अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 29/ मन्त्र 5
ऋषिः - उद्दालकः
देवता - शितिपाद् अविः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - अवि सूक्त
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पञ्चा॑पूपं शिति॒पाद॒मविं॑ लो॒केन॒ संमि॑तम्। प्र॑दा॒तोप॑ जीवति सूर्यामा॒सयो॒रक्षि॑तम् ॥
स्वर सहित पद पाठपञ्च॑ऽअपूपम् । शि॒ति॒ऽपाद॑म् । अवि॑म् । लो॒केन॑ । सम्ऽमि॑तम् । प्र॒ऽदा॒ता । उप॑ । जी॒व॒ति॒ । सू॒र्या॒मा॒सयो॑: । अक्षि॑तम्॥२९.५॥
स्वर रहित मन्त्र
पञ्चापूपं शितिपादमविं लोकेन संमितम्। प्रदातोप जीवति सूर्यामासयोरक्षितम् ॥
स्वर रहित पद पाठपञ्चऽअपूपम् । शितिऽपादम् । अविम् । लोकेन । सम्ऽमितम् । प्रऽदाता । उप । जीवति । सूर्यामासयो: । अक्षितम्॥२९.५॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
मनुष्य परमेश्वर की भक्ति से सुख पाता है।
पदार्थ
(पञ्चापूपम्) विस्तीर्ण वा [पूर्वादि चार और ऊपर नीचे की पाँचवीं] पाँचों दिशाओं में अटूट शक्तिवाले अथवा बिना सड़ी रोटी देनेवाले, (शितिपादम्) प्रकाश और अन्धकार में गतिवाले, (लोकेन) संसार के (संमितम्) सम्मान किये गए (अविम्) रक्षक प्रभु का [अपने आत्मा में] (प्रदाता) अच्छे प्रकार दान करनेवाला (सूर्यामासयोः) सूर्य और चन्द्रमा में [उनके नियम में] (अक्षितम्) अक्षयता [नित्यवृद्धि] को (उपजीवति) भोगता है ॥५॥
भावार्थ
सूर्य आकर्षण और वृष्टि आदि से पृथिवी आदि लोकों का धारण करता और चन्द्रमा सूर्य से प्रकाश पाकर हमें पुष्टि पहुँचाता है। इसी प्रकार जो मनुष्य मन्त्रोक्त ईश्वर को अपने हृदय में रखकर परोपकार करता है उसका सुख नित्य बढ़ता है ॥५॥
टिप्पणी
५−(सूर्यामासयोः) सुवति प्रेरयति लोकान् कर्मणि स सूर्यः। अ० १।३।५। मसी परिमाणे-घञ्। मस्यते परिमीयते गगनं येन स मासः, चन्द्रमाः। सूर्यश्च मासश्च सूर्यामासौ। देवताद्वन्द्वे च। पा० ६।३।२६। इति आनङ्। सूर्याचन्द्रमसोर्नियमेन। अन्यदुपरि व्याख्यातम् ॥
विषय
सूर्यामासयो: लोके
पदार्थ
१. (पञ्चापूपम) = पाँचों दिशाओं [पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण व मध्य] में स्थित प्रजावर्ग को विशीर्ण न होने देनेवाले (शितिपादम्) = शुद्ध आचरणवाले (अविम्) = रक्षक राजा को (लोकेन संमितम्) = लोकों के प्रतिनिधियों से राष्ट्रसभा में निर्धारित कर का (प्रदाता) = देनेवाला प्रजावर्ग (सूर्यामासयो:) = सूर्य-चन्द्रमा के लोक में [मस्यते क्षयवृद्धिभ्यां परिमीयते इति मासः चन्द्रमाः], (अक्षितम्) = अक्षीणता के साथ (उपजीवति) = निवास करता है, अर्थात् दिन-रात फूलता-फलता है। २. प्रजा जब राजा को ठीक से कर देती रहती है तब राजा दिन-रात प्रजा का रक्षण करता है। प्रजा दिन में निर्भय होकर अपने व्यापार आदि कर्मों को करती है और रात्रि में निर्भयता से विश्राम करती है। राजा 'जागवि' है-सदा जागरूक होकर प्रजा का रक्षण करता है।
भावार्थ
राजा के लिए निश्चित कर देनेवाली प्रजा दिन-रात राजा से सुरक्षित हुई-हुई दिन में अपने-अपने कार्यों को करती हुई रात्रि में निर्भयता से विश्राम करती है।
भाषार्थ
(पञ्चापूपम्) पाँच इन्द्रियों की अपवित्रता से निज को सुरक्षित करनेवाले, (शितिपादम्) निर्मल शारीरिक पाद आदि अवयवोंवाले, (लोकेन संमितम्) प्रजावर्ग द्वारा सम्यक् प्रकार से माप लिये गये, जाँच लिये गये (अविम्) रक्षा करनेवाले व्यक्ति को (प्रदाता) प्रदान करनेवाला (उप जीवति) जीवित करता है, "सूर्यामासयो:" सप्तमी विभक्ति द्विवचन। "मास" शब्द चन्द्रमस् पद का उत्तरांश है। यथा देवदत्तः दत्तः।अभिप्राय यह सूर्य और चन्द्र में, अर्थात् दिन और रात्री में। सूर्य का काल है दिन, और चन्द्रमा का काल है रात्री। अर्थात् दिन-रात प्रदाता का नाम अक्षीण रूप में विश्रुत रहता है।
विषय
राजसभा के सदस्यों के कर्तव्य ।
भावार्थ
(लोकेन संमितम्) ‘लोक’ के समान जाने गये (शितिपादम् अविं) ज्ञानवान्, चेतनावान् (पञ्च-अपूपम्) पांचों ज्ञानों के कर्त्ता आत्मा को जो परमेश्वर में (प्रदाता) समर्पित करता है वह (सूर्या मासयोः) सूर्य और चन्द्रमा इन दोनों लोकों के समान (अक्षितम् जीवति) अक्षय जीवन प्राप्त करता है ।
टिप्पणी
(च०) ‘सूर्यमासयोरिति’ प्रामादिकः पाठः।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
उद्दालक ऋषिः। शितिपादोऽविर्देवता। ७ कामो देवता। ८ भूमिर्देवता। १, ३ पथ्यापंक्तिः, ७ त्र्यवसाना षट्षदा उपरिष्टादेवीगृहती ककुम्मतीगर्भा विराड जगती । ८ उपरिष्टाद् बृहती २, ४, ६ अनुष्टुभः। अष्टर्चं सूक्तम् ॥
इंग्लिश (4)
Subject
Taxation, Development, Administration
Meaning
The voluntary giver of his national-saving, protective-promotive contribution, agreed and approved by the people, meant for the sustenance and advancement of a five-community vibrant nation lives happy, free from worry and violence in the land illumined by the sun and beatified by the moon where days are bright and nights are soothing and peaceful.
