Sidebar
सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 939
ऋषिः - उरुराङ्गिरसः
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - काकुभः प्रगाथः (विषमा ककुप्, समा सतोबृहती)
स्वरः - पञ्चमः
काण्ड नाम -
2
ये꣢ना꣣ न꣡व꣢ग्वा द꣣ध्य꣡ङ्ङ꣢पोर्णु꣣ते꣢꣫ येन꣣ वि꣡प्रा꣢स आपि꣣रे꣢ । दे꣣वा꣡ना꣢ꣳ सु꣣म्ने꣢ अ꣣मृ꣡त꣢स्य꣣ चा꣡रु꣢णो꣣ ये꣢न꣣ श्र꣢वा꣣ꣳस्या꣡श꣢त ॥९३९॥
स्वर सहित पद पाठये꣡न꣢꣯ । न꣡व꣢꣯ग्वा । न꣡व꣢꣯ । ग्वा꣣ । दध्य꣢ङ् । अ꣣पोर्णुते꣢ । अ꣣प । ऊर्णुते꣢ । ये꣡न꣢꣯ । वि꣡प्रा꣢꣯सः । वि । प्रा꣣सः । आपिरे꣢ । दे꣣वा꣡ना꣢म् । सु꣣म्ने꣢ । अ꣣मृ꣡त꣢स्य । अ꣣ । मृ꣡त꣢꣯स्य । चा꣡रु꣢꣯णः । ये꣡न꣢꣯ । श्र꣡वा꣢꣯ꣳसि । आ꣡श꣢꣯त ॥९३९॥
स्वर रहित मन्त्र
येना नवग्वा दध्यङ्ङपोर्णुते येन विप्रास आपिरे । देवानाꣳ सुम्ने अमृतस्य चारुणो येन श्रवाꣳस्याशत ॥९३९॥
स्वर रहित पद पाठ
येन । नवग्वा । नव । ग्वा । दध्यङ् । अपोर्णुते । अप । ऊर्णुते । येन । विप्रासः । वि । प्रासः । आपिरे । देवानाम् । सुम्ने । अमृतस्य । अ । मृतस्य । चारुणः । येन । श्रवाꣳसि । आशत ॥९३९॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 939
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 3; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 17; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 5; खण्ड » 6; सूक्त » 2; मन्त्र » 2
Acknowledgment
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 3; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 17; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 5; खण्ड » 6; सूक्त » 2; मन्त्र » 2
Acknowledgment
भाष्य भाग
हिन्दी (3)
विषय
अगले मन्त्र में आचार्य का महत्त्व कहा गया है।
पदार्थ
(येन) जिस पवमान सोम से अर्थात् पवित्रकर्ता, विद्यारस के भण्डार आचार्य से (नवग्वा) नवीन शिक्षा प्राप्त नवस्नातक (दध्यङ्) धारक गुणों को प्राप्त होकर (अपोर्णुते) अविद्या के आवरण को दूर करता है, (येन) जिस आचार्य से उपदेश किये हुए (विप्रासः) मेधावी ब्राह्मण (आपिरे) सच्चरित्र की शिक्षा को प्राप्त करते हैं, (येन) जिस आचार्य से विद्या पाये हुए शिष्य (श्रवांसि) यशों को (आशत) प्राप्त करते हैं, वह आचार्य स्वयम् (देवानाम्) दिव्य गुणों के और (चारुणः) रमणीय (अमृतस्य) मोक्ष के (सुम्ने) सुख में निवास करता है ॥२॥
भावार्थ
सुयोग्य आचार्य से शिक्षा दिये हुए छात्र विद्वान्, सच्चरित्र, दिव्यगुणोंवाले और जीवन्मुक्त होकर सब जगह विद्या, सच्चरित्रता आदि गुणों को फैलाते हुए यशस्वी होते हैं ॥२॥
पदार्थ
