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अथर्ववेद के काण्ड - 20 के सूक्त 42 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 42/ मन्त्र 3
    ऋषिः - कुरुसुतिः देवता - इन्द्रः छन्दः - गायत्री सूक्तम् - सूक्त-४२
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    उ॑त्तिष्ठ॒न्नोज॑सा स॒ह पी॒त्वी शिप्रे॑ अवेपयः। सोम॑मिन्द्र च॒मू सु॒तम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उ॒त्ऽतिष्ठ॑न् । ओज॑सा । स॒ह । पी॒त्वी । शिप्र इति॑ । अ॒वे॒प॒य॒: ॥ सोम॑म् । इ॒न्द्र॒ । च॒मू इति॑ । सु॒तम् ॥४२.३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उत्तिष्ठन्नोजसा सह पीत्वी शिप्रे अवेपयः। सोममिन्द्र चमू सुतम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    उत्ऽतिष्ठन् । ओजसा । सह । पीत्वी । शिप्र इति । अवेपय: ॥ सोमम् । इन्द्र । चमू इति । सुतम् ॥४२.३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 42; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    विषय

    मनुष्य के कर्तव्य का उपदेश।

    पदार्थ

    (इन्द्र) हे इन्द्र ! [बड़े ऐश्वर्यवाले मनुष्य] (ओजसा सह) पराक्रम के साथ (उत्तिष्ठन्) उठते हुए तूने (चमू) चमसे में (सुतम्) सिद्ध किया हुआ (सोमम्) सोम [अन्न आदि महौषधियों का रस] (पीत्वी) पीकर (शिप्रे) दोनों जबड़ों को (अवेपयः) हिलाया है ॥३॥

    भावार्थ

    जैसे प्राणी दाँतों को चलाकर अन्न आदि खा आनन्द पाते हैं, वैसे ही मनुष्य बल पराक्रम करके अभीष्ट फल प्राप्त करें ॥३॥

    टिप्पणी

    ३−(उत्तिष्ठन्) ऊर्ध्वं गच्छन् (ओजसा) बलेन (सह) (पीत्वी) अ० २०।६।७। पीत्वा (शिप्रे) अ० २०।३१।४। हनू (अवेपयः) अकम्पयः चालितवानसि (सोमम्) अन्नादिमहौषधिरसम् (चमू) सुपां सुलुक्०। पा० ७।१।३९। सप्तम्याः पूर्वसवर्णः। चम्वाम्। भोजनपात्रे। चमसे (सुतम्) संस्कृतम् ॥

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    विषय

    शिप्रे अवेपयः

    पदार्थ

    १. हे (इन्द्र) = जितेन्द्रिय पुरुष! तू (चमू सतम्) = [चम्वोः द्यावापृथियो:] शरीर व मस्तिष्क के निमित्त उत्पन्न किये गये (सोमम्) = सोम को-वीर्यशक्ति को (पीत्वी) = अपने अन्दर ही पीकर (ओजसा सह) = ओजस्विता के साथ (उत्तिष्ठन्) = उन्नत होता हुआ (शिप्रे अवेपय:) = शत्रुओं के जबड़ों को कम्पित कर देता है। २. सोम-रक्षण से शरीर में शक्ति तथा मस्तिष्क में ज्ञानदीति का निवास होता है। इसी स्थिति में हम शत्रुओं से पराभूत नहीं होते।

    भावार्थ

    सोम-रक्षण द्वारा शक्ति व ज्ञानदीप्ति को प्राप्त करके उन्नत होते हुए हम शत्रुओं को कम्पित करनेवाले हों। सब शत्रुओं को कम्पित करनेवाला यह व्यक्ति-'शरीर, मन व मस्तिष्क' तीनों को दीप्त करके 'त्रिशोक' बनता है। अगला सूक्त इस त्रिशोक का ही है -

