अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 21/ मन्त्र 2
इन्द्रो॒ यज्व॑ने गृण॒ते च॒ शिक्ष॑त॒ उपेद्द॑दाति॒ न स्वं मु॑षायति। भूयो॑भूयो र॒यिमिद॑स्य व॒र्धय॑न्नभि॒न्ने खि॒ल्ये नि द॑धाति देव॒युम् ॥
स्वर सहित पद पाठइन्द्र॑: । यज्व॑ने । गृ॒ण॒ते । च॒ । शिक्ष॑ते । उप॑ । इत् । द॒दा॒ति॒ । न । स्वम् । मु॒षा॒य॒ति॒ । भूय॑:ऽभूय: । र॒यिम् । इत् । अ॒स्य॒ । व॒र्धय॑न् । अ॒भि॒न्ने । खि॒ल्ये । नि । द॒धा॒ति॒ । दे॒व॒ऽयुम् ॥२१.२॥
स्वर रहित मन्त्र
इन्द्रो यज्वने गृणते च शिक्षत उपेद्ददाति न स्वं मुषायति। भूयोभूयो रयिमिदस्य वर्धयन्नभिन्ने खिल्ये नि दधाति देवयुम् ॥
स्वर रहित पद पाठइन्द्र: । यज्वने । गृणते । च । शिक्षते । उप । इत् । ददाति । न । स्वम् । मुषायति । भूय:ऽभूय: । रयिम् । इत् । अस्य । वर्धयन् । अभिन्ने । खिल्ये । नि । दधाति । देवऽयुम् ॥२१.२॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
विद्या के गुणों का उपदेश।
पदार्थ
(इन्द्रः) बड़े ऐश्वर्यवाला राजा (यज्वने) यज्ञ करनेवाले (च) और (गृणते) उपदेशक पुरुष को (शिक्षते) शिक्षा देता है, और (उप=उपेत्य) आदर करके (स्वम्) धन (ददाति) देता है, और (न) न (मुषायति) चुराता है, और (देवयुम्) दिव्य गुण वा विद्वानों के प्राप्त करानेवाले (रयिम्) धन को (भूयोभूयः) अधिक-अधिक (इत्) ही (वर्धयन्) बढ़ाता हुआ (अस्य) इस संसार के (अभिन्ने) अटूट (खिल्ये) कण-कण प्राप्ति के लाभ में (निदधाति) निधिरूप से रखता है ॥२॥
भावार्थ
प्रतापी राजा स्वार्थ छोड़कर विद्यादानादि में धन को व्यय करता है, विद्याबल से धन बढ़ाता हुआ संसार को बहुत लाभ पहुँचाता है ॥२॥
टिप्पणी
२−(इन्द्रः) राजा (यज्वने) सुयजोर्ङ्वनिप्। पा० ३।२।१०३। इति यज देवपूजासङ्गतिकरणदानेषु-ङ्वनिप्। यज्ञकर्त्रे (गृणते) गॄ शब्दे-शतृ। उपदेशकाय जनाय (च) (शिक्षते) उपदिशति (उप) उपेत्य (इत्) अवधारणे (ददाति) सुपात्राय प्रयच्छति (न) निषेधे (स्वम्) धनम् (मुषायति) छन्दसि शायजपि। पा० ३।१।८४। इति मुष स्तेये श्नः शायच्। मुष्णाति, चोरयति (भूयोभूयो) बहुतरम् (रयिम्) धनम्, (इत्) (अस्य) संसारस्य (वर्धयन्) समर्धयन् (अभिन्ने) अच्छिन्ने। निरुपद्रवे (खिल्ये) खिल कणश आदाने-क। ततो यत्। कणश आदानस्थाने, अप्रहते देशे भवे सुरक्षिते लाभे (निदधाति) निधिरूपेण स्थापयति (देवयुम्) मृगय्वादयश्च। उ० १।३७। इति देव+या प्रापणे-कु। देवानां दिव्यगुणानां विदुषां वा प्रापकम् ॥
विषय
यज्वा+गृणन्देवयु का स्वर्णतुल्य गृह
पदार्थ
१. (यचने) = यज्ञशील पुरुष के लिए (च) = और (गणते) = स्तवन करनेवाले मनुष्य के लिए (इन्द्रः) = वे प्रभु (शिक्षते) = गौएँ देते हैं। प्रभु (इत्) = निश्चय से (उपददाति) = इस यजनशील स्तोता के लिए इन गौओं को समीपता से प्राप्त कराते हैं, (स्वं न मुषायति) = प्रभु इस यजनशील के धन का अपहरण नहीं करते। २. (प्रभुभूयः) = अधिक और अधिक ही (अस्य) = इस यच्चा व स्तोता के (रयिम्) = धन को (इत्) = निश्चय से (वर्धयन्) = बढ़ाते हुए इस (देवयुम) = दिव्यगुणों को अपनाने की कामनावाले पुरुष को (अभिन्ने) = दु:खों से (असंभिन्ने खिल्ये) = वासनाओं से अहत [अनाक्रान्त] स्वर्गलोक में (निदधाति) = स्थापित करते हैं।
भावार्थ
प्रभु यज्ञशील पुरुष को खूब ही धन प्राप्त कराते हैं। इन धनों के द्वारा यज्ञ करनेवाले इस देवयु पुरुष को प्रभु दु:खों से रहित व वासनाओं से अनाक्रान्त स्वर्गलोक में स्थापित करते हैं-इसका घर स्वर्ग बन जाता है।
भाषार्थ
(इन्द्रः) ऐश्वर्यवान् राजा (यज्वने) यज्ञ भावनावाले और (गृणते) गोदाता राजा की इस निमित्त प्रशंसा करनेवाले के लिए (इत्) ही (उप ददाति) गौएँ उपदानरूप में (ददाति) देता है, (स्वम्) इसके गोधन को (न मुषायति) इससे छीन नहीं लेता, अपितु (अस्य) इस प्रबन्धक की (रयिम्) गोसम्पत्ति को (भूयोभूय:) अधिकाधिक (वर्धयन्) बढ़ाता हुआ (देवयुम्) देवस्वरूप राजा की अभ्युन्नति चाहनेवाले को, (अभिन्ने) अटूट (खिल्ये) खिल प्रदेश में (नि दधाति) स्थिररूप में स्थापित करता है।
