अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 133/ मन्त्र 3
निगृ॑ह्य॒ कर्ण॑कौ॒ द्वौ निरा॑यच्छसि॒ मध्य॑मे। न वै॑ कुमारि॒ तत्तथा॒ यथा॑ कुमारि॒ मन्य॑से ॥
स्वर सहित पद पाठनिगृ॑ह्य॒ । कर्ण॑कौ॒ । द्वौ । निरा॑यच्छसि॒ । मध्य॑मे ॥ न । वै । कु॒मारि॒ । तत् । तथा॒ । यथा॑ । कुमारि॒ । मन्य॑से ॥१३३.३॥
स्वर रहित मन्त्र
निगृह्य कर्णकौ द्वौ निरायच्छसि मध्यमे। न वै कुमारि तत्तथा यथा कुमारि मन्यसे ॥
स्वर रहित पद पाठनिगृह्य । कर्णकौ । द्वौ । निरायच्छसि । मध्यमे ॥ न । वै । कुमारि । तत् । तथा । यथा । कुमारि । मन्यसे ॥१३३.३॥
भाष्य भाग
हिन्दी (3)
विषय
स्त्रियों के कर्तव्य का उपदेश।
पदार्थ
(मध्यमे) हे मध्यस्थ होनेवाली ! [स्त्री] (द्वौ) दोनों (कर्णकौ) कोमल कानों को (निगृह्य) वश में करके [सुनने में लगवाकर] (निरायच्छसि) [सन्तानों को] तू नियम में चलाती है। (कुमारि) हे कुमारी ! .............. [म० १] ॥३॥
भावार्थ
माता आदि ध्यान दिलाकर बालकों को सुशिक्षा देवें, स्त्री आदि ........... [म० १] ॥३॥
टिप्पणी
भगवान् यास्क का वचन है-निरु० २।४ ॥ य आतृष्णत्यवितथेन कर्णावदुःखं कुर्वन्नमृतं सम्प्रयच्छन्। तं मन्येत पितरं मातरं च तस्मै न द्रुह्येत् कतमच्चनाह ॥ (यः) जो [आचार्य] (अदुःखं कुर्वन्) दुःख न करता हुआ, (अमृतं सम्प्रयच्छन्) अमृत देता हुआ (अवितथेन) सत्य [वेदज्ञान] से (कर्णौ) दोनों कानों को (आतृणत्ति) खोल देता है, (तम्) उसको (मातरं पितरं च) माता और पिता (मन्येत) वह [शिष्य] माने, (तस्मै) उससे (कतमच्चनाह) किसी प्रकार कभी (न द्रुह्येत्) बुराई न करे ॥ ३−(निगृह्य) वशीकृत्य (कर्णकौ) अनुकम्पायाम्-कन्। कोमलकर्णौ (द्वौ) (निरायच्छसि) निश्चयेन समन्तात् नियमयसि (मध्यमे) हे मध्यभवे स्त्रि। अन्यत् म० १ ॥
विषय
दो कर्णकों [विक्षेपों] का निग्रह
पदार्थ
१. तमोगुण के विक्षेपों के कारण मनुष्य 'प्रमाद-आलस्य व निद्रा' की ओर झुक जाता है। राजस् विक्षेप इसे अर्थप्रधान बनाकर हर समय भगदौड़ में रखते हैं। इन (द्वौ) = दोनों ही (कर्णणौ) = [क विक्षेपे]-विक्षेपों को (निगृहा) = निगृहीत करके-रोककर तमोगुण के आलस्य व रजोगुण की भगदौड़ के (मध्यमे) = मध्य में होनेवाले सात्त्विक गति-सम्पन्न स्वर्णीय मध्यमार्ग में (निरायच्छसि) = तू अपने को संयत करता है। २. हे कुमारि-संसार के विषयों में क्रीड़ा करनेवाले जीव! यह तू समझ ले कि (वै) = निश्चय से (तत्) = वह (तथा न) = वैसे नहीं है, हे कुमारि! (यथा मन्यसे) = जैसे तू इस संसार को मानती है।
भावार्थ
तमोगुण व रजोगुण के विक्षेपों से ऊपर उठकर हम सदा मध्यम सात्त्विक मार्ग पर चलनेवाले बनें। संसार के तत्त्व को समझें।
भाषार्थ
हे कुमारी! (द्वौ) दोनों (कर्णकौ) विक्षेपकों अर्थात् रजस् और तमस् का (निगृह्य) निग्रह करके, उन्हें (मध्यमे) मध्यम मार्ग में तू (निरायच्छसि) नियमन करना मानती है—(कुमारि) हे कुमारि! (वै) निश्चय से (तत्) वह तेरा कथन या मानना (न तथा) तथ्य नहीं है, (यथा) जैसे कि (कुमारि) हे कुमारी! (मन्यसे) तू मानती है।
टिप्पणी
[कर्णकौ=किरणौ (कॄ विक्षेपे), किरति विक्षिपतीति कर्णः (उणादि कोष ३.१०)। मध्यमे=जीवन का मध्यम मार्ग है—“त्यागपूर्वक भोग”। यथा—“तेन त्यक्तेन भुञ्जीथाः मा गृधः” (यजुः০ ४०.१)। अर्थात् न संसार में लिप्त होना और न योग के वैराग्य और अभ्यास-मार्ग का अवलम्बन करना। मन्त्र का अभिप्राय है कि इस मध्यम मार्ग द्वारा जीवन तो सुखी हो सकता है, परन्तु इस मार्ग द्वारा न तो चित्तवृत्तिनिरोध सम्भव है, और न कैवल्य-प्राप्ति। मध्यमार्ग के लिए देखो—(योग १.३३)। मध्यमे= moderate life।]
इंग्लिश (4)
Subject
Kumari
Meaning
Having controlled the two flows when you restrict them somewhere in the middle, even then you continue the involvement. Release and freedom, innocent maiden, is not as you think and believe.