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    भाषार्थ

    (इन्द्र) इन्द्रियों के अधिष्ठाता हे जीवात्मन्! (चमू सुतम्) अपने सिर से लेकर पैरों तक में प्रकट हुए। (सोमम्) भक्तिरस को (पीत्वी) पीकर, (ओजसा सह) अपने आध्यात्मिक ओज के साथ (उत्तिष्ठन्) उत्त्थान अर्थात् उन्नति करते हुए तूने (शिप्रे) अध्यात्म-द्वेषी व्यक्तियों के चेहरों को (अवेपयः) कम्पित कर दिया है।

    टिप्पणी

    [चमू=द्युलोक तथा पृथिवीलोक। अध्यात्म में सिर तथा पैर। ‘शीर्ष्णो द्यौः समवर्त्तत। पद्भ्यां भूमिः’ (यजुः০ ३१.१३)।]

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Indra Devata

    Meaning

    I study, measure, develop and pray for language revealed in eight works, i.e., four Vedas and four Upavedas, spoken across four classes of humanity and through four stages of the individual’s development from birth to death, developing over nine blooming branches like flower garlands across nine regions of the earth, ultimately touching the truth of divine reality, the Word Imperishable descended from and ascending to Indra, lord of omniscience across the countless branches of dialects and structures.

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    Translation

    O Almighty God, like a man who drinking juice of Soma pressed shakes his jaws so you with your power lifting them in space shake the sun and earth.

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    Translation

    O Almighty God, like a man who drinking juice of Soma pressed shakes his jaws so you with your power lifting them in space shake the sun and earth.

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    Translation

    O mighty king, having acquired the state of plenty and prosperity through the struggle between thy armies and those of the foe, mobilise the forces with your prowess and valour. Or O soul, having drunk deep the divine nectar through deep meditation by the help of Prana and Apana, the vital breaths, rising higher and higher on the path of salvation, through Power of knowledge shake off the internal and external ties of actions.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ३−(उत्तिष्ठन्) ऊर्ध्वं गच्छन् (ओजसा) बलेन (सह) (पीत्वी) अ० २०।६।७। पीत्वा (शिप्रे) अ० २०।३१।४। हनू (अवेपयः) अकम्पयः चालितवानसि (सोमम्) अन्नादिमहौषधिरसम् (चमू) सुपां सुलुक्०। पा० ७।१।३९। सप्तम्याः पूर्वसवर्णः। चम्वाम्। भोजनपात्रे। चमसे (सुतम्) संस्कृतम् ॥

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    बंगाली (2)

    मन्त्र विषय

    মনুষ্যকৃত্যোপদেশঃ

    भाषार्थ

    (ইন্দ্র) হে ইন্দ্র! [পরম ঐশ্বর্যবান্ মনুষ্য] (ওজসা সহ) পরাক্রমপূর্বক (উত্তিষ্ঠন্) উত্থায়মান তুমি (চমূ) চমস দ্বারা (সুতম্) সিদ্ধকৃত (সোমম্) সোম [অন্নাদি মহৌষধির রস] (পীত্বী) পান করে (শিপ্রে) উভয় চোয়ালকে (অবেপয়ঃ) চালিত করেছ ॥৩॥

    भावार्थ

    যেভাবে প্রাণী দন্ত চালনা করে অন্নাদি খেয়ে আনন্দ লাভ করে, সেভাবেই মনুষ্য বলপরাক্রম করে অভীষ্ট ফল প্রাপ্ত করে/করুক ॥৩॥

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    भाषार्थ

    (ইন্দ্র) ইন্দ্রিয়-সমূহের অধিষ্ঠাতা হে জীবাত্মন্! (চমূ সুতম্) নিজের মস্তক থেকে পা পর্যন্ত প্রকটিত। (সোমম্) ভক্তিরস (পীত্বী) পান করে, (ওজসা সহ) নিজ আধ্যাত্মিক ওজ-এর সাথে (উত্তিষ্ঠন্) উত্থান অর্থাৎ উন্নতি করে তুমি (শিপ্রে) আধ্যাত্ম-দ্বেষী ব্যক্তিদের (অবেপয়ঃ) কম্পিত করে দিয়েছ।

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