टिप्पणी
[खिल्ये= "खिले व्रजे विष्ठिता विशेषेण संभूय स्थिताः, एकत्रप्रदेशेऽवस्थिता गाः" (सायण ७।१२०।४)। खिल्य= खिल अर्थात् व्रज सम्बन्धी स्थान, गोशाला। यह अभिन्न होनी चाहिए, अटूट अर्थात् मजबूत होनी चाहिए, ताकि टूट कर गौओं पर इसका इसका प्रहार न हो। शिक्षते= शिक्षति दानकर्मा (निघं० ३।२०)।]
विषय
गो-कीर्तन।
भावार्थ
(इन्द्रः) वह ऐश्वर्यवान् परमात्मा (यज्वने) यज्ञ याग करने और एवं देवार्चना करने और (गृणते) देव की यथार्थ स्तुति करने और ज्ञानोपदेश करने वाले पुरुष को (शिक्षते) उत्तम २ ज्ञानों का उपदेश करता है और (उप ददाति इत्) उसके समीप आकर बहुत कुछ दान करता है (स्वं) और उस के निज ‘स्व’ धन या स्वरूप को भी (न मुषायति) नहीं अपहरण करता। प्रत्युत (अस्य) इस आत्मा के (रयिम्) वीर्य, बल सामर्थ्य को (भूयः-भूयः) बराबर अधिकाधिक (वर्धयत् इत्) बढ़ाता हुआ ही उस (देव-युम्) देव परमेश्वर की कामना करने हारे, ईश्वरभक्त, बल मग्न पुरुष को, (अभिन्ने) अपने से अभिन्न (खिल्ये) रूप अर्थात् आनन्द रस में जहां काम क्रोध से आत्मा को पीड़ा न पहुंच सके ऐसे अभय रूप में (नि दधाति) सुरक्षित रखता है।
टिप्पणी
“तदा द्रष्टुः स्वरूपेऽवस्थानम्” (यो० सू० १। २)।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ब्रह्मा ऋषिः। गौदेवताः। २-४ जगत्यः, १, ५-७ त्रिष्टुभः। सप्तर्चं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
The Cows
Meaning
Indra, the ruler, gives protection and maintenance for the man dedicated to yajna, divine celebration, social service and education for a purpose and self-fulfilment. This way too he does not deplete his wealth and knowledge but maintains it. He constantly adds to the wealth of the nation in every region of the land, maintaining the devotees of learning for society and divinity, without taking anything from them materially.
Translation
The resplendent Lord bestows affluence on devotee who offers worship and oblations. He takes not what belongs to the worshipper and gives him more; thereby increasing his wealth more and ever-more; he places the devotee in fortified positions, free from danger. (Also Rg. VI.28.2)
Translation
Indra, the Almighty Divinity reveals His Knowledge to him who performs the Yajna and offers prayer. He gives him more and never does take anything from him. He increases his wealth more and more and places the performer of Yajna in unbroken blessedness.
Translation
God grants true knowledge to him who offers sacrifice and praise. He takes not what is his, and gives him more thereto. Increasing ever more and ever more his wealth. He makes the pious dwell in a state of eternal joy, not far from Him.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
२−(इन्द्रः) राजा (यज्वने) सुयजोर्ङ्वनिप्। पा० ३।२।१०३। इति यज देवपूजासङ्गतिकरणदानेषु-ङ्वनिप्। यज्ञकर्त्रे (गृणते) गॄ शब्दे-शतृ। उपदेशकाय जनाय (च) (शिक्षते) उपदिशति (उप) उपेत्य (इत्) अवधारणे (ददाति) सुपात्राय प्रयच्छति (न) निषेधे (स्वम्) धनम् (मुषायति) छन्दसि शायजपि। पा० ३।१।८४। इति मुष स्तेये श्नः शायच्। मुष्णाति, चोरयति (भूयोभूयो) बहुतरम् (रयिम्) धनम्, (इत्) (अस्य) संसारस्य (वर्धयन्) समर्धयन् (अभिन्ने) अच्छिन्ने। निरुपद्रवे (खिल्ये) खिल कणश आदाने-क। ततो यत्। कणश आदानस्थाने, अप्रहते देशे भवे सुरक्षिते लाभे (निदधाति) निधिरूपेण स्थापयति (देवयुम्) मृगय्वादयश्च। उ० १।३७। इति देव+या प्रापणे-कु। देवानां दिव्यगुणानां विदुषां वा प्रापकम् ॥
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