अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 18/ मन्त्र 1
इ॒मां ख॑ना॒म्योष॑धिं वी॒रुधां॒ बल॑वत्तमाम्। यया॑ स॒पत्नीं॒ बाध॑ते॒ यया॑ संवि॒न्दते॒ पति॑म् ॥
स्वर सहित पद पाठइ॒माम् । ख॒ना॒मि॒ । ओष॑धिम् । वी॒रुधा॑म् । बल॑वत्ऽतमाम् । यया॑ । स॒ऽपत्नी॑म् । बाध॑ते । यया॑ । स॒म्ऽवि॒न्दते॑ । पति॑म् ॥१८.१॥
स्वर रहित मन्त्र
इमां खनाम्योषधिं वीरुधां बलवत्तमाम्। यया सपत्नीं बाधते यया संविन्दते पतिम् ॥
स्वर रहित पद पाठइमाम् । खनामि । ओषधिम् । वीरुधाम् । बलवत्ऽतमाम् । यया । सऽपत्नीम् । बाधते । यया । सम्ऽविन्दते । पतिम् ॥१८.१॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
ब्रह्मविद्या की सपत्नी अविद्या के नाश का उपदेश।
पदार्थ
(वीरुधाम्) उगती हुई लताओं [सृष्टि के पदार्थों] में (इमाम्) इस (बलवत्तमाम्) बड़ी बलवाली (ओषधिम्) रोगनाशक ओषधि [ब्रह्मविद्या] को (खनामि) मैं खोदता हूँ, (यया) जिस [ओषधि] से [प्राणी] (सपत्नीम्) विरोधिनी [अविद्या] को (बाधते) हटाता है, और (यया) जिससे (पतिम्) सर्वरक्षक वा सर्वशक्तिमान् परमेश्वर को (संविन्दते) यथावत् पाता है ॥१॥
भावार्थ
मनुष्य ब्रह्मविद्या परिश्रमपूर्वक प्राप्त करें। ईश्वर ज्ञान से ही विज्ञान बढ़कर मिथ्या ज्ञान का नाश होकर परम ऐश्वर्य वा मोक्ष मिलता है ॥१॥ यह सूक्त कुछ भेद से ऋग्वेद म० १०।१४५।१-६ में है। अजमेर वैदिक यन्त्रालय की ऋग्वेदसंहिता, मोहमयी [मुम्बई] की शाकलऋक्संहिता, और ऋग्वेदीय सायणभाष्य में “उपनिषत्सपत्नीबाधनम्” इस सूक्त का देवता लिखा है, इससे इस सूक्त में ब्रह्मविद्या का ही उपदेश है ॥
टिप्पणी
१−(इमाम्) प्रत्यक्षाम्। (खनामि) खनु विदारे। खननेन अन्वेषणेन संपादयामि। (ओषधिम्) अ० १।२३।१। रोगनाशिकां ब्रह्मविद्याम्। (वीरुधाम्) अ० १।३२।१। विरोहणशीलानां लतारूपानां प्रजानां मध्ये। (बलवत्तमाम्) बलवत्-तमप्, टाप्। अतिशयेन बलवतीम्। (यया) ओषध्या। (सपत्नीम्) सर्वधातुभ्य इन्। उ० ४।११८। इति समान+पत्लृ अधोगतौ-इन्। नित्यं सपत्न्यादिषु। पा० ४।१।३५। इति ङीप् नकारान्तादेशश्च। समानपातनशीलम्। ब्रह्मविद्याविरोधिनीम्। अविद्याम्। (बाधते) विहन्ति। (संविन्दते) सम्यक् लभते। (पतिम्) पातेर्डतिः। उ० ४।५७। इति पा रक्षणे डति। यद्वा। सर्वधातुभ्य इन्। उ० ४।११८। इति पत ऐश्ये-इन्। सर्वरक्षकम्। ऐश्वर्यवन्तं परमेश्वरम् ॥
विषय
आत्मविद्यारूप ओषधि
पदार्थ
१. (इमाम्) = इस (ओषधिम्) = दोषों का दहन करनेवाली आत्मविद्या को (खनामि) = अत्यन्त श्रम के द्वारा आचार्य से प्रास करता हूँ। यह ओषधि (वीरुधाम्) = वीरुधा है-विशेषरूप से मेरा रोहण [विकास] करनेवाली है, (बलवत्तमाम्) = मुझे अतिशयित बल प्राप्त करानेवाली है, अथवा यह अन्य ओषधियों से बलवत्तमा है-सर्वाधिक बलवाली है। २. यह आत्मविद्या वह है (यया) = जिससे (सपत्नीम्) = इन्द्राणी की सपत्नीरूप भोगवृत्ति को (बाधते) = दूर रोका जाता है, (यया) = जिसके द्वारा (पतिं संविन्दते) = सर्वरक्षक पतिरूप प्रभु को प्राप्त किया जाता है। आत्मविद्या द्वारा भोगवृत्ति के विनष्ट होने पर हम परमात्मा को प्राप्त करते हैं।
भावार्थ
हम आचार्य से आत्मविद्या को प्राप्त करके भोगवृत्ति को अपने से दूर करें तभी हम योगवृत्ति को अपनाकर प्रभुरूप पति को प्राप्त करेंगे।
भाषार्थ
(वीरुधां बलवत्तमाम) विरोहणशील औषधियों में अतिशय बलवाली (इमाम) इस (ओषधिम) औषधि को (खनामि) खोदकर मैं निकालती हूँ, (यया) जिस द्वारा (सपत्नीम्) सपत्नी को [उत्तरा कुमारी, मन्त्र ४] (बाधते) हटाती है और (यया) जिस द्वारा वह (पतिम्) पति को (संविन्दते) सम्यक् विधि१ से प्राप्त करती है।
टिप्पणी
[विवाह विधि से]
भावार्थ
इन्द्राणी ऋषिका । उपनिषत्सपत्नीबाधनं देवता । उपनिषद् ब्रह्मविद्या की सपत्नी अविद्या है उसको बाधन=विनाश करने का उपदेश व्यावहारिक सपत्नी के विरोध के दृष्टान्त से स्पष्ट करते हैं। (इमां) इस (ओषधिं) पाप दहन करने के सामर्थ्य वाली (वीरुधां) नाना प्रकार से या विशेष सामर्थ्य से अज्ञान की विरोधिनी, स्वतः उत्पन्न होनेहारी (बलवत्तमाम्) अति वीर्यवती ओषधि के समान इस ऋतम्भरा प्रज्ञा को (खनामि) खोदता हूं, योगसाधनों से प्राप्त करता हूं, (यया) जिससे (सपत्नीं) अपने पति हृदयेश्वर आत्मा पर अपना अधिकार जमाने वाली अविद्या को (बाधते) विनाश किया जाता है और (यया) जिसके बल पर (पतिं) उस पालक प्रभु परमेश्वर को (सं-विन्दते) प्राप्त किया जाता है । दृष्टान्त में सर्वांग साम्य आवश्यक नहीं है। यहां केवल जिस प्रकार सौत को सौत परे हटाती है उसी प्रकार अविद्या को विद्या परे हटावे, यही साम्य है ओषधि के प्रयोगांश में समानता नहीं, प्रत्युत बाधनांश में समानता है।
टिप्पणी
ऋग्वेदे इन्द्राणी ऋषिः। उपनिषत्सपत्नीबाधनं देवता। १-‘वीरुधं’ इति पाठभेदः ऋ०। (च०) ‘कुणुने केवलं पतिम्’ इति पैप्प० सं० ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अथर्वा ऋषिः । वनस्पतिर्देवता । १-३, ५ अनुष्टुभः । ४ चतुष्पदा अनुष्टुप्-गर्भा उष्णिग् । १ उष्णिग् गर्भा पथ्यापंक्तिः। षडृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Vanaspati
Meaning
The theme of this hymn on the surface seems to be getting rid of a co-wife or a mistress, for which the speaker takes recourse to either a magic spell or a magical herb. But this does not do justice to the deeper meaning of the hymn. The theme is integration, and still better, the reimtegration of a divided, disintegrated, distracted, addicted, schizophrenic personality. The cure of split personality can be both herbal and psychological. The word ‘upanishat’, ‘upadha’ helps us to read the hymn in this direction of practical yoga in which sanative herbs, mental concentration and spiritual faith, all play an important role. I dig out this luxuriant and most powerful herb by which one can annul a rival fascination and recover a single, united mind and personality with one all- absorbing love and interest.
Subject
Vanaspati - Vanaparni
Translation
I hereby dig up this herb, most potent among creepers, with which one repelis the rival wife (sapatnī) and with which one wins the husband for herself alone. (osadhi = drug; virudha = drug in the form of a creeper) (Cf.Rv. X.145.1)
Translation
[N.B. Here in this hymn we find the description of Banaparni, a creeping herbaceous plant. It is used to control the passion. To be too passionate is a gross evil. A house-holder having sexual intercourse with his wife in normal prescribed way is called celibate inspite of his being a bouse-holding man. To be under control and satisfied with his own married wife is Patnivrata. To break this rule and fall in the habit of debauchery is called Sapatnata. By keeping celibacy intact one can overcome debauchery. To maintain this position Banaparni is an effective medicine. Therefore, it has been called the medicine of removing Sapatnata.] I dig out of earth this plant (Banaparni) which has most effective power among others and wherewith one quells the debauchery and wherewith gains the favor of one’s own husband.
Translation
I search for this intellect efficacious like medicine, foe to ignorance, and competent to suppress sin. Wherewith one quells nescience that overpowers the soul, and wherewith one gains God, the Lord.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
१−(इमाम्) प्रत्यक्षाम्। (खनामि) खनु विदारे। खननेन अन्वेषणेन संपादयामि। (ओषधिम्) अ० १।२३।१। रोगनाशिकां ब्रह्मविद्याम्। (वीरुधाम्) अ० १।३२।१। विरोहणशीलानां लतारूपानां प्रजानां मध्ये। (बलवत्तमाम्) बलवत्-तमप्, टाप्। अतिशयेन बलवतीम्। (यया) ओषध्या। (सपत्नीम्) सर्वधातुभ्य इन्। उ० ४।११८। इति समान+पत्लृ अधोगतौ-इन्। नित्यं सपत्न्यादिषु। पा० ४।१।३५। इति ङीप् नकारान्तादेशश्च। समानपातनशीलम्। ब्रह्मविद्याविरोधिनीम्। अविद्याम्। (बाधते) विहन्ति। (संविन्दते) सम्यक् लभते। (पतिम्) पातेर्डतिः। उ० ४।५७। इति पा रक्षणे डति। यद्वा। सर्वधातुभ्य इन्। उ० ४।११८। इति पत ऐश्ये-इन्। सर्वरक्षकम्। ऐश्वर्यवन्तं परमेश्वरम् ॥
बंगाली (2)
भाषार्थ
(বীরুধাং বলবত্তমাম্) বিরোহণশীল ঔষধিসমূহের মধ্যে অতিশয় বলবতী (ইমাম্) এই (ওষধিম্) ঔষধিকে (খনামি) খনন করে আমি বের করি, (যয়া) যা দ্বারা (স্বপত্নীম্) সপত্নীকে [উত্তরা কুমারী, মন্ত্র ৪] (বাধতে) সরিয়ে দেয়/দূর করে এবং (যয়া) যা দ্বারা সে (পতিম্) পতিকে (সংবিন্দতে) সম্যক্ বিধি দ্বারা১ প্রাপ্ত করে।
टिप्पणी
[১. বিবাহ বিধি দ্বারা।]
मन्त्र विषय
উপনিষৎসপত্নীবাধনোপদেশঃ
भाषार्थ
(বীরুধাম্) বিরোহণশীল লতা সমূহের [সৃষ্টির পদার্থ সমূহের] মধ্যে (ইমাম্) এই (বলবত্তমাম্) অতিশয় বলবতী (ওষধিম্) রোগনাশক ঔষধি [ব্রহ্মবিদ্যা] কে (খনামি) আমি খনন/অন্বেষণ করি, (যয়া) যে [ঔষধি] দ্বারা [প্রাণী] (সপত্নীম্) বিরোধিনী [অবিদ্যা] কে (বাধতে) দূর করে, এবং (যয়া) যার মাধ্যমে (পতিম্) সর্বরক্ষক বা সর্বশক্তিমান্ পরমেশ্বরকে (সংবিন্দতে) যথাবৎ প্রাপ্ত করে॥১॥
भावार्थ
মনুষ্য ব্রহ্মবিদ্যা পরিশ্রমপূর্বক প্রাপ্ত করুক। ঈশ্বরীয় জ্ঞানের দ্বারা বিদ্বান হয়ে মিথ্যা জ্ঞানের নাশ হয়ে পরম ঐশ্বর্য বা মোক্ষ প্রাপ্তি হয়॥১॥ এই সূক্ত কিছু ভেদে ঋগ্বেদ ম০ ১০।১৪৫।১-৬ এ আছে। আজমের বৈদিক যন্ত্রালয়ে ঋগ্বেদসংহিতা, মোহময়ী [মুম্বই] এর শাকলঋকসংহিতা, এবং ঋগ্বেদীয় সায়ণভাষ্যে “উপনিষৎসপ্তনীবাধনম্” এই সূক্তের দেবতা লেখা আছে, ফলে এই সূক্তে ব্রহ্মবিদ্যারই উপদেশ আছে ॥
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
Misc Websites, Smt. Premlata Agarwal & Sri Ashish Joshi
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
Sri Amit Upadhyay
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
Sri Dharampal Arya
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
N/A
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal