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अथर्ववेद के काण्ड - 2 के सूक्त 5 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 5/ मन्त्र 7
    ऋषिः - भृगुराथर्वणः देवता - इन्द्रः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - इन्द्रशौर्य सूक्त
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    वृ॑षा॒यमा॑णो अवृणीत॒ सोमं॒ त्रिक॑द्रुकेषु अपिबत्सु॒तस्य॑। आ साय॑कं म॒घवा॑दत्त॒ वज्र॒मह॑न्नेनं प्रथम॒जामही॑नाम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    वृ॒ष॒ऽयमा॑न: । अ॒वृ॒णी॒त॒ । सोम॑म् । त्रिऽक॑द्रुकेषु । अ॒पि॒ब॒त् । सु॒तस्य॑ । आ । साय॑कम् । म॒घऽवा॑ । अ॒द॒त्त॒ । वज्र॑म् । अह॑न् । ए॒न॒म् । प्र॒थ॒म॒ऽजाम् । अही॑नाम् ॥५.७॥


    स्वर रहित मन्त्र

    वृषायमाणो अवृणीत सोमं त्रिकद्रुकेषु अपिबत्सुतस्य। आ सायकं मघवादत्त वज्रमहन्नेनं प्रथमजामहीनाम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    वृषऽयमान: । अवृणीत । सोमम् । त्रिऽकद्रुकेषु । अपिबत् । सुतस्य । आ । सायकम् । मघऽवा । अदत्त । वज्रम् । अहन् । एनम् । प्रथमऽजाम् । अहीनाम् ॥५.७॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 2; सूक्त » 5; मन्त्र » 7
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    मनुष्य सदैव उन्नति का उपाय करता रहे।

    पदार्थ

    (वृषायमाणः) ऐश्वर्यवाले के समान आचरण करते हुए पुरुष ने (सुतस्य) उत्पन्न संसार के (त्निकद्रुकेषु) तीन आवहनों [उत्पत्ति, स्थिति और विनाश, अथवा, शारीरिक, आत्मिक और सामाजिक उन्नति के विधानों] के निमित्तों में (सोमम्) ऐश्वर्य वा अमृत रस [कीर्त्ति] को (अवृणीत) अङ्गीकार किया और (अपिबत्) पान किया [आत्मा में दृढ़ किया]। (मघवा) उस पूजनीय पुरुष ने (सायकम्) काटनेवाले वाण वा खड्ग और (वज्रम्) वज्र हथियार को (आ अदत्त) लिया और (अहीनाम्) बड़े घातकों [प्रकाशनाशक] मेघ वा सर्परूप असुरों के बीच (प्रथमजाम्) प्रधानता से प्रसिद्ध अर्थात् अग्रगामी (एनम्) इस [समीपस्थ अर्थात् आत्मा में स्थित दुष्ट] को (अहन्) मार डाला ॥७॥

    भावार्थ

    इस सूक्त के तीन मन्त्रों में ५–७ (इन्द्र) का (अहि) के मारकर उन्नति करने का वर्णन है और मन्त्र ७ में (त्रिकद्रुकेषु) पद तीन आवाहनों का द्योतक है। इसका प्रयोजन यह है कि जैसे तपस्वी, धैर्यवान्, शूरवीर पुरुषों ने जितेन्द्रिय वशिष्ठ होकर अपने आत्मिक, कायिक और सामाजिक शत्रु कुक्रोध आदि को मारा, उन्होंने ही संसार की वृद्धि, पालन और नाश के कारण को खोजा और तीन प्रकार की आत्मिक, शारीरिक और सामाजिक उन्नति करके अमर अर्थात् महाकीर्त्तिमान् हुए, इसी प्रकार सब स्त्री-पुरुष जितेन्द्रिय होकर संसार में उन्नति करके कीर्त्ति पाकर अमर हों और आनन्द भोगें ॥७॥ इति प्रथमोनुवाकः ॥