(येन) जिस शान्तस्वरूप परमात्मा के द्वारा (नवग्वाः-दध्यङ्-अप-ऊर्णुते) नव गति अध्यात्म प्रवृत्ति जिनकी या नवप्राप्त गति अध्यात्म में प्रवेश जिनका है ऐसे पूर्ण खोज से अध्यात्मप्रवेश वाले*86 तथा ध्यान को प्राप्त जन*87 अध्यात्मावरक पट को खोल देते हैं (येन विप्रासः-आपिरे) जिस परमात्मा के आश्रय से उपासकजन अध्यात्मफल मोक्ष प्राप्त करते हैं (देवानां सुम्ने) जीवन्मुक्तों के सुख में*88 (अमृतस्य च) मुक्त के सुख में (अरुणः) आरोचन परमात्मा साक्षात् होता है (येन श्रवांसि-आशत) जिस परमात्मा के आश्रय से उपासकजन विविध यश*89 प्राप्त करते हैं॥२॥
टिप्पणी
[*86. “नवग्वा नवगतयो नवनीतागतयो वा” [निरु॰ ११.१९]।] [*87. “दध्यङ्प्रत्यक्तो ध्यानमिति वा प्रत्यक्तमस्मिन् ध्यानमिति वा” [निरु॰ १२.२३]।] [*88. “सुम्नं सुखनाम” [निघं॰ ३.६]।] [*89. “श्रवः श्रवणीयं यशः” [निरु॰ ११.९]।]
विशेष
<br>
विषय
पर्दे का हटाना
पदार्थ
'पवमान सोम' = हमारे जीवनों को पवित्र करनेवाला सोम वह है – १. (येन) = जिससे (नवग्वा) = [नवगतिः नवनीतगतिर्वा – नि० ११.१९ नू स्तुतौ] स्तुतिमय क्रियाशीलतावाला वा मक्खन के समान कोमलतायुक्त गतिवाला (दध्यङ्) = [प्रत्यक्तो ध्यानमिति वा – नि० १२.३३] ध्यानशील पुरुष (अपोर्णुते) = सत्य के स्वरूप को ढकनेवाले हिरण्मयपात्र को दूर करता है, अर्थात् आवरण को हटाकर सत्य के स्वरूप का दर्शन करता है । यह सोम वह है (येन) = जिसके द्वारा (देवानाम्) = देवताओं के, अर्थात् देवसम्बन्धी (चारुणः अमृतस्य) = सुन्दर अमृतत्व के (सुम्ने) = आनन्द में मनुष्य निवास करता है। इस सोम के कारण रोगादि शरीर में घर नहीं कर (पाते) = रोगरूप मृत्युएँ दूर हो जाती हैं, साथ ही सब इन्द्रियाँ शक्तिशाली बनी रहती हैं और उनकी सुन्दर गति में क्षीणता नहीं आती, परिणामतः ‘सु-ख' व आनन्द मिलता है । ४. यह सोम वह है (येन) = जिससे (श्रवांसि) = यश, स्तोत्र, धन व उत्तम कार्यों को (आशत्) = प्राप्त करते हैं। हमारा जीवन यशस्वी होता है, हम प्रभु-प्रवण बन उसके स्तोता होते हैं, धनार्जन के योग्य बनते हैं और सदा प्रशंसनीय कर्मों को ही करते हैं ।
भावार्थ
सोम को शरीर में सुरक्षित करके ही मनुष्य अज्ञान के आवरण को दूर करके प्रभु दर्शन कर पाता है ।
संस्कृत (1)
विषयः
अथाचार्यस्य महत्त्वमाह।
पदार्थः
(येन) येन (पवमानेन) सोमेन पवित्रकर्ता विद्यारसागारेण आचार्येण, (नवग्वा)नवीनशिक्षाप्राप्तः२ नवस्नातकः। [नवग्वाः नवगतयो वा नवीनगतयो वा निरु० ११।१९।] (दध्यङ्) धारकान् गुणान् प्राप्तः३ सन् (अपोर्णुते) अविद्याया आवरणमपनयति, (येन) येन आचार्येण उपदिष्टाः (विप्रासः) मेधाविनो ब्राह्मणाः (आपिरे) सच्चारित्र्यशिक्षां प्राप्नुवन्ति, (येन) येन आचार्येण लब्धविद्याः शिष्याः (श्रवांसि) यशांसि (आशत) लभन्ते,स आचार्यः स्वयम् (देवानाम्) दिव्यगुणानाम्, (चारुणः) रमणीयस्य (अमृतस्य) मोक्षस्य च (सुम्ने) सुखे निवसति ॥२॥
भावार्थः
सुयोग्येनाचार्येण शिक्षिताश्छात्रा विद्वांसः सच्चरित्रा दिव्यगुणवन्तो जीवन्मुक्ताश्च भूत्वा सर्वत्र विद्यासच्चारित्र्यादीन् गुणान् प्रसारयन्तः कीर्तिमन्तो जायन्ते ॥२॥
