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सामवेद के मन्त्र

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  • सामवेद - मन्त्रसंख्या 969
    ऋषिः - असितः काश्यपो देवलो वा देवता - पवमानः सोमः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम -
    2

    स꣡ हि ष्मा꣢꣯ जरि꣣तृ꣢भ्य꣣ आ꣢꣫ वाजं꣣ गो꣡म꣢न्त꣣मि꣡न्व꣢ति । प꣡व꣢मानः सह꣣स्रि꣡ण꣢म् ॥९६९॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सः । हि । स्म꣣ । जरितृ꣡भ्यः꣢ । आ । वा꣡ज꣢꣯म् । गो꣡म꣢꣯न्तम् । इ꣡न्व꣢꣯ति । प꣡व꣢꣯मानः । स꣣हस्रि꣡ण꣢म् ॥९६९॥


    स्वर रहित मन्त्र

    स हि ष्मा जरितृभ्य आ वाजं गोमन्तमिन्वति । पवमानः सहस्रिणम् ॥९६९॥


    स्वर रहित पद पाठ

    सः । हि । स्म । जरितृभ्यः । आ । वाजम् । गोमन्तम् । इन्वति । पवमानः । सहस्रिणम् ॥९६९॥

    सामवेद - मन्त्र संख्या : 969
    (कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 3; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 4; मन्त्र » 2
    (राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 6; खण्ड » 2; सूक्त » 1; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    अगले मन्त्र में परमात्मा के उपकारों का वर्णन है।

    पदार्थ

    (पवमानः) चित्त और आत्मा की शुद्धि करनेवाला (स हि) वह सोम अर्थात् जगत् को उत्पन्न करनेवाला परमेश्वर(जरितृभ्यः) स्तोताओं के लिए (सहस्रिणम्) हजार संख्यावाले, (गोमन्तम्) प्रशस्त गाय, प्रशस्त वाणी आदि से युक्त (वाजम्) धन को, अथवा (गोमन्तम्) अन्तःप्रकाशयुक्त (वाजम्) आत्मबल को (आ इन्वति स्म) प्राप्त कराता है ॥२॥

    भावार्थ

    प्रेय मार्ग का और श्रेय मार्ग का अवलम्बन करनेवाले लोगों से ध्यान किया हुआ परमेश्वर उन्हें मनोवाञ्छित सब श्रेय और प्रेय प्रदान कर देता है ॥२॥

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    पदार्थ

    (सः-पवमानः-हि स्म) यह धारारूप में प्राप्त होने वाला शान्तस्वरूप परमात्मा ही (जरितृभ्यः) स्तुति करने वालों के लिए*21 (सहस्रिणम्) सहस्रों में ऊँचा (गोमन्तम्) स्तुति वाला—स्तुति प्रतिफल (वाजम्) अमृत अन्नभोग को*22 (आ-इन्वति) प्राप्त कराता है॥२॥

    टिप्पणी

    [*21. “जरिता स्तोतृनाम” [निघं॰ ३.१६]।] [*22. “अमृतोऽन्नं वै वाजः” [जै॰ २.१९३]।]

    विशेष

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    विषय

    स्तोता के लिए शक्ति, ज्ञान व धन

    पदार्थ

    असित-काश्यप-देवल' अनुभव करता है कि (सः हि) = वे प्रभु ही (जरितृभ्यः) = अपने स्तोताओं के लिए (गोमन्तम्) = प्रशस्त वेदवाणियोंवाले, अर्थात् उत्तम ज्ञान से युक्त (वाजम्) = शक्ति को (आ) = सर्वथा (इन्वति स्म) = प्राप्त कराते हैं | (पवमानः) = वे अपने स्तोता को पवित्र करते हुए सहस्त्रिणम् - अपने उपासक को शतश: धनोंवाला भी करते हैं । उसे उतना धन अवश्य प्राप्त कराते हैं, जो उसके जीवन को प्रसन्नतापूर्वक चलाने के लिए आवश्यक होता है ।

    भावार्थ

    प्रभु अपने स्तोताओं को १. शक्ति प्राप्त कराते हैं [वाजम्], २. उत्तम ज्ञान व इन्द्रियाँ प्राप्त कराते हैं [गोमन्तम्], ३. आवश्यक धन द्वारा प्रसन्नता देते हैं [सहस्रिणम्]।