Translation
One who pays the protection tax, white-footed as approved by the people, along with five cakes , enjoys its benefit ever undiminished as long as the Sun and the moon last.
Translation
He who imparts knowledge to others and enjoys the grand scenes of nature which is pervading through five elements, is sometimes in causal-form and sometimes in effect forms and has been embraced by the souls, attains the safe state of Sun and Moon.
Translation
He who dedicates to God, the conscious soul, a prey to five passions, and honored by all, leads in the presence of the Sun and Moon, a life of deathless joy.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
५−(सूर्यामासयोः) सुवति प्रेरयति लोकान् कर्मणि स सूर्यः। अ० १।३।५। मसी परिमाणे-घञ्। मस्यते परिमीयते गगनं येन स मासः, चन्द्रमाः। सूर्यश्च मासश्च सूर्यामासौ। देवताद्वन्द्वे च। पा० ६।३।२६। इति आनङ्। सूर्याचन्द्रमसोर्नियमेन। अन्यदुपरि व्याख्यातम् ॥
बंगाली (2)
भाषार्थ
(পঞ্চাপূপম্) পাঁচটি ইন্দ্রিয়ের অপবিত্রতা থেকে নিজেকে সুরক্ষিতকারী, (শিতিপাদম্) নির্মল শারীরিক পাদ আদি অবয়বসমন্বিত, (লোকেন সংমিতম্) প্রজাবর্গ দ্বারা সম্যকরূপে পরিমিত, পরীক্ষিত (অবিম্) রক্ষক ব্যক্তিকে (প্রদাতা) প্রদাতা/প্রদানকারী (উপ জীবতি) জীবিত করে, (সূর্যামাসয়োঃ) সূর্য ও চন্দ্রের (অক্ষিতম্) না ক্ষীণ হওয়া পর্যন্ত।
टिप्पणी
["সূর্যামাসয়োঃ" সপ্তমী বিভক্তি দ্বিবচন। "মাস" শব্দ চন্দ্রমস্ পদের উত্তরাংশ। যথা দেবদত্তঃ দত্তঃ। অভিপ্রায় এটাই, সূর্য ও চন্দ্রে অর্থাৎ দিন ও রাত্রিতে। সূর্যের সময় হচ্ছে দিন, এবং চন্দ্রের সময় হচ্ছে রাত্রি। অর্থাৎ দিন-রাত প্রদাতার নাম অক্ষীণ রূপে বিশ্রুত থাকে।]
मन्त्र विषय
মনুষ্যঃ পরমেশ্বরভক্ত্যা সুখং লভতে
भाषार्थ
(পঞ্চাপূপম্) বিস্তীর্ণ বা [পূর্বাদি চার এবং উপর নীচের পঞ্চম] পাঁচটি দিশায় দৃঢ় শক্তিশালী অথবা যোগ্য অন্ন প্রদানকারী, (শিতিপাদম্) আলো ও অন্ধকারে গতিসম্পন্ন, (লোকেন) সংসারে (সংমিতম্) সম্মানিত (অবিম্) রক্ষক প্রভুর [নিজের আত্মায়] (প্রদাতা) উত্তমরূপে দাতা (সূর্যামাসয়োঃ) সূর্য ও চন্দ্রে [সেগুলোর নিয়মে] (অক্ষিতম্) অক্ষয়তা [নিত্যবৃদ্ধি] কে (উপজীবতি) ভোগ করে ॥৫॥
भावार्थ
সূর্য আকর্ষণ ও বৃষ্টি আদি দ্বারা পৃথিব্যাদি লোকের ধারণ করে এবং চন্দ্র সূর্যের আলো প্রাপ্ত করে আমাদের পুষ্টি পৌঁছে দেয়। এইভাবে যে মনুষ্য মন্ত্রোক্ত ঈশ্বরকে নিজের হৃদয়ে রেখে পরোপকার করে তাঁর সুখ নিত্য বৃদ্ধি পায়॥৫॥
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