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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 936
ऋषिः - असितः काश्यपो देवलो वा
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
काण्ड नाम -
2
स꣢ सू꣣नु꣢र्मा꣣त꣢रा꣣ शु꣡चि꣢र्जा꣣तो꣢ जा꣣ते꣡ अ꣢रोचयत् । म꣣हा꣢न्म꣣ही꣡ ऋ꣢ता꣣वृ꣡धा꣢ ॥९३६॥
स्वर सहित पद पाठसः꣢ । सू꣣नुः꣢ । मा꣣त꣡रा꣢ । शु꣡चिः꣢꣯ । जा꣣तः꣢ । जा꣣ते꣡इति꣢ । अ꣡रोचयत् । महा꣣न् । म꣢ही꣢इति꣣ । ऋ꣣तावृ꣡धा꣢ । ऋ꣣त । वृ꣡धा꣢꣯ ॥९३६॥
स्वर रहित मन्त्र
स सूनुर्मातरा शुचिर्जातो जाते अरोचयत् । महान्मही ऋतावृधा ॥९३६॥
स्वर रहित पद पाठ
सः । सूनुः । मातरा । शुचिः । जातः । जातेइति । अरोचयत् । महान् । महीइति । ऋतावृधा । ऋत । वृधा ॥९३६॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 936
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 3; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 16; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 5; खण्ड » 6; सूक्त » 1; मन्त्र » 2
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 3; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 16; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 5; खण्ड » 6; सूक्त » 1; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
अब आचार्य से पढ़ाया हुआ कैसा पुत्र माता-पिता का यश फैलानेवाला होता है, यह कहते हैं।
पदार्थ
(सः) वह सुयोग्य आचार्य से शिक्षा दिया हुआ, (शुचिः)पवित्र हृदयवाला, (जातः) स्नातक बना हुआ (महान्) गुणों में महान् (सूनुः) पुत्र (जाते) विद्याओं से प्रसिद्ध, (मही) महागुणविशिष्ट, (ऋतावृधा) सत्य को बढ़ानेवाले (मातरा) माता-पिता को (अरोचयत्) यश से प्रदीप्त करता है ॥२॥
भावार्थ
सुयोग्य गुरुओं से पढ़ाया हुआ सुयोग्य पुत्र सुयोग्य माता-पिताओं और सुयोग्य गुरुओं की कीर्ति फैलाता है ॥२॥
पदार्थ
(सः-महान् सूनुः-शुचिः-जातः) वह महान् शान्तस्वरूप परमात्मा उत्पत्तिकर्ता प्रकाशमान*82 प्रसिद्ध हुआ (मही ऋतावृधा मातरा जाते-अरोचयत्) महती सत्यनियम के प्रसारक जगत् के माता पिता के समान उत्पन्न हुआ द्युलोक पृथिवीलोक को*83 प्रकाशमान कर रहा है॥२॥
टिप्पणी
[*82. “शोचति ज्वलतिकर्मा” [निघं॰ १.१६]।] [*83. “दौर्मे पिता....माता पृथिवी महीयम्” [ऋ॰ १.१६४.३३]।]
विशेष
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विषय
सोम का शरीर व मस्तिष्क पर प्रभाव
पदार्थ
(सः) = वह सोम १. (सूनुः) = उत्तम प्रेरणा देनेवाला है— सोमरक्षा के द्वारा मनुष्य को सदा उत्थान की प्रेरणा प्राप्त होती है, २. (शुचिः) = यह अत्यन्त पवित्र वस्तु है और जीवन की पवित्रता का कारण है, ३. (जात:) = [जातम् अस्य अस्तीति] यह शक्तियों के प्रादुर्भाव व विकास का कारण है, ४. यह (महान्) = अत्यन्त (महनीय) = महत्त्वपूर्ण वस्तु है, ५. यह सोम (मातरा) = [माता च पिता च] = द्यावापृथिवी को–शरीर व मस्तिष्क को (अरोचयत्) = प्रकाशयुक्त करता है । जो शरीर और मस्तिष्क [क] जाते=उत्तम प्रादुर्भाववाले हैं, [ख] (मही) = महनीय व प्रशंसनीय हैं, [ग] (ऋतावृधा) = ऋतु के द्वारा - सब कार्यों को व्रत के रूप में ठीक समय व ठीक स्थान पर करने के द्वारा ये वृद्धि को प्राप्त होते हैं।
भावार्थ
