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अथर्ववेद के काण्ड - 4 के सूक्त 23 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 23/ मन्त्र 7
    ऋषिः - मृगारः देवता - प्रचेता अग्निः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - पापमोचन सूक्त
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    यस्ये॒दं प्र॒दिशि॒ यद्वि॒रोच॑ते॒ यज्जा॒तं ज॑नित॒व्यं॑ च॒ केव॑लम्। स्तौम्य॒ग्निं ना॑थि॒तो जो॑हवीमि॒ स नो॑ मुञ्च॒त्वंह॑सः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यस्य॑ । इ॒दम् । प्र॒ऽदिशि॑ । यत् । वि॒ऽरोच॑ते । यत् । जा॒तम् । ज॒नि॒त॒व्य᳡म् । च॒ । केव॑लम् । स्तौमि॑ । अ॒ग्निम् । ना॒थि॒त: । जो॒ह॒वी॒मि॒ । स: । न॒: । मु॒ञ्च॒तु॒ । अंह॑स: ॥२३.७॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यस्येदं प्रदिशि यद्विरोचते यज्जातं जनितव्यं च केवलम्। स्तौम्यग्निं नाथितो जोहवीमि स नो मुञ्चत्वंहसः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यस्य । इदम् । प्रऽदिशि । यत् । विऽरोचते । यत् । जातम् । जनितव्यम् । च । केवलम् । स्तौमि । अग्निम् । नाथित: । जोहवीमि । स: । न: । मुञ्चतु । अंहस: ॥२३.७॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 23; मन्त्र » 7
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    कष्ट हटाने के लिये उपदेश।

    पदार्थ

    (केवलम्) केवल (यस्य) जिस परमेश्वर के (प्रदिशि) शासन में (इदम्) यह [जगत्] है, अर्थात् (यत्) जो कुछ (विरोचते) चमकता है, और (यत्) जो कुछ (जातम्) उत्पन्न हुआ है (च) और (जनितव्यम्) उत्पन्न होगा। (नाथितः) मैं भक्त (अग्निम्) उस सर्वव्यापक परमेश्वर को (स्तौमि) सराहता हूँ और (जोहवीमि) बारंबार पुकारता हूँ। (सः) वह (नः) हमे (अंहसः) कष्ट से (मुञ्चतु) छुड़ावे ॥७॥

    भावार्थ

    जगत्पिता परमेश्वर की आज्ञा में यह सब जगत् वर्तमान है, उसीकी प्रार्थना उपासना करके मनुष्य अपने विघ्नों को हटाकर सदा धर्म में प्रवृत्त होकर प्रसन्न रहें ॥७॥

    टिप्पणी

    ७−(यस्य) अग्नेः परमेश्वरस्य (इदम्) परिदृश्यमानं जगत् (प्रदिशि) प्रदेशने। प्रशासने (यत्) (विरोचते) विविधं दीप्यते (यत्) (जातम्) उत्पन्नम् (जनितव्यम्) जनयितव्यम्। जनिष्यमाणम् (च) समुच्चये (केवलम्) अ० ३।१८।२। निश्चितम्। अनन्यसाधारणम् (स्तौमि) प्रशंसामि (अग्निम्) सर्वव्यापकं परमेश्वरम् (नाथितः) तदस्य संजातं तारकादिभ्य इतच्। पा० ५।२।३६। इति नाथ-इतच्। नाथः स्वामी संजातो यस्य स नाथितः। नाथवान्। भक्तः (जोहवीमि) अ० २।१२।३। पुनः पुनराह्वयामि। अन्यद् व्याख्याम् म० १ ॥

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    विषय

    स्तौमि जोहवीमि

    पदार्थ

    १. (इदम्) = यह सम्पूर्ण जगत् (यस्य प्रदिशि) = जिस अग्नि के प्रशासन में है, (यत् विरोचते) = जो ये ग्रह-नक्षत्रादि अन्तरिक्ष में चमकते हैं (च) = और (यत्) = जो (जातम्) = इस पृथिवी पर उत्पन्न हुआ है और (जनितव्यम्) =  भविष्य में उत्पन्न होनेवाला है, वह (केवलम्) = अनन्य साधारणरूप से जिसके प्रशासन में है, मैं उस (अग्निं स्तौमि) = अग्नि की स्तुति करता हूँ। २. (नाथित:) = [नाथ उपतापे, Harsh, trouble] वासनाओं से उपतप्त हुआ-हुआ मैं उस प्रभु को ही (जोहवीमि) = पुकारता हूँ। (स:) = वे प्रभु ही (न:) = हमें (अंहस: मञ्चत) = पाप से मुक्त करें-मेरी शक्ति तो इन काम-क्रोध आदि को जीत सकने की नहीं है।

