمپتی موکھش ہے، اُس کا (دانائے) آپ سے دان لینے کے لئے ہم بھگت لوگ (تواسمدھی مہی) آپ کو اپنے انتر آتما میں اُپاسنا کی وِدھی سے روشن کرتے ہیں، پرگٹ کرتے ہیں (وِرشن) ہے آنند رس کی ورشا کرنے والے! (مہے ہوترائے) اس مہایدان سمپدا (اپُورو بھگتی) کے حاصل کرنے کے لئے آپ (دیاوا پرتھوی) زمین اور آسمان پر سب جگہ رہنے والے سبھی منشیوں کو (ایڑشِو) پریرنا (رغبت) دیجئے۔
     

    Tashree

    ایسی دیجئے سب کو رغبت موکھش دھام کے یاتری سنہیں،
    سب دُکھوں سے چُھوٹ سدا آنند مکتی رس پان کریں۔

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    माणसांनी आपल्या आत्म्याला प्रबोधन देऊन दानशील आकाश भूमीद्वारे (शिक्षण) उपदेश घेऊन धन प्राप्त करावे व दान द्यावे, अशी प्रवृत्ती ठेवावी ॥३॥

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    विषय

    आता पुढील मंत्रात अग्नि नावाने जीवात्म्यास संबोधित केले आहे -

    शब्दार्थ

    हे (अग्ने) शरीरस्य मन, बुद्धी, इंद्रियें आदी देवांत अग्रणी असणाऱ्या हे आमच्या जीवात्मा, आम्ही (शरीरधारी माणसे) (महे) (राये) भरपूर समृद्धीसाठी म्हणजे सोने, चांदी, विद्या, विवेक आदी घनांच्या अर्जनासाठी आणि ते घन (दानाय) इतरांना वाटण्यासाठी (त्वा) तुला (म्हणजे प्रत्येकाने आपल्या आत्म्याला) (सतिधीमहि) प्रदीप्त वा प्रबुद्ध करीत राहू. हे (वृषन्) बली जीवात्मन्, तू (घावापृथिवी) घूलोक आणि पृथ्वी लोकाची (महे होत्राय) महान होम करण्यासाठी (इडिष्व) स्तुती कर, प्रशंसा कर आणि हे घूलोक व पृथ्वी लोक सर्व जगाच्या कल्याणासाठी सृष्टि संचालनरूप यज्ञात आपले सर्वस्व होम करीत आहेत, अशा रूपात त्यांच्या गुणांचे वर्णन क आणि त्यांच्यापासून प्रेरणा घेऊन स्वतःदेखील परोपकाराकरिता हे जीवात्मन् तू होम करीत जा, असा मंत्राचा भावार्थ आहे. ।। ३।।

    भावार्थ

    माणसांचे कर्तव्य आहे की त्यांनी आपल्या आत्म्याला प्रबोधित वा जागृत करून दानशील अशा आकाश व भूमीकडून प्रेरणा घेऊन धनार्जन आणि धनदान कार्यात प्रवृत्त रहावे. ।। ३।।

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    तमिल (1)

    Word Meaning

    நீ மகத்தான ஐசுவரியத்தை அளிக்க, உன்னை அக்னியே! நன்றாய் எழுச்சியாக்குவோம். மகத்தான அழைப்பிற்கு [1] வர்ஷிக்கும் (அக்னிக்கு) வானம் பூமியை நாடவும்.

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