    टिप्पणी

    ७–वृषायमाणः। इगुपधज्ञाप्रीकिरः कः। पा० ३।१।१३५। इति वृषु सेचनप्रजननैश्वर्येषु–क। कर्तुः क्यङ् सलोपश्च। पा० ३।१।११। इति आचारे क्यङ्। अकृत्सार्वधातुकयोर्दीर्घः। पा० ७।४।२५। इति दीर्घः। शानच्। वृष इव ऐश्वर्यवानिवाचरन् पुरुषः। अवृणीत। वृञ् संभक्तौ लङ्। वृतवान्, स्वीकृतवान्। सोमम्। अ० १।६।२। षु प्रसवैश्वर्ययोः–मन्। ऐश्वर्यम्। अमृतम्। कीर्त्तिम्। त्रिकद्रुकेषु। रुशातिभ्यां क्रुन्। उ० ४।१०३। इति त्रि+कदि आह्वाने–क्रुन्। समासान्तः कप् च। त्रयाणां संसारोत्पत्तिस्थितिविनाशानाम्, अथवा, शारीरिकात्मिकसामाजिकवृद्धीणां कद्रुकेषु आह्वानेषु विधानेषु निमित्तेषु। अपिबत्। पीतवान्। अनुभूतवान्। सुतस्य। षु प्रसवैश्वर्ययोः–क्त। उत्पन्नस्य संसारस्य। सायकम्। स्यति नाशयतीति सायकः। ण्वुल्तृचौ। पा० ३।१।१३३। इति षो अन्तकर्मणि–ण्वुल्, युक् आगमः। शत्रूणां घातकं वाणं खड्गं वा। मघवा। मह्यते पूज्यतेऽसौ। श्वन्नुक्षन्पूषन्०। उ० १।१५९। इति मह पूजायाम्–कनिन्। निपातनात् हस्य घः, अवुक् आगमश्च। पूज्यः पुरुषः। आ–अदत्त। लङि–रूपम्। आङो दोऽनास्यविहरणे। पा० १।३।२०। इत्यात्मनेपदम्। अगृह्णात्। स्वीकृतवान्। एनम्। समीपवर्तिनम् आत्मनि स्थितम्। प्रथमजाम्। अ० २।१।४। जन–विट्, आत्त्वं च। प्रथमेन प्रधानतया जातं प्रसिद्धम्। अहीनाम्। म० ५। आहन्तॄणाम् असुराणां मध्ये। अन्यद् गतमस्मिन्नेव सूक्ते ॥

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    विषय

    सायक 'वज्र'

    पदार्थ

    १. (वृषायमाणः) = शक्तिशाली की भाँति आचरण करता हुआ इन्द्र (सोम अवृणीत) = सोम का वरण करता है। शरीर में सोम के रक्षण से ही वह शक्तिशाली बनता है। शक्तिशाली बनने के लिए यह (सुतस्य) = शरीर में उत्पन्न हुए सोम का (त्रीकद्रूकेषु) = [कदि आह्राने] तीनों आहान कालों में तीनों प्रार्थना-समयों में अथवा जीवन-यज्ञ के तीन सवनों में (अपिबत्) = पान करता है। प्रथम चौबीस वर्षों के प्रात:सवन में, अगले चवालीस वर्षों के माध्यन्दिन सवन में, अन्तिम अड़तालीस वर्षों के सायन्तनसवन में यह इस सोम-पान का ध्यान रखता है। वीर्य का रक्षण ही इसका सोमपान है। सामान्य भाषा में यह बाल्य, यौवन और वार्धक्य-इन तीन कालों में वीर्यरक्षण का ध्यान करता है। २. (मघवा) = सोम-रक्षण से शक्तिशाली बना हुआ ज्ञानेश्वर्यशाली यह इन्द्र (सायकम्) = कामादि शत्रुओं का अन्त करनेवाले (वनम्) = क्रियाशीलतारूप वज़ को (आ अदत्त) = हाथ में ग्रहण करता है और (एनम्) = इस (अहीनाम्) = नाशक वासनाओं के (प्रथमजाम) = प्रथम स्थान में होनेवाली इस कामवासना को (अहन्) = नष्ट कर डालता है। कामवासना ही सर्वमुख्य शत्रु है। क्रियाशीलता से इसका विनाश होता है। क्रिया में लगा हुआ पुरुष इसका शिकार नहीं होता। यही इन्द्र के द्वारा वृत्र का विनाश है।

