अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 84/ मन्त्र 3
इन्द्रा या॑हि॒ तूतु॑जान॒ उप॒ ब्रह्मा॑णि हरिवः। सु॒ते द॑धिष्व न॒श्चनः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठइन्द्र॑ । आ । या॒हि॒ । तूतु॑जान: । उप॑ । ब्रह्मा॑णि । ह॒रि॒ऽव॒: ॥ सु॒ते । द॒धि॒ष्व॒ । न॒: । चन॑: ॥८४.३॥
स्वर रहित मन्त्र
इन्द्रा याहि तूतुजान उप ब्रह्माणि हरिवः। सुते दधिष्व नश्चनः ॥
स्वर रहित पद पाठइन्द्र । आ । याहि । तूतुजान: । उप । ब्रह्माणि । हरिऽव: ॥ सुते । दधिष्व । न: । चन: ॥८४.३॥
भाष्य भाग
हिन्दी (3)
विषय
सभापति के कर्तव्य का उपदेश।
पदार्थ
(हरिवः) हे उत्तम मनुष्योंवाले (इन्द्र) इन्द्र ! [बड़े ऐश्वर्यवाले राजन्] (तूतुजानः) शीघ्रता करता हुआ तू (ब्रह्माणि) धनों को (उप) प्राप्त होकर (आ याहि) आ। और (सुते) सिद्ध किये हुए तत्त्वरस में (नः) हमारे लिये (चनः) अन्न को (दधिष्व) धारण कर ॥३॥
भावार्थ
जो मनुष्य उत्तम विद्वानों के साथ रहकर धर्म से धन प्राप्त करते हैं, वे ही दूसरों को ज्ञानी और धनी बनाकर यश पाते हैं ॥३॥
टिप्पणी
३−(इन्द्र) (आ याहि) (तूतुजानः) अ० २०।३।१२। त्वरमाणः (उप) उपेत्य (ब्रह्माणि) धनानि (हरिवः) हे प्रशस्तमनुष्ययुक्त (सुते) निष्पादिते तत्त्वरसे (दधिष्व) अ० २०।६।। धत्स्व। धारय (नः) अस्मान् (चनः) चायतेरन्ने ह्रस्वश्च। उ० ४।२००। चायृ पूजादौ-असुन् चकाराद् नुडागमो यलोपो ह्रस्वश्च। चन इत्यन्ननाम निरु० ६।१६। अन्नम्-निघ० ४।३ ॥
विषय
सात्त्विक अन्न सेवन
पदार्थ
१. हे (इन्द्र) = जितेन्द्रिय पुरुष! तू (तूतुजान:) = शीघ्रता करता हुआ अथवा [तुन् हिंसायाम्] सब वासनाओं की हिंसा करता हुआ (आयाहि) = मेरे समीप प्राप्त हो। हे (हरिवः) = प्रशस्त इन्द्रियरूप घोड़ोंवाले! तू (ब्रह्माणि उप) = सदा ज्ञानों के समीप रहनेवाला हो-ज्ञान-प्राप्ति की रुचिवाला बन । इस ज्ञान के द्वारा ही तू वासनाओं को दग्ध करके पवित्र हृदय में प्रभु का दर्शन कर पाएगा। २. (सुते) = सोम की उत्पत्ति के निमित्त (न:) = हमारे दिये हुए (चन:) = इस अन्न को (दधिष्व) = तू धारण करनेवाला बन। यह अन्न ही तेरा भोजन हो। मांस की ओर तेरा झकाव न हो जाए। मांस भोजन से राजसवृत्तिवाला बनकर तू विषयों की ओर झुक जाएगा।
भावार्थ
हम सात्त्विक भोजन करें। सात्त्विक भोजन से सात्त्विक बुद्धिवाले बनें। सात्त्विक बुद्धि से दीप्स ज्ञानाग्निवाले बनकर वासनाओं को दग्ध कर दें, तभी हम प्रभु-दर्शन कर पाएंगे। सात्त्विक अन्न से सात्विक बुद्धिवाला बनकर यह प्रभु का गायन करनेवाला 'प्रगाथ' होता है तथा यह मनुष्य 'मेधातिथि' बनता है-बुद्धि की ओर चलनेवाला । सात्त्विक बुद्धिवाला बनकर यह 'मेध्य' प्रभु की ओर चलनेवाला मेधातिथि बनता है। ये ही अगले सूक्त के ऋषि हैं -
भाषार्थ
(इन्द्र) हे परमेश्वर! आप (आ याहि) प्रकट हूजिए। (तूतुजानः) शीघ्रता कीजिए। (हरिवः) हे दुःख हरनेवाले! (ब्रह्माणि) ब्राह्मीस्तुतियों के (उप) समीप प्रकट हूजिए। और (नः) हमारी (सुते) सन्तानों में (चनः) आध्यात्मिक अन्न, अर्थात् श्रद्धा भक्ति उपासना आदि (दधिष्व) स्थापित कीजिए।
टिप्पणी
[तूतुजानः=क्षिप्र नाम (निघं০ २.१५)। चनः=भक्तम्, अन्नम् (उणा০ कोष ४.२००)।]
इंग्लिश (4)
Subject
Indra Devata
Meaning
Indra, lord and breath of life, energy and speech, come fast at the speed of light, vitalise our songs of praise in yajna and bless us with food for the body, mind and soul.
Translation
O Almighty Divinity, O Lord of men and luminous bodies, You speed up the working forces. You accept our prayers and give us grain etc. in this world.
Translation
O Almighty Divinity, O Lord of men and luminous bodies, You speed up the working forces. You accept our prayers and give us grain etc. in this world.
Translation
O Mighty Lord of mobile forces, like the sun and the energetic learned persons, being most energetic Thyself, accept our Vedic songs and invest us with food and fortunes in this created world.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
३−(इन्द्र) (आ याहि) (तूतुजानः) अ० २०।३।१२। त्वरमाणः (उप) उपेत्य (ब्रह्माणि) धनानि (हरिवः) हे प्रशस्तमनुष्ययुक्त (सुते) निष्पादिते तत्त्वरसे (दधिष्व) अ० २०।६।। धत्स्व। धारय (नः) अस्मान् (चनः) चायतेरन्ने ह्रस्वश्च। उ० ४।२००। चायृ पूजादौ-असुन् चकाराद् नुडागमो यलोपो ह्रस्वश्च। चन इत्यन्ननाम निरु० ६।१६। अन्नम्-निघ० ४।३ ॥
बंगाली (2)
मन्त्र विषय
সভাপতিকর্তব্যোপদেশঃ
भाषार्थ
(হরিবঃ) হে উত্তম মনুষ্যযুক্ত (ইন্দ্র) ইন্দ্র ! [মহান ঐশ্বর্যবান্ রাজন্] (তূতুজানঃ) অতি শীঘ্রই তুমি (ব্রহ্মাণি) ধনাদি (উপ) প্রাপ্ত হয়ে (আ যাহি) এসো। এবং (সুতে) সিদ্ধকৃত তত্ত্বরসে (নঃ) আমাদের জন্য (চনঃ) অন্ন (দধিষ্ব) ধারণ করো॥৩॥
भावार्थ
যারা উত্তম বিদ্বানদের সঙ্গ করে ধার্মাচরণপূর্বক / সৎ উপায়ে ধন প্রাপ্ত করে, তাঁরাই অন্যকে জ্ঞানী ও ধনবান করে যশ প্রাপ্ত হয় ॥৩॥
भाषार्थ
(ইন্দ্র) হে পরমেশ্বর! আপনি (আ যাহি) প্রকট হন। (তূতুজানঃ) শীঘ্রতা করুন। (হরিবঃ) হে দুঃখ হরণকারী! (ব্রহ্মাণি) ব্রাহ্মীস্তুতির (উপ) সমীপে প্রকট হন। এবং (নঃ) আমাদের (সুতে) সন্তানদের মধ্যে (চনঃ) আধ্যাত্মিক অন্ন, অর্থাৎ শ্রদ্ধা ভক্তি উপাসনাআদি (দধিষ্ব) স্থাপিত করুন।
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