सोम शरीर को नीरोग बनाता है और मस्तिष्क को ज्ञान ज्योति से भरकर उज्ज्वल कर देता है।
विषय
missing
भावार्थ
(सः) वह सर्वोत्पादक परमेश्वर (सूनुः) पुत्र के समान हर्ष का सञ्चारक, समस्त ऐश्वर्यों का देने वाला, सब लोकों का प्रेरक (जातः) होकर (शुचिः) स्वच्छ, कान्तिमान् (महान्) यशस्वी है। वह (जाते) प्रसिद्ध हुए (ऋतावृधा) सत्य ज्ञान और जीवन को बढ़ाने वाले (मातरा) मा बाप दोनों को पुत्र के समान, आकाश और पृथिवी, गुरु शिष्य और स्त्री पुरुष, राजा और प्रजा दोनों को (अरोचयत्) उज्ज्वल करता है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः—१ आकृष्टामाषाः। २ अमहीयुः। ३ मेध्यातिथिः। ४, १२ बृहन्मतिः। ५ भृगुर्वारुणिर्जमदग्निः। ६ सुतंभर आत्रेयः। ७ गृत्समदः। ८, २१ गोतमो राहूगणः। ९, १३ वसिष्ठः। १० दृढच्युत आगस्त्यः। ११ सप्तर्षयः। १४ रेभः काश्यपः। १५ पुरुहन्मा। १६ असितः काश्यपो देवलो वा। १७ शक्तिरुरुश्च क्रमेण। १८ अग्निः। १९ प्रतर्दनो दैवोदासिः। २० प्रयोगो भार्गव अग्निर्वा पावको बार्हस्पत्यः, अथर्वाग्नी गृहपतियविष्ठौ सहसः स्तौ तयोर्वान्यतरः। देवता—१—५, १०–१२, १६-१९ पवमानः सोमः। ६, २० अग्निः। ७ मित्रावरुणो। ८, १३-१५, २१ इन्द्रः। ९ इन्द्राग्नी ॥ छन्द:—१,६, जगती। २–५, ७–१०, १२, १६, २० गायत्री। ११ बृहती सतोबृहती च क्रमेण। १३ विराट्। १४ अतिजगती। १५ प्रागाधं। १७ ककुप् च सतोबृहती च क्रमेण। १८ उष्णिक्। १९ त्रिष्टुप्। २१ अनुष्टुप्। स्वरः—१,६, १४ निषादः। २—५, ७—१०, १२, १६, २० षड्जः। ११, १३, १५, १७ मध्यमः। १८ ऋषभः। १९ धैवतः। २१ गान्धारः॥
संस्कृत (1)
विषयः
अथाचार्येणाध्यापितः कीदृशः पुत्रो मातापित्रोर्यशस्करो जायत इत्याह।
पदार्थः
(सः) सुयोग्येन आचार्येण शिक्षितः असौ शुचिः पवित्रहृदयः, (जातः) स्नातको भूतः (महान्)महागुणविशिष्टः (सूनुः) पुत्रः (जाते) जातौ विद्याभिः प्रसिद्धौ (मही) महागुणविशिष्टौ (ऋतावृधा) सत्यस्य वर्धकौ (मातरा) मातापितरौ (अरोचयत्) यशसा प्रदीपयति ॥२॥
भावार्थः
सुयोग्यैर्गुरुभिरध्यापितः सुयोग्यः पुत्रः सुयोग्ययोर्मातापित्रोः सुयोग्यानां गुरूणां च कीर्तिं प्रसारयति ॥२॥
टिप्पणीः
१. ऋ० ९।९।३।
इंग्लिश (2)
Meaning
God, being the Bestower of joy like a son, is Pure and Mighty. Just at a son makes his venerable parents, the advancers of true knowledge and life, shine so does God make splendid the Heaven and Earth, the preceptor and disciple, the King and his subjects.
Meaning
He, creator of the universe, pure and great, self- manifested, illuminates the great and glorious heaven and earth, mothers of the created world which observe and exalt the eternal laws of existence. (Rg. 9-9-3)
गुजराती (1)
पदार्थ
પદાર્થ : (सः महान् सूनुः शुचिः जातः) તે મહાન શાન્ત સ્વરૂપ પરમાત્મા ઉત્પત્તિકર્તા પ્રકાશમાન પ્રસિદ્ધ થઈને (मही ऋतावृधा मातरा जाते अरोचयत्) મહતી સત્ય નિયમના પ્રસારક જગતના માતાપિતાની સમાન ઉત્પન્ન કરીને દ્યુલોક અને પૃથિવીલોકને પ્રકાશમાન કરી રહેલ છે. (૨)
मराठी (1)
भावार्थ
सुयोग्य गुरूकडून शिक्षित सुयोग्य पुत्र, सुयोग्य माता, पित्याची व सुयोग्य गुरूंची कीर्ती पसरवितो ॥२॥
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