     

    भावार्थ

    सोमरक्षण से ही शक्ति प्राप्त होती है। हमें जीवन-यज्ञ के तीनों सवनों में इस सोम का पान [रक्षण] करना है। इसके लिए आवश्यक है कि सदा क्रिया में लगे रहकर हम वासना को नष्ट कर डालें।

    विशेष

    सम्पूर्ण सूक्त में सोम के रक्षण के उपायों तथा लाभों का प्रतिपादन हुआ है। इस सोम का रक्षण करनेवाला ही राष्ट्र का अधिपति बनकर राष्ट्र का सब प्रकार से रक्षण करता है। यह गतिशील होने से 'शौनक' कहलाता है।

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    भाषार्थ

    (वृषायमाणः) वर्षा करनेवाले के सदृश आचरण करते हुए इन्द्र ने (सोमम्) जल को (अवृणीत) स्वीकृत किया, (त्रिकद्रुकेषु) तीन कद्रुक स्थानों में उसने (सुतस्य) अभिषुत जल को (अपिवत्) पीया । (मघवा) इन्द्र ने (सायकम्, वज्रम्) अन्तकारी अर्थात् शत्रुघातक वज्र को (आदत्त) ग्रहण किया, और (अहीनाम्) मेघों में से (प्रथमजाम् एनम्) प्रथमोत्पन्न इस मेघ का (अहन्) उसने हनन किया। वर्षा करनेवाले हैं, वायु या विद्युत्। तद्वत् इन्द्र भी वर्षा करता है ।

    टिप्पणी

    [सोम=जल (आप्टे)। त्रिकद्रुक= त्रि + कम्१= सुखकारी + द्रु (गतौ२)+क (कृ+डः, औणादिकः); तीन सुखकारी स्थान हैं, पृथिवी, अन्तरिक्ष, द्यौः। यथा 'ज्योतिर्गोरायुरिति त्रिकद्रुकाः' आपस्तम्बः (सायण)। ज्योति:= द्यौः, गौ: (पृथिवी, निघं० १।१), आयुः, वायु:, प्राणप्रद वायु, अन्तरिक्षस्थानी। वायु में आदि वकार का लोप है सायकम् =षो अन्तकर्मणि (दिवादिः) । प्रथमजाम् = प्रथम + जन् (विट्, अष्टा० ३।२।६७ + आत्वम् (अष्टा ६।४।४१)। प्रथमजा अहि= वर्षाकाल में प्रथमोत्पन्न मेघ।] [१. कम् सुखनाम, यथा नाक पद में, कम्= सुखम् (निरुक्त २।४।१४)। २. गतौ, गमेः त्रयोऽर्था:, ज्ञानम्, गतिः, प्राप्तिः। प्राप्त्यर्थ अभिप्रेत है। पृथिवी से अन्न प्राप्त होता है, अन्तरिक्ष से प्राणप्रद वायु, द्यौ: से ताप, प्रकाश। अतः ये तीनों स्थान सुखप्रद हैं।

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    विषय

    राजा को उपदेश ।

    भावार्थ

    जिस प्रकार सूर्य ( वृषायमाणः ) स्वयं मानो वर्षण करने वाले मेघ के समान ( सोमं अवृणीत ) सोम-जल को समुद्रों से उठा लेता है और ( सुतस्य ) वाष्परूप हुए उसको ( त्रिकद्रुकेषु ) ज्योति, गौ, किरण और आयु, जीवन, वायु इन तीनों रूपों में (अपिबत्) उसका पान कर लेता है उसी प्रकार राजा भी (वृषायमाणः ) प्रजाओं में मेघ के समान सुख संपदाओं का वर्षण करनेहारे मेघ पर्जन्य का व्रत धारण करके ( सोमं ) राष्ट्रीय ऐश्वर्य को ( अवृणीत ) स्वीकार करे और उसमें से ( सुतस्य ) प्राप्त हुए कर को ( त्रिकद्रुकेषु ) ज्योति = अपना तेज, सेना, पराक्रम, गौ=पशु-वृद्धि और आयु=प्रजा के स्वास्थ्य और जीवनोपयोगी कार्य तीनों में (अपिबत्) लगादे । और जिस प्रकार (मधवा) विद्युत् (वज्रं आदत्त) वज्र को अपने भीतर धारण करती और (अहीनां) जलों के (प्रथमजां) प्रथम उत्पन्न हुए वाष्परूप मेघ को (अहन्) आघात करता है और वर्षा कर देता है उसी प्रकार (मधवा) समस्त धनों का स्वामी राष्ट्रपति ( सायकं ) शत्रु का अन्त कर देने वाले (वज्रं) वज्र=शत्रु के निवारक शस्त्र को (आदत्त) ग्रहण करता है और (अहीनां) प्रजा के घातक लोगों के (प्रथमजां) सबसे प्रथम आगे प्रकट होने वाले, उनके मुख्य २ पुरुष का ( अहन्) विनाश करता है ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    भृगुराथर्वण ऋषिः । इन्द्रो देवता। आद्यया आह्वानमपराभिश्च स्तुतिः । १ निचृदुपरिष्टाद् बृहती, २ विराडुपरिष्टाद् बृहती, ५–७ त्रिष्टुभः । ३ विराट् पथ्याबृहती । ४ जगती पुरो विराट् । सप्तर्चं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    The Ruler

    Meaning

    Indra, generous lord of showers, receives and internalises the vital essences present in three regions of the universe, heaven, earth and sky. The sun, glorious possessor of light, takes up the thunderbolt of electric energy, and strikes and breaks up the first born of the clouds of vapour. So does the ruler rule, destroys the enemies and hoarders, and releases the nation’s creativity.

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    Translation

    The powerful soul accumulated his strength in three virtuous directions - physical, mental and spiritual. He sharpened his will-power and struck the first born of the evil impulses, the sexual one. (also Rg. 1.32.3)

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    Translation

    This powerful electricity, impetuous in its operations draws the water produced by rain and drinks up into three forms-the heating up, the rarefaction and farming vapors. This mighty electricity holds its thunder-bolt and aims at main cloud of the cloud-family.

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    Translation

    Just as the Sun, like a raining cloud, takes up water from the oceans, and drinks the vapory water in its three forms, so should the king, showering happiness on the subjects, assume stately power, and spend the taxes collected, on improving his army; animals and the health of subjects. Just as lightning with its dreadful thunderbolt, attacks the first formed cloud of waters, and makes it rain, so should the king, wielding deadly instruments, kill the leader of the slaughters of his subjects. [1]

    Footnote

    [1] Three forms; Lustre, Ray, Air, i.e. ज्योति, गौ, वायु

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ७–वृषायमाणः। इगुपधज्ञाप्रीकिरः कः। पा० ३।१।१३५। इति वृषु सेचनप्रजननैश्वर्येषु–क। कर्तुः क्यङ् सलोपश्च। पा० ३।१।११। इति आचारे क्यङ्। अकृत्सार्वधातुकयोर्दीर्घः। पा० ७।४।२५। इति दीर्घः। शानच्। वृष इव ऐश्वर्यवानिवाचरन् पुरुषः। अवृणीत। वृञ् संभक्तौ लङ्। वृतवान्, स्वीकृतवान्। सोमम्। अ० १।६।२। षु प्रसवैश्वर्ययोः–मन्। ऐश्वर्यम्। अमृतम्। कीर्त्तिम्। त्रिकद्रुकेषु। रुशातिभ्यां क्रुन्। उ० ४।१०३। इति त्रि+कदि आह्वाने–क्रुन्। समासान्तः कप् च। त्रयाणां संसारोत्पत्तिस्थितिविनाशानाम्, अथवा, शारीरिकात्मिकसामाजिकवृद्धीणां कद्रुकेषु आह्वानेषु विधानेषु निमित्तेषु। अपिबत्। पीतवान्। अनुभूतवान्। सुतस्य। षु प्रसवैश्वर्ययोः–क्त। उत्पन्नस्य संसारस्य। सायकम्। स्यति नाशयतीति सायकः। ण्वुल्तृचौ। पा० ३।१।१३३। इति षो अन्तकर्मणि–ण्वुल्, युक् आगमः। शत्रूणां घातकं वाणं खड्गं वा। मघवा। मह्यते पूज्यतेऽसौ। श्वन्नुक्षन्पूषन्०। उ० १।१५९। इति मह पूजायाम्–कनिन्। निपातनात् हस्य घः, अवुक् आगमश्च। पूज्यः पुरुषः। आ–अदत्त। लङि–रूपम्। आङो दोऽनास्यविहरणे। पा० १।३।२०। इत्यात्मनेपदम्। अगृह्णात्। स्वीकृतवान्। एनम्। समीपवर्तिनम् आत्मनि स्थितम्। प्रथमजाम्। अ० २।१।४। जन–विट्, आत्त्वं च। प्रथमेन प्रधानतया जातं प्रसिद्धम्। अहीनाम्। म० ५। आहन्तॄणाम् असुराणां मध्ये। अन्यद् गतमस्मिन्नेव सूक्ते ॥

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    बंगाली (3)

    पदार्थ

    (বৃধায়মাণঃ) ঐশ্বর্যবান পুরুষ (সুতস্য) উৎপন্ন সংসারের (ত্রিকদ্রুকেষু) শারীরিক, আত্মিক ও সামাজিক উন্নতির আহ্বানে (সোমং) অমৃত রসকে (বৃণীত) বরণ করেন ও (অপিবৎ) পান করেন। (মথবা) সেই পূজনীয় পুরুষ (সায়কং) বাণ ও (বজ্রং) অস্ত্রকে (আ অদত্ত) লইয়াছেন এবং (অহীনাম্) সর্প তুল্য হিংস্র অসুরের মধ্যে (প্রথমাজাং) অগ্রণী (এনং) এই সমীপন্থ দুষ্টকে (অহন্) বধ করেন।।

    भावार्थ

    ঐশ্বর্যবান পুরুষ উত্পন্ন সংসারের শারীরিক, আত্মিক ও সামাজিক উন্নতির আহ্বানে জহানরূপ অমৃত রসকে বরণ করেন ও পান করেন। সেই পূজনীয় পুরুষ বাণ ও অস্ত্র গ্রহণ করিয়াছেন এবং সপর্বৎ হিংস্র অসুরের মধ্যে আত্মস্থ দুষ্ট শত্রুকে বধ করেন।।

    मन्त्र (बांग्ला)

    বৃষায়মাণো অবৃণীত সোমং ত্রিকদ্রুকেষ্বপিবৎসুতস্য। আ সায়কং মঘবাদত্ত বজ্রমহন্নেনং প্রথমজামহীনাম্।।

    ऋषि | देवता | छन्द

    ভৃগুরাথর্বণঃ। ইন্দ্ৰঃ। ত্রিষ্টুপ্

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    भाषार्थ

    (বৃষায়মাণঃ) বর্ষিতকারীর সদৃশ আচরণকারী ইন্দ্র (সোমম্) জলকে (অবৃণীত) স্বীকৃত করেছে, (ত্রিকদ্রুকেষু) তিনটি কদ্রুক স্থানে ইন্দ্র (সুতস্য) অভিষুত জল (অপিবৎ) পান করেছে। (মঘবা) ইন্দ্র (সায়কম্, বজ্রম্) অন্তকারী অর্থাৎ শত্রুঘাতক বজ্র (আদত) গ্রহণ করেছে এবং (অহীনাম্) মেঘসমূহের মধ্যে (প্রথমজাম্ এনম্) প্রথমোৎপন্ন এই মেঘের (অহন্) হনন করেছে। বর্ষাকারী, বায়ু বা বিদ্যুৎ। তদ্বৎ ইন্দ্র ও বর্ষা করে ।