टिप्पणीः
१. ऋ० ९।१०८।४, ‘नव॑ग्वो’, ‘श्रवां॑स्यान॒शुः’ इति पाठः। २. नवग्वाः नवीनशिक्षाविद्याप्राप्ताः इति ऋ० १।३३।६ भाष्ये द०। ३. दध्यङ् दधाते यैस्ते दधयः सद्गुणास्तानञ्चति प्रापयति वा सः इति ऋ० १।८०।१६ भाष्ये द०।
इंग्लिश (2)
Meaning
By Whom, a person newly instructed in Vedic philosophy, becomes learned and diffuses knowledge. Through Whose aid, the sages explore the essence of Vedic hymns, and through Whose support, the wise acquire the secret's of the knowledge of the beautiful soul, at the places of Yajna of the learned, may Thou O God, be realised by us.
Translator Comment
Whom and Whose refer to God.^Griffith describes Dadhichi to be the son of Atharvan, the priest Who first obtained fire and offered prayer and Soma to the Gods. Here he is called a Navagva. This explanation is beside the mark, as it entails history, whereas the Vedas are free from history.^See verse 572.
Meaning
Soma is that spirit of enlightenment by which the meditative sages on way to divinity open up the path to immortality, by which the saints attain to the peace and well being worthy of divinities, and by which the lovers of immortality obtain their desired ambition and fulfilment. (Rg. 9-108-4)
गुजराती (1)
पदार्थ
પદાર્થ : (येन) જે શાન્ત સ્વરૂપ પરમાત્મા દ્વારા (नवग्वाः दध्यङ् अप ऊणुते) નવગતિ અધ્યાત્મ પ્રવૃત્તિ જેની અથવા નવપ્રાપ્ત ગતિ અધ્યાત્મ પ્રવેશમાં જેની છે. એવા પૂર્ણ ખોજથી અધ્યાત્મ પ્રવેશવાળા તથા ધ્યાનને પ્રાપ્ત જનો અધ્યાત્મ આવરક પટને ખોલી નાખે છે. (येन विप्रासः आपिरे) જે પરમાત્માના આશ્રયથી ઉપાસકજનો અધ્યાત્મફળ મોક્ષને પ્રાપ્ત કરે છે. (देवानां सुम्ने) જીવન મુક્તોનાં સુખમાં (अमृतस्य च) મુક્તના સુખોમાં (अरुणः) આરોચન-પ્રકાશમાન પરમાત્મા સાક્ષાત્ થાય છે. (येन श्रवांसि आशत) જે પરમાત્માના આશ્રયથી ઉપાસકજનો વિવિધ યશ પ્રાપ્ત કરે છે. (૨)
मराठी (1)
भावार्थ
सुयोग्य आचार्याकडून शिक्षण घेतलेले विद्यार्थी विद्वान, सच्चरित्र, दिव्यगुणयुक्त व जीवनमुक्त बनून सर्व स्थानी विद्या, सच्चरित्रता इत्यादी गुणांचा फैलाव करून यशस्वी होतात. ॥२॥
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
Misc Websites, Smt. Premlata Agarwal
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
N/A
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
Sri Dharampal Arya
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
N/A
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal