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अथर्ववेद के काण्ड - 20 के सूक्त 123 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 123/ मन्त्र 2
    ऋषिः - कुत्सः देवता - सूर्यः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - सूक्त-१२३
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    तन्मि॒त्रस्य॒ वरु॑णस्याभि॒चक्षे॒ सूर्यो॑ रू॒पं कृ॑णुते॒ द्योरु॒पस्थे॑। अ॑न॒न्तम॒न्यद्रुश॑दस्य॒ प्राजः॑ कृ॒ष्णम॒न्यद्ध॒रितः॒ सं भ॑रन्ति ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    तत् । मि॒त्रस्य॑ । वरु॑णस्य । अ॒भि॒ऽचक्षे॑ । सूर्य॑: । रू॒पम् । कृ॒णु॒ते॒ । द्यौ: । उ॒पऽस्थे॑ ॥ अ॒न॒न्तम् । अ॒न्यत् । रुश॑त् । अ॒स्य॒ । पाज॑: । कृ॒ष्णम् । अ॒न्यत् । ह॒रित॑: । सम् । भ॒र॒न्ति॒ ॥१२३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    तन्मित्रस्य वरुणस्याभिचक्षे सूर्यो रूपं कृणुते द्योरुपस्थे। अनन्तमन्यद्रुशदस्य प्राजः कृष्णमन्यद्धरितः सं भरन्ति ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    तत् । मित्रस्य । वरुणस्य । अभिऽचक्षे । सूर्य: । रूपम् । कृणुते । द्यौ: । उपऽस्थे ॥ अनन्तम् । अन्यत् । रुशत् । अस्य । पाज: । कृष्णम् । अन्यत् । हरित: । सम् । भरन्ति ॥१२३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 123; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    विषय

    सूर्य के काम का उपदेश।

    पदार्थ

    (तत्) उस (अनन्तम्) अनन्त [ब्रह्म] के द्वारा (द्योः) प्रकाश के (उपस्थे) गोद में (मित्रस्य) प्राण वायु और (वरुणस्य) उदान वायु के (अभिचक्षे) सब ओर देखने के लिये (सूर्यः) प्रेरणा करनेवाला सूर्यलोक (रूपम्) रूप को (कृणुते) बनाता है, (अस्य) इस [सूर्य] के (अन्यत्) एक (रुशत्) प्रकाश और (अन्यत्) दूसरे (कृष्णम्) आकर्षण (पाजः) बल को (हरितः) दिशाएँ (सम्) मिलकर (भरन्ति) धारण करती हैं ॥२॥

    भावार्थ

    परमेश्वर के नियम से सूर्यलोक अपने प्रकाश से वायु में नीचे ऊपर जाने का बल उत्पन्न करके पृथिवी आदि लोकों को सब दिशाओं में आकर्षण में रखता है ॥२॥

    टिप्पणी

    २−(तत्) तेन (मित्रस्य) प्राणस्य (वरुणस्य) उदानस्य (अभिचक्षे) चक्षिङ् दर्शने-क्विप्। संमुखदर्शनाय (सूर्यः) प्रेरकः सविता (रूपम्) चक्षुर्ग्राह्यं गुणम् (कृणुते) करोति (द्योः) प्रकाशस्य (उपस्थे) उपस्थाने मध्ये (अनन्तम्) अन्तरहितेन ब्रह्मणा (अन्यत्) एकम् (रुशत्) रुश हिंसायाम्-शतृ-रुशदिति वर्णनाम रोचतेर्ज्वलतिकर्मणः-निरु० २।२०। ज्वलितवर्णम् दीप्यमानम् (अस्य) सूर्यस्य (पाजः) बलम् (कृष्णम्) आकर्षणम् (अन्यत्) द्वितीयम् (हरितः) दिशः (सम्) एकीभूय (भरन्ति) धरन्ति ॥

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    विषय

    'अनन्त, अन्यत्, रुशत् पाज:

