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अथर्ववेद के काण्ड - 4 के सूक्त 27 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 27/ मन्त्र 6
    ऋषिः - मृगारः देवता - मरुद्गणः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - पापमोचन सूक्त
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    यदीदि॒दं म॑रुतो॒ मारु॑तेन॒ यदि॑ देवा॒ दैव्ये॑ने॒दृगार॑। यू॒यमी॑शिध्वे वसव॒स्तस्य॒ निष्कृ॑ते॒स्ते नो॑ मुञ्च॒न्त्वंह॑सः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यदि॑ । इत् । इ॒दम् । म॒रु॒त॒: । मारु॑तेन । यदि॑ । दे॒वा॒: । दैव्ये॑न । ई॒दृक् । आर॑ । यू॒यम् । ई॒शि॒ध्वे॒ । व॒स॒व॒: । तस्य॑ । निऽकृ॑ते : । ते । न॒: । मु॒ञ्च॒न्तु॒ । अंह॑स: ॥२७.६॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यदीदिदं मरुतो मारुतेन यदि देवा दैव्येनेदृगार। यूयमीशिध्वे वसवस्तस्य निष्कृतेस्ते नो मुञ्चन्त्वंहसः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यदि । इत् । इदम् । मरुत: । मारुतेन । यदि । देवा: । दैव्येन । ईदृक् । आर । यूयम् । ईशिध्वे । वसव: । तस्य । निऽकृते : । ते । न: । मुञ्चन्तु । अंहस: ॥२७.६॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 27; मन्त्र » 6
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    पवन के गुणों का उपदेश।

    पदार्थ

    (देवाः) हे विजयशील (मरुतः) दोषनाशक वायुगण ! (यदि) यत्नशील (इदम्) चलता हुआ जगत् (इत्) निश्चय करके [तुम्हारे] (मारुतेन) दोषनाशक धर्म से और (दैव्येन) दिव्यपन से (ईदृक्) ऐसा (यदि) यत्नशील (आर) प्राप्त हुआ है। (वसवः) हे निवास करानेवाले ! (यूयम्) तुम (तस्य) उस जगत् के (निष्कृतेः) उद्धार के (ईशिध्वे) समर्थ होते हो। (ते) वे (नः) हमें (अंहसः) कष्ट से (मुञ्चन्तु) छुड़ावें ॥६॥

    भावार्थ

    यह सब जगत् वायु के कारण चेष्टा करता हुआ उद्योगी रहता है, उस वायु के गुणों को जान कर सब मनुष्य प्रसन्न रहें ॥६॥

    टिप्पणी

    ६−(यदि) सर्वधातुभ्य इन्। उ० ४।११८। इति यती प्रयत्ने-इन् तस्य दः। यत्नशीलम् (इत्) अवधारणे (इदम्) इण् गतौ दमुक्। एति गच्छतीति इदं जगत् (मरुतः) हे दीपनाशका वायवः (मारुतेन) तस्येदम्। पा० ४।३।१२०। इति मरुत्-भावेऽण्। मरुत्वेन मरुतो दोषनाशधर्मेण (यदि) यत्नशीलम् (देवाः) हे विजिगीषवः (दैव्येन) दिवि भवं दिव्यम्। ततो भावे अण्। दिव्यगुणेन (ईदृक्) त्यदादिषु दृशोऽनालोचने कञ् च। पा० ३।२।६०। इति दृशेः क्विन्। इंदकिमोरीश्की। पा० ६।३।९०। इति इदम ईशादेशः। एवंरूपं जगद् यथा दृश्यते (आर) ऋ गतौ लिट्। प्राप्तं बभूव (यूयम्) (ईशिध्वे) ईश्वराः समर्था भवथ (वसवः) हे वासयितारः। प्रशस्ताः (तस्य) दृश्यमानस्य जगतः (निष्कृतेः) निस्तारस्य उद्धारस्य। अन्यत् पूर्ववत् ॥

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    विषय

    मारुतेन दैव्येन

    पदार्थ

    १. प्राणसाधना करते हुए यदि हठपूर्वक प्राणायाम करने से शरीर में कोई दोष हो जाए तो यह 'मारुत' अपराध कहलाता है। उससे उत्पन्न कष्टों को भी मरुतों ने ही दूर करना है। (इदम्) = यह अनुभूयमान मेरा दुःख हे (मरुतः) = मरुतो ! (मारुतेन) = प्राणों के विषय में किये गये अपराध से (इत्) = ही (ईदक्) = ऐसा कष्ट (यदि) = यदि (आर) = प्राप्त हुआ है अथवा हे (देवा:) = वायुरूप देवो! (यदि) = यदि यह कष्ट (दैव्येन) = वायु आदि देवों के विषय में किय गये अग्निहोत्र आदि यज्ञों के न करनेरूप पाप से हमें प्राप्त हुआ है तो (यूयम्) = हे मरुतो! आप (तस्य) = उस कष्ट के (निष्कृते:) = बाहर निकालने व परिहार के लिए (ईंशिध्वे) = समर्थ हो। हे मरुतो! आप इन कष्टों का निराकरण करके वसवः हमें उत्तमता से बसानेवाले हो। २. (ते) = वे मरुत् [प्राण] (नः) = हमें (अंहस:) = पाप से (मुञ्चन्तु) = मुक्त करें। ('प्राणायामैदहेद् दोषान्') = प्राणसाधना से दोष दूर होते ही हैं।