    भावार्थ

    प्रभु सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड के शासक हैं। मैं प्रभु का ही स्तवन करता हूँ। शत्रुओं से सन्तत किया गया मैं प्रभु को ही पुकारता हूँ। वे प्रभु मुझे पापों से मुक्त करें।

     

    अगले सूक्त का ऋषि भी 'मृगार' ही है -

     

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    भाषार्थ

    (इदम्) यह (तत्) जो (विरोचते) विविध रूपों में चमकता है, (यत् जातम्) जो [भूतकाल में] हुआ है, (च) और (जनितव्यम्) [भविष्यत् काल में] पैदा होगा, वह (यस्य) जिसके (प्रदिशि) प्रकृष्टनिर्देश में प्रकृष्ट शासन में (केवलम्) केवल है, उस (अग्निम्) परमेश्वराग्नि की (स्तौमि) मैं स्तुति करता हूँ, (नाथितः) उस स्वामीवाला हुआ मैं (जोहवीमि) बार-बार उसका आह्वान करता हूँ, (सः) वह (न:) हमें (अंहस:) पाप से (मुञ्चतु) छुड़ाए।

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    विषय

    पापमोचन की प्रार्थना।

    भावार्थ

    (इदं) यह समस्त जगत् (यद् विरोचते) जो नाना प्रकार से शोभा दे रहा है (यत् जातं) जो उत्पन्न हुआ और (जनितव्यं च) जो उत्पन्न होगा वह सब, (केवलम्) विना किसी अन्य की अपेक्षा किये, एकमात्र (यस्य प्रदिशि) जिसके उत्कृष्ट शासन में है। (नाथितः) पापों के फल रूप दुःखों से संतप्त लेकर मैं जीव उस (अग्निं) अग्निस्वरूप पाप प्रदायक तेजोमय देव की (स्तौमि) स्तुति करता हूं और (जोहवीमि) बार २ पुकार करता हूं। (सः नः (अंहसः मुञ्चतु) वह हमें हमारे पापों से मुक्त करे।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    मृगार ऋषिः। इतः परं सप्त मृगारसंज्ञानि सूक्तानि तत्र नाना देवताः। ३ पुरस्ता-ज्ज्योतिष्मती। ४ अनुष्टुप्। ६ प्रस्तार पंक्तिः॥ १-२, ७ त्रिष्टुभः। सप्तर्चं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Deliverance from Sin

    Meaning

    Agni in whose sole and absolute dominion exists all that shines expansive and radiating, all that is born, and the yet unborn that is to be born in future time, that Agni I praise and worship. Seeking, forlorn, suppliant, I invoke and pray that Agni may save us from sin and distress and exalt us to light and freedom.

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    Translation

    Under whose sole command lies all this that shines, and whatever is born and whatever is yet to be born. I, a suppliant, praise the fire divine and invoke him again and - again. As such may he free us from sin.

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    Translation

    I equipped with strength, praise and describe frequently the properties of fire under whose control alone shines whatever is in existence and whatever is to come into existence. Let it be the source of keeping us away from grief and troubles.

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    Translation

    I, suppliant, praise and ever call on God, the sole Lord of all this world, of all that shineth, of what exists and shall exist hereafter. May He deliver us from sin.

    Footnote

    All that shineth’:the planets that shine.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ७−(यस्य) अग्नेः परमेश्वरस्य (इदम्) परिदृश्यमानं जगत् (प्रदिशि) प्रदेशने। प्रशासने (यत्) (विरोचते) विविधं दीप्यते (यत्) (जातम्) उत्पन्नम् (जनितव्यम्) जनयितव्यम्। जनिष्यमाणम् (च) समुच्चये (केवलम्) अ० ३।१८।२। निश्चितम्। अनन्यसाधारणम् (स्तौमि) प्रशंसामि (अग्निम्) सर्वव्यापकं परमेश्वरम् (नाथितः) तदस्य संजातं तारकादिभ्य इतच्। पा० ५।२।३६। इति नाथ-इतच्। नाथः स्वामी संजातो यस्य स नाथितः। नाथवान्। भक्तः (जोहवीमि) अ० २।१२।३। पुनः पुनराह्वयामि। अन्यद् व्याख्याम् म० १ ॥

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