    पदार्थ

    । १. यह (सूर्य:) = ज्ञान-सूर्य को अपने अन्दर उदित करनेवाला व्यक्ति (द्यो:) = उस प्रकाशमय प्रभु के (उपस्थे) = समीप, अर्थात् उसकी उपासना करता हुआ (मित्रस्य) = स्नेह की भावना के तथा (वरुणस्य) = द्वेष-निवारण की भावना के (अभिचक्षे) = अपने अन्दर दर्शन के लिए (तत् रूपम्) = उस प्रकाश को अपने अन्दर (कृणुते) = करता है [रूपम् प्रज्ञाने नि० १०.१३] । प्रभु का उपासक उस प्रकाश को पाता है जो प्रकाश उसे मनुष्य की एकता का दर्शन कराता है-उस स्थिति में राग द्वेष का प्रश्न ही कहाँ? २. (अस्य) = इस ज्ञानदीप्त पुरुष का (पाज:) = बल (अनन्तम्) = बहुत अधिक होता है। (अन्यत्) = इसका बल विलक्षण ही होता है। (शत्) = इसका यह बल देदीप्यमान होता है। वस्तुत: प्रभु के सम्पर्क के कारण इसमें प्रभु की शक्ति काम करने लगती है, अत: इसकी शक्ति का असाधारण व विलक्षण प्रतीत होना स्वाभाविक है। ३. (हरित:) = इसकी ये ज्ञानरश्मियाँ (अन्यत्) = एक विलक्षण ही (कृष्णम्) = [कृष्-भूः स्वास्थ्य, न: निवृत्ति]-स्वास्थ्य व सन्तोष का (संभरन्ति) = सम्यक् भरण करनेवाली होती हैं। इस 'कुत्स' के ज्ञान-सूर्य की रश्मियों सभी को प्राणशक्ति व प्रकाश प्राप्त कराती हैं।

    भावार्थ

    हम प्रभु का उपस्थान करते हुए ज्ञान प्राप्त करें। सबके प्रति स्नेहवाले, तेजस्वी व प्रकाश फैलानेवाले बनें। प्रभु की गोद में बैठनेवाला यह उपासक स्नेह व निर्देषिता को अपनाकर 'वामदेव'-सुन्दर दिव्य गुणोंवाला बनता है। यही अगले सूक्त में १-३ का ऋषि है। लोकहित में प्रवृत्त हुआ हुआ यह सबको अपने परिवार में सम्मिलित करके 'भुवन' होता है। यही ४-६ तक मन्त्रों का ऋषि है -

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    भाषार्थ

    (सूर्यः) सूर्य (द्योः) द्युलोक की (उपस्थे) गोद में स्थित हुआ, (रूपम्) अपने रूप को (कृणुते) प्रकट करता है। यही सूर्य (मित्रस्य) दिन के और (वरुणस्य) रात्रि के (तत् रूपम्) उस-उस रूप को (अभिचक्षे) दर्शाता है। (अस्य) इस सूर्य का (पाजः) बल (अनन्तम्) असीम है। (रुशत्) चमकता दिन (अन्यत्) भिन्न है, और (कृष्णम्) काली रात्रि (अन्यत्) भिन्न है। इन दोनों को (हरितः) सूर्यरश्मियाँ, (संभरन्ति) प्रकट करती हैं, अपनी उपस्थिति तथा अनुपस्थिति द्वारा।

    टिप्पणी

    [अभिचक्षे=चक्षिङ् दर्शनेऽपि। संभरन्ति=सूर्य-रश्मियाँ अपनी उपस्थिति द्वारा दिन को परिपुष्ट (सम्+भृ) करती हैं, और ये ही रश्मियाँ जब संहृत (सम्+हृ) हो जाती हैं, तो रात्रि को प्रकट करती हैं।]

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Indra Devata

    Meaning

    The Eternal Lord, in order that Mitra and Varuna, day and night, be seen, creates light and shade and form. And so, the sun, which is light incarnate, in the close space of heaven, shows the forms of things. Endless, different and blazing is its power of one sort, while the shade of darkness is another, which the rays of the sun bear in the quarters of space.

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    Translation

    By that Infinite Suprime Spirit this sun in the lap of the sky for the appearance of night and day assumes this forms. The regions of the earth preserve two powers of this sun one luminous and other dark some (Day and night).

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    Translation

    By that Infinite Supreme Spirit this sun in the lap of the sky for the appearance of night and day assumes this forms. The regions of the earth preserve two powers of this sun, one luminous and other dark some (Day and night).

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    Translation

    We (the devotees) don’t know by what means of protection or through what sort of powerful behavior, That Wonderful Friend, Whoever pushes up our well-being and prosperity, may reveal Himself to us.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    २−(तत्) तेन (मित्रस्य) प्राणस्य (वरुणस्य) उदानस्य (अभिचक्षे) चक्षिङ् दर्शने-क्विप्। संमुखदर्शनाय (सूर्यः) प्रेरकः सविता (रूपम्) चक्षुर्ग्राह्यं गुणम् (कृणुते) करोति (द्योः) प्रकाशस्य (उपस्थे) उपस्थाने मध्ये (अनन्तम्) अन्तरहितेन ब्रह्मणा (अन्यत्) एकम् (रुशत्) रुश हिंसायाम्-शतृ-रुशदिति वर्णनाम रोचतेर्ज्वलतिकर्मणः-निरु० २।२०। ज्वलितवर्णम् दीप्यमानम् (अस्य) सूर्यस्य (पाजः) बलम् (कृष्णम्) आकर्षणम् (अन्यत्) द्वितीयम् (हरितः) दिशः (सम्) एकीभूय (भरन्ति) धरन्ति ॥

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    बंगाली (2)

    मन्त्र विषय

    সূর্যকৃত্যোপদেশঃ

    भाषार्थ

    (তৎ) সেই (অনন্তম্) অনন্ত [ব্রহ্ম] দ্বারা (দ্যোঃ) প্রকাশের (উপস্থে) কোলে (মিত্রস্য) প্রাণ বায়ু এবং (বরুণস্য) উদান বায়ুকে (অভিচক্ষে) সব দিকে দেখার জন্য (সূর্যঃ) প্রেরণাদায়ক/প্রেরক সূর্যলোক (রূপম্) রূপকে (কৃণুতে) তৈরি করে, (অস্য) এর [সূর্যের] (অন্যৎ) এক (রুশৎ) প্রকাশ এবং (অন্যৎ) অন্য/দ্বিতীয় (কৃষ্ণম্) আকর্ষণ (পাজঃ) বলকে (হরিতঃ) দিকসমূহ (সম্) একত্রে (ভরন্তি) ধারণ করে ॥২॥

    भावार्थ

    পরমেশ্বরের নিয়মে সূর্যলোক নিজের প্রকাশ দ্বারা বায়ুর মধ্যে নীচে উপরে গমনের বল উৎপন্ন করে পৃথিবী আদি লোকসমূহকে সব দিকে আকৃষ্ট করে রাখে ॥২॥

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    भाषार्थ

    (সূর্যঃ) সূর্য (দ্যোঃ) দ্যুলোকের (উপস্থে) উপস্থে/কোলে স্থিত হয়ে, (রূপম্) নিজ রূপ (কৃণুতে) প্রকট করে। এই সূর্য (মিত্রস্য) দিন এবং (বরুণস্য) রাত্রির (তৎ রূপম্) সেই-সেই রূপ (অভিচক্ষে) দর্শা /প্রদর্শিত/প্রত্যক্ষ করায়। (অস্য) এই সূর্যের (পাজঃ) বল (অনন্তম্) অনন্ত/অসীম। (রুশৎ) দীপ্যমান দিন (অন্যৎ) ভিন্ন, এবং (কৃষ্ণম্) কালো রাত্রি (অন্যৎ) ভিন্ন। এই উভয়কেই (হরিতঃ) সূর্যরশ্মি, (সম্ভরন্তি) প্রকট করে, নিজ উপস্থিতি তথা অনুপস্থিতি দ্বারা।

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