    टिप्पणी

    [সোম=জল (আপ্টে)। ত্রিকদ্রুক= ত্রি + কম্১= সুখকারী + দ্রু (গতৌ ২)+ ক (কৃ+ ডঃ, ঔণাদিকঃ); তিনটি সুখকারী স্থান রয়েছে, পৃথিবী, অন্তরিক্ষ, দ্যৌঃ; যথা 'জ্যোতির্গৌরায়ুরিতি ত্রিকদ্রুকাঃ' আপস্তম্ব; (সায়ণ)। জ্যোতিঃ= দ্যৌঃ, গৌঃ (পৃথিবী, নিঘং০ ১।১) আয়ুঃ, বায়ুঃ, প্রাণপ্রদ বায়ু, অন্তরিক্ষস্থানী। বায়ুতে আদি বকার এর লোপ রয়েছে। সায়কম্ = ষো অন্ত-কর্মণি (দিবাদিঃ)। প্রথমজাম্ = প্রথম +জন্ (বিট্, অষ্টা০ ৩।২।৬৭)+ আত্বম্ মেঘ।] (অষ্টা০ ৬।৪।৪১)। প্রথমজা অহি= বর্ষাকালে প্রথমোৎপন্ন মেঘ।] [১. কম্ সুখনাম, যথা নাক পদে, কম্ =সুখম্ (নিরুক্ত ২।৪।১৪)। ২. গতৌ, গমেঃ ত্রয়োঽর্থাঃ, জ্ঞানম্, গতি, প্রাপ্তিঃ। প্রাপ্ত্যর্থ অভিপ্রেত হয়েছে। পৃথিবী থেকে অন্ন প্রাপ্ত হয়, অন্তরিক্ষ থেকে প্রাণপ্রদ বায়ু, দ্যৌঃ থেকে তাপ, আলো অতঃ এই তিনটি স্থান সুখপ্রদ।]

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    मन्त्र विषय

    মনুষ্যঃ সদৈবোন্নতিপ্রয়ত্নং কুর্য্যাৎ

    भाषार्थ

    (বৃষায়মাণঃ) ঐশ্বর্যবানের সমান আচরণকারী পুরুষ (সুতস্য) উৎপন্ন সংসারের (ত্নিকদ্রুকেষু) তিনটি আবহন [উৎপত্তি, স্থিতি ও বিনাশ, অথবা, শারীরিক, আত্মিক ও সামাজিক উন্নতির বিধান] এর নিমিত্তে (সোমম্) ঐশ্বর্য বা অমৃত রস [কীর্ত্তি] (অবৃণীত) অঙ্গীকার করেছে এবং (অপিবৎ) পান করেছে [আত্মায় দৃঢ় করেছে]। (মঘবা) সেই পূজনীয় পুরুষ (সায়কম্) ছেদনকারী বাণ বা খড্গ ও (বজ্রম্) বজ্র অস্ত্র (আ অদত্ত) নিয়েছে এবং (অহীনাম্) অত্যন্ত ঘাতক [প্রকাশনাশক] মেঘ বা সর্পরূপ অসুরদের মাঝে (প্রথমজাম্) প্রধানতায় প্রসিদ্ধ অর্থাৎ অগ্রগামী (এনম্) এই [সমীপস্থ অর্থাৎ আত্মায় স্থিত দুষ্ট]কে (অহন্) হনন করেছে ॥৭॥

    भावार्थ

    এই সূক্তের তিনটি মন্ত্রে ৫–৭ (ইন্দ্র) এর (অহি) এর হনন করে উন্নতি করার বর্ণনা হয়েছে এবং মন্ত্র ৭ এ (ত্রিকদ্রুকেষু) পদ তিনটি আবাহনের দ্যোতক। এর প্রয়োজন এটাই, যেমন তপস্বী, ধৈর্যবান্, বীর পুরুষরা জিতেন্দ্রিয় বশিষ্ঠ হয়ে নিজের আত্মিক, কায়িক ও সামাজিক শত্রু কুক্রোধ আদি নাশ করেছে, তাঁরাই সংসারের বৃদ্ধি, পালন ও বিনাশের কারণ অনুসন্ধান করেছে এবং তিন প্রকারের আত্মিক, শারীরিক ও সামাজিক উন্নতি করে অমর অর্থাৎ মহাকীর্ত্তিমান্ হয়েছে, এইভাবে সব স্ত্রী-পুরুষ জিতেন্দ্রিয় হয়ে সংসারে উন্নতি করে কীর্ত্তি প্রাপ্ত করে অমর হয় এবং আনন্দ ভোগ করে ॥৭॥ ইতি প্রথমোনুবাকঃ ॥

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