अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 46/ मन्त्र 7
ऋषिः - प्रजापतिः
देवता - अस्तृतमणिः
छन्दः - पञ्चपदा पथ्यापङ्क्तिः
सूक्तम् - अस्तृतमणि सूक्त
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यथा॒ त्वमु॑त्त॒रोऽसो॑ असप॒त्नः स॑पत्न॒हा। स॑जा॒ताना॑मसद्व॒शी तथा॑ त्वा सवि॒ता क॑र॒दस्तृ॑तस्त्वा॒भि र॑क्षतु ॥
स्वर सहित पद पाठयथा॑। त्वम्। उ॒त्ऽत॒रः। असः॑। अ॒स॒प॒त्नः। स॒प॒त्न॒ऽहा। स॒ऽजा॒ताना॑म्। अ॒स॒त्। व॒शी। तथा॑। त्वा॒। स॒वि॒ता। क॒र॒त्। अस्तृ॑तः। त्वा॒। अ॒भि। र॒क्ष॒तु॒ ॥४६.७॥
स्वर रहित मन्त्र
यथा त्वमुत्तरोऽसो असपत्नः सपत्नहा। सजातानामसद्वशी तथा त्वा सविता करदस्तृतस्त्वाभि रक्षतु ॥
स्वर रहित पद पाठयथा। त्वम्। उत्ऽतरः। असः। असपत्नः। सपत्नऽहा। सऽजातानाम्। असत्। वशी। तथा। त्वा। सविता। करत्। अस्तृतः। त्वा। अभि। रक्षतु ॥४६.७॥
भाष्य भाग
हिन्दी (3)
विषय
विजय की प्राप्ति का उपदेश।
पदार्थ
[हे मनुष्य !] (यथा) जिससे (त्वम्) तू (उत्तरः) अति ऊँचा, (असपत्नः) बिना शत्रु और (सपत्नहा) शत्रुओं का मारनेवाला (असः) होवे। और आप (सजातानाम्) सजातियों के (वशी) वश में करनेवाला (असत्) होवे, (तथा) वैसा ही (त्वा) तुझको (सविता) सबका प्रेरक [परमात्मा] (करत्) बनावे, (अस्तृतः) अटूट [नियम] (त्वा) तेरी (अभि) सब ओर से (रक्षतु) रक्षा करे ॥७॥
भावार्थ
परमात्मा के वेदोक्त नियम पर चलनेवाले मनुष्य सब विघ्नों को हटाकर आनन्द से रहें ॥७॥
टिप्पणी
७−(यथा) येन प्रकारेण (त्वम्) (उत्तरः) उत्कृष्टतरः (असः) अस्तेर्लेटि रूपम्। भवेः (असपत्नः) अशत्रुः (सपत्नहा) विरोधिनां हन्ता (सजातानाम्) समानजन्मनां पुरुषाणाम् (असत्) भवेद् भवान्। भवच्छब्दयोगे प्रथमपुरुषः (वशी) वशयिता (तथा) तेन प्रकारेण (सविता) सर्वप्रेरकः परमात्मा (करत्) कुर्यात्। अन्यत् पूर्ववत् ॥
भाषार्थ
हे माण्डलिक राजन्! (यथा) जिस प्रकार (त्वम्) आप (उत्तरः) अधिक शक्तिसम्पन्न (असः) हो जाएँ, (असपत्नः) शत्रुरहित, (सपत्नहा) शत्रुविनाशक, और (सजातानाम्) समानपदवालों या सजातियों को (वशी) वश में करनेवाले (असद्) हो जाएँ, (तथा) उस प्रकार का (त्वा) आपको (सविता) सर्वोत्पादक परमेश्वर (करत्) करे। (अस्तृतः) और अपराजित महाशासक सम्राट् (त्वा) आपको (अभि) सब ओर से (रक्षतु) सुरक्षित करे।
विषय
असपत्ना:-सपत्नहा
पदार्थ
१. हे वीर्य का रक्षण करनेवाले पुरुष ! (सविता) = वह प्रेरक प्रभु (त्वा) = तुझे तथा (करत्) = वैसा बनाए, प्रेरणा द्वारा तेरे जीवन को इसप्रकार संयमवाला बनाए कि (यथा) = जिससे (त्वम्) = तू (उत्तरः अस:) = शत्रुओं के साथ संग्राम में उत्कृष्ट बने। (असपत्न:) = शत्ररहित बने। (सपत्नहा) = सब शत्रओं को समाप्त करनेवाला हो तथा (सजातानाम्) = समान कुल में उत्पन्न हुए-हुए अथवा समान आयुष्यवालों का वशी (असत्) = वश में करनेवाला हो। २. शरीर में सुरक्षित (अस्तृतः) = यह हिंसित न होनेवाले वीर्यमणि (त्वा अभिरक्षतु) = तेरा रक्षण करे। इसने ही तो तुझे सब रोगों के आक्रमण से बचाना है।
भावार्थ
प्रभु अपनी प्रेरणा द्वारा हमारे जीवन को इसप्रकार संयमवाला बनाएँ कि हम उत्कृष्टतम जीवनवाले बनें। सुरक्षित वीर्य हमें नीरोग व निर्मल बनाए। सुरक्षित वीर्य से अपने जीवन को नीरोग व निर्मल बनाकर यह ज्ञान की वाणियों के मार्ग पर चलनेवाला व्यक्ति 'गो-पथ' कहलाता है। यही अगले चार रात्रि-सूक्तों का ऋषि है -
इंग्लिश (4)
Subject
Astrta Mani
Meaning
O man, may Savita, lord of life and living inspiration, inspire and exalt you so that you rise higher and higher free from jealous adversaries, fighting out obstructions of enemies from your path, and be the organiser and controller of your equals with love and respect, and may Astrta protect you all round in your mission of life.
Translation
May the impeller Lord arrange it so that you shall be superior, having no rivals and destroyer of rivals, and exercising control over your kins; may the unsubdued protect you all around.
Translation
O man, you may be pre-eminent enemyless and the slayer of your rivals. May All-creating God make you so as you may be the controlling head of your kines-man. Let this invincible stone guard you.
Translation
May the all-mover God make thee such as thou mayst be foeless, the killer of enemies and far superior to others, and the Controller of your equals. Let the invincible commander protect thee from all sides.
Footnote
(1-7) Pt. Khem Karan Das Trivedi has interpreted अस्तृतः as unbreakable law fixed by God. Sayana and Griffith as charm and amulet, which is meaningless.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
७−(यथा) येन प्रकारेण (त्वम्) (उत्तरः) उत्कृष्टतरः (असः) अस्तेर्लेटि रूपम्। भवेः (असपत्नः) अशत्रुः (सपत्नहा) विरोधिनां हन्ता (सजातानाम्) समानजन्मनां पुरुषाणाम् (असत्) भवेद् भवान्। भवच्छब्दयोगे प्रथमपुरुषः (वशी) वशयिता (तथा) तेन प्रकारेण (सविता) सर्वप्रेरकः परमात्मा (करत्) कुर्यात्। अन्यत् पूर्ववत् ॥
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