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    विषय

    missing

    भावार्थ

    (सः हि) और वही (पवमानः) सर्वत्र गमन करता हुआ (जरितृभ्यः) विद्या का उपदेश करने हारे आचार्यों के लिये (सहस्रिणं) सहस्रों सुखों के देनेहारे (गोमन्तं) गवादि पशु से सम्पन्न धन को (इन्वति) गुरुदक्षिणा में लाकर देता है।

    टिप्पणी

    ‘मृशसे पवसे’ इति ऋ०।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः—त्रय ऋषिगणाः। २ काश्यपः ३, ४, १३ असितः काश्यपो देवलो वा। ५ अवत्सारः। ६, १६ जमदग्निः। ७ अरुणो वैतहव्यः। ८ उरुचक्रिरात्रेयः ९ कुरुसुतिः काण्वः। १० भरद्वाजो बार्हस्पत्यः। ११ भृगुर्वारुणिर्जमदग्निर्वा १२ मनुराप्सवः सप्तर्षयो वा। १४, १६, २। गोतमो राहूगणः। १७ ऊर्ध्वसद्मा कृतयशाश्च क्रमेण। १८ त्रित आप्तयः । १९ रेभसूनू काश्यपौ। २० मन्युर्वासिष्ठ २१ वसुश्रुत आत्रेयः। २२ नृमेधः॥ देवता—१-६, ११-१३, १६–२०, पवमानः सोमः। ७, २१ अग्निः। मित्रावरुणौ। ९, १४, १५, २२, २३ इन्द्रः। १० इन्द्राग्नी॥ छन्द:—१, ७ नगती। २–६, ८–११, १३, १६ गायत्री। २। १२ बृहती। १४, १५, २१ पङ्क्तिः। १७ ककुप सतोबृहती च क्रमेण। १८, २२ उष्णिक्। १८, २३ अनुष्टुप्। २० त्रिष्टुप्। स्वर १, ७ निषादः। २-६, ८–११, १३, १६ षड्जः। १२ मध्यमः। १४, १५, २१ पञ्चमः। १७ ऋषभः मध्यमश्च क्रमेण। १८, २२ ऋषभः। १९, २३ गान्धारः। २० धैवतः॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ परमात्मन उपकारं वर्णयति।

    पदार्थः

    (पवमानः) चित्तस्य आत्मनश्च शुद्धिमापादयन् (स हि) स खलु सोमः जगदुत्पादकः परमेश्वरः (जरितृभ्यः) स्तोतृभ्यः (सहस्रिणम्)सहस्रसंख्यकम् (गोमन्तम्) प्रशस्तधेनुवागादियुक्तम् (वाजम्) धनम्, यद्वा (गोमन्तम्) अन्तःप्रकाशयुक्तम् (वाजम्) आत्मबलम् (आ इन्वति स्म) आ प्रापयति।[इन्वति गतिकर्मा। निघं० २।१४] ॥२॥

    भावार्थः

    प्रेयोमार्गिभिः श्रेयोमार्गिभिश्च ध्यातः परमेश्वरस्तेभ्यो मनोवाञ्छितं सर्वं प्रेयः श्रेयश्च प्रयच्छति ॥२॥

    टिप्पणीः

    १. ऋ० ९।२०।२।

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    The same Brahmchari, travelling far and wide, offers to his preceptors as Guru Dakshina riches and cattle, the givers of thousand fold comforts.

    Translator Comment

    Guru Dakshina: In Vedic times it was the usual practice, for a pupil, to offer to his teacher, at the time of departure, after completing his studies, whatever he could according to his means. The offering made as a token of gratitude is called Guru Dakshina.

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    Meaning

    He alone, pure, purifying and dynamic, brings for the celebrants thousandfold food, energy and advancement with victory inspired and infused with intelligence, knowledge, culture and enlightenment. (Rg. 9-20-2)

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    गुजराती (1)

    पदार्थ

    પદાર્થ : (सः पवमानः हि स्म) જે ધારારૂપમાં પ્રાપ્ત થનાર શાન્ત સ્વરૂપ પરમાત્મા જ (जरितृभ्यः) સ્તુતિ કરનારા માટે (सहस्रिणम्) હજારોમાં શ્રેષ્ઠ (गोमन्तम्) સ્તુતિવાળો-સ્તુતિ પ્રતિફળ (वाजम्) અમૃત અન્નભોગને (आ इन्वति) પ્રાપ્ત કરાવે છે. (૨)

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    प्रेयमार्ग व श्रेयमार्गाचे अवलंबन करणाऱ्या लोकांकडून ध्यान केलेला ईश्वर त्यांना मनोवाञ्छित सर्व श्रेय व प्रेय प्रदान करतो. ॥२॥

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