    भावार्थ

    यदि हठपूर्वक प्राणसाधना से कोई कष्ट प्राप्त हुआ है अथवा अग्निहोत्रादि न करने से वृष्टिवाहक मरुतों का कार्य ठीक न होने से कष्ट हुआ है, तो मरुत् ही उन कष्टों को दूर कर हमें पाप-मुक्त करें।


     

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    भाषार्थ

    (मरुतः) हे मानसून वायुओं! (यदि) यदि (इदम्) यह अनुभूयमान दुःख (मारुतेन, इत्) मरुतों-जन्य ही है, (देवा:) हे अन्य देवो! (यदि) यदि (ईदृक) इस प्रकार का दुःख (दैव्येन) आप देवों द्वारा (आर) प्राप्त हुआ है, तो (यूयम्) हे मरुतो और देवों! तुम ही (वसवः) हे बसाने वालो! (तस्य) उस दुःख के (निस्कृते:) परिहार के (ईशिध्वे) अधीश्वर हो। (ते) वे तुम दोनों (न:) हमें (अंहसः) पापजन्य कष्ट से (मुञ्चतम्) छुड़ाएँ।

    टिप्पणी

    [आर= प्राप, ऋ गतौ लिट् (सायण)। मरुतों द्वारा दुःख प्राप्त होता है अतिवर्षा द्वारा तथा वर्षा के अभाव द्वारा। अन्य देव हैं वायु, विद्युत्, सूर्य आदि। प्रचण्ड वायु, मलिन वायु, विद्युत्प्रपात, सूर्य की अति गर्मी, भूचाल आदि अन्य देवों के प्रकोप के परिणाम हैं। इन्हीं को विज्ञान द्वारा व्यवस्थित करने से एतज्जन्य दुःखों से छुटकारा प्राप्त होता है।]

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    विषय

    पापमोचन की प्रार्थना।

    भावार्थ

    हे (मरुतः) मरुद्गणो विद्वानो ! (यदि) यदि (इदं) यह पापमय कष्ट (मारुतेन) वायुओं द्वारा या हमारे प्राणों के उपद्रवों से उत्पन्न है और हे (देवाः) विद्वान् लोगो ! (ईदृग्) ऐसा कष्टमय पाप यदि (दैव्येन) आधिदैविक आपत्ति के रूप में (आर) हमें प्राप्त हुआ है तो भी हे (वसवः) सबों को सुखपूर्वक बसाने हारे, सब के प्राणरक्षको ! (तस्य निः-कृतेः) उसके दूर करने में (यूयम्) तुम लोग ही (ईशिध्वे) समर्थ हो। (ते नः अंहसः मुञ्चन्तु) वे आप लोग हमें पापमय दुःख से मुक्त करो।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    मृगार ऋषिः। नाना देवताः। पञ्चमं मृगारसूक्तम्। १-७ त्रिष्टुभः। सप्तर्चं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Freedom from Sin

    Meaning

    O Maruts, if this life as it is is the consequence of the power and potential of maruts, forces of nature, or, O divines, it is so by the will of divinity, then O Vasus, sustainers of life, divine, natural and human, you are competent to shape and reshape it for deliverance, repair and progress onwards. Pray may all save us from sin, sufferance and suffering, and help us recover and advance.

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    Translation

    This plight of mine, which surely has come, O maruts, due to some offence committed to maruts, or O bounties of Nature, due to some offence against the bounties of Nature, O rehabilitators, you are capable of removing it. As such, may they free us from sin.

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    Translation

    If all this is established with the tremendous Power of Marut’s, if physical forces establish this with their celestial power, the all-abiding maruts are powerful for its maintenance. May they become the sources of our deliverance from grief and troubles.

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    Translation

    O learned persons, whether this dreadful trouble has arisen through the violence of our breaths, or O wise persons, whether such a calamity has arisen through natural misfortune, Ye are able to drive it away. May you deliver us from sin!

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ६−(यदि) सर्वधातुभ्य इन्। उ० ४।११८। इति यती प्रयत्ने-इन् तस्य दः। यत्नशीलम् (इत्) अवधारणे (इदम्) इण् गतौ दमुक्। एति गच्छतीति इदं जगत् (मरुतः) हे दीपनाशका वायवः (मारुतेन) तस्येदम्। पा० ४।३।१२०। इति मरुत्-भावेऽण्। मरुत्वेन मरुतो दोषनाशधर्मेण (यदि) यत्नशीलम् (देवाः) हे विजिगीषवः (दैव्येन) दिवि भवं दिव्यम्। ततो भावे अण्। दिव्यगुणेन (ईदृक्) त्यदादिषु दृशोऽनालोचने कञ् च। पा० ३।२।६०। इति दृशेः क्विन्। इंदकिमोरीश्की। पा० ६।३।९०। इति इदम ईशादेशः। एवंरूपं जगद् यथा दृश्यते (आर) ऋ गतौ लिट्। प्राप्तं बभूव (यूयम्) (ईशिध्वे) ईश्वराः समर्था भवथ (वसवः) हे वासयितारः। प्रशस्ताः (तस्य) दृश्यमानस्य जगतः (निष्कृतेः) निस्तारस्य उद्धारस्य। अन्यत् पूर्ववत् ॥

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