Translation
O Divine Power, you are an intermediate agency (Madhyame). You keeping them under your control unite two Karuakau, the causes (soul and matter) together. O maiden fancy.
Translation
O Divine Power, you are an intermediate agency (Madhyame). You keeping them under your control unite two Karuakau, the causes (soul and matter) together. O maiden... fancy.
Translation
O Intervening Power of God, All-pervading, controlling both the creative parts of the above-mentioned pairs. Thou completely binds them together by forces of attraction and affection. O virgin,. . . . it. (as above).
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
भगवान् यास्क का वचन है-निरु० २।४ ॥ य आतृष्णत्यवितथेन कर्णावदुःखं कुर्वन्नमृतं सम्प्रयच्छन्। तं मन्येत पितरं मातरं च तस्मै न द्रुह्येत् कतमच्चनाह ॥ (यः) जो [आचार्य] (अदुःखं कुर्वन्) दुःख न करता हुआ, (अमृतं सम्प्रयच्छन्) अमृत देता हुआ (अवितथेन) सत्य [वेदज्ञान] से (कर्णौ) दोनों कानों को (आतृणत्ति) खोल देता है, (तम्) उसको (मातरं पितरं च) माता और पिता (मन्येत) वह [शिष्य] माने, (तस्मै) उससे (कतमच्चनाह) किसी प्रकार कभी (न द्रुह्येत्) बुराई न करे ॥ ३−(निगृह्य) वशीकृत्य (कर्णकौ) अनुकम्पायाम्-कन्। कोमलकर्णौ (द्वौ) (निरायच्छसि) निश्चयेन समन्तात् नियमयसि (मध्यमे) हे मध्यभवे स्त्रि। अन्यत् म० १ ॥
बंगाली (2)
मन्त्र विषय
স্ত্রীণাং কর্তব্যোপদেশঃ
भाषार्थ
(মধ্যমে) হে মধ্যস্থ! [স্ত্রী] (দ্বৌ) উভয় (কর্ণকৌ) কোমল কানকে (নিগৃহ্য) বশীভূত করে [শ্রবণের কাজে প্রয়োগ করে] (নিরায়চ্ছসি) [সন্তানদের] তুমি নিয়মের মধ্যে চালিত করো। (কুমারি) হে কুমারী! .............. [ম০ ১] ॥৩॥
भावार्थ
মাতা আদি মনোযোগপূর্বক সন্তানদের সুশিক্ষা দান করুক, স্ত্রী আদি........... [ম০ ১] ॥৩॥ ভগবান্ যাস্কের বচন-নিরু০ ২।৪ ॥ য আতৃষ্ণত্যবিতথেন কর্ণাবদুঃখং কুর্বন্নমৃতং সম্প্রয়চ্ছন্। তং মন্যেত পিতরং মাতরং চ তস্মৈ ন দ্রুহ্যেৎ কতমচ্চনাহ ॥ (যঃ) যিনি [আচার্য] (অদুঃখং কুর্বন্) দুঃখ করে না, (অমৃতং সম্প্রয়চ্ছন্) অমৃত প্রদান করে (অবিতথেন) সত্য [বেদজ্ঞান] দ্বারা (কর্ণৌ) দুই কানকে (আতৃণত্তি) উন্মুক্ত করে, (তম্) তাঁকে (মাতরং পিতরং চ) মাতা এবং পিতা (মন্যেত) তাঁকে [শিষ্য] মানে, (তস্মৈ) তাঁর সঙ্গে (কতমচ্চনাহ) কোনো প্রকার কখনও (ন দ্রুহ্যেৎ) কুকর্ম/কুচিন্তা না করে ॥
भाषार्थ
হে কুমারী! (দ্বৌ) দুই (কর্ণকৌ) বিক্ষেপক অর্থাৎ রজস্ এবং তমস্-এর (নিগৃহ্য) নিগ্রহ করে, (মধ্যমে) মধ্যম মার্গে তুমি (নিরায়চ্ছসি) নিয়মন করা মান্য/মনে করো—(কুমারি) হে কুমারি! (বৈ) নিশ্চিতরূপে (তৎ) সেই তোমার কথন বা মান্যতা (ন তথা) তথ্য নয়, (যথা) যেমন (কুমারি) হে কুমারী! (মন্যসে) তুমি মান্য করো।
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