अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 31/ मन्त्र 1
ऋषिः - ब्रह्मास्कन्दः
देवता - मन्युः
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - सेनानिरीक्षण सूक्त
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त्वया॑ मन्यो स॒रथ॑मारु॒जन्तो॒ हर्ष॑माणा हृषि॒तासो॑ मरुत्वन्। ति॒ग्मेष॑व॒ आयु॑धा सं॒शिशा॑ना॒ उप॒ प्र य॑न्तु॒ नरो॑ अ॒ग्निरू॑पाः ॥
स्वर सहित पद पाठत्वया॑ । म॒न्यो॒ इति॑ । स॒ऽरथ॑म् । आ॒ऽरु॒जन्त॑: । हर्ष॑माणा: । हृ॒षि॒तास॑: । म॒रु॒त्व॒न् । ति॒ग्मऽइ॑षव: । आयु॑धा । स॒म्ऽशिशा॑ना: । उप॑ । प्र । य॒न्तु॒ । नर॑: । अ॒ग्निऽरू॑पा: ॥३१.१॥
स्वर रहित मन्त्र
त्वया मन्यो सरथमारुजन्तो हर्षमाणा हृषितासो मरुत्वन्। तिग्मेषव आयुधा संशिशाना उप प्र यन्तु नरो अग्निरूपाः ॥
स्वर रहित पद पाठत्वया । मन्यो इति । सऽरथम् । आऽरुजन्त: । हर्षमाणा: । हृषितास: । मरुत्वन् । तिग्मऽइषव: । आयुधा । सम्ऽशिशाना: । उप । प्र । यन्तु । नर: । अग्निऽरूपा: ॥३१.१॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
संग्राम में जय पाने का उपदेश।
पदार्थ
(मरुत्वन्) हे शूरवीरतावाले (मन्यो) क्रोध ! (त्वया) तेरे साथ (सरथम्) एक रथ पर चढ़ कर [शत्रुओं को] (आरुजन्तः) तोड़ते-फोड़ते हुए, (हर्षमाणाः) हर्ष मानते हुए, (हृषितासः) संतुष्ट मन, (तिग्मेषवः) तीक्ष्ण बाणोंवाले, (आयुधा) शस्त्रों को (संशिशानाः) तीक्ष्ण करते हुए, (अग्निरूपाः) अग्निरूप [अग्नि तुल्य प्रचण्ड कर्मोंवाले, अथवा सन्नद्ध कवच पहिने हुए] (नरः) हमारे नर [मुखिया लोग] (उप प्र यन्तु) व्यापकर चढ़ाई करें ॥१॥
भावार्थ
जो शूर वीर दुष्टों पर क्रोध करके चढ़ाई करते हैं, वे विजयी होते हैं ॥१॥
टिप्पणी
१−(त्वया) मन्युना (मन्यो) यजिमनिशुन्धि०। उ० ३।२०। इति मन ज्ञाने गर्वे च-युच्, अनादेशाभावः। मन्युर्मन्यतेर्दीप्तिकर्मणः क्रोधकर्मणो वध-कर्मणो वा मन्यन्त्यस्मादिषवः-निरु० १०।२९। हे क्रोध-निघ० २।१३। (सरथम्) समानं रथमारुह्य। सरथमारुह्य-निरु० १०।३०। (आरुजन्तः) आभञ्जन्तः पीडयन्तः शत्रून् (हर्षमाणाः) हृष तुष्टौ-शानच्। हर्षं कुर्वाणाः (हृषितासः) संतुष्टाः सन्तः (मरुत्वन्) अ० १।२०।१। मरुद्भिः शूरैर्युक्त (तिग्मेषवः) तीक्ष्णशराः (आयुधा) आयुधानि खड्गादीनि शस्त्राणि (संशिशानाः) शो तनूकरणे−कानच्। संश्यन्तः। तीक्ष्णीकुर्वन्तः। (उप) व्याप्तौ (प्र यन्तु) प्रकर्षेण गच्छन्तु (नरः)। नयतेर्डिच्च। उ० २।१००। इति णीञ् प्रापणे-ऋ। नेतारः (अग्निरूपाः) अग्निवत्तीक्ष्णदाहादिकर्माणः। यद्वा सन्नद्धाः कवचिनः। अग्निरूपा अग्निकर्माणः सन्नद्धाः कवचिन इति वा-निरु० १०।३० ॥
विषय
अग्रिरूप नरों का उपप्रयाण
पदार्थ
१. हे (मन्यो) = ज्ञान! (त्वया) = तेरे साथ (सरथम्) = समान रथ पर आरूढ़ हुए-हुए (आरुजन्त:) = समन्तात् शत्रुओं को नष्ट करते हुए (हर्षमाणा:) = आनन्द का अनुभव करते हुए (हषितासः) = शत्रु संहार के लिए अस्त्रों से सुसजित [armed] (नरः) = मनुष्य (उपप्रयन्तु) = अभ्युदय व निःश्रेयस सम्बन्धी क्रियाओं के प्रति प्राप्त हों। २. हे (मरुत्वन्) = प्राणोंवाले-प्राणसाधना से बुद्धि की तीव्रता को प्राप्त होनेवाले (मन्यो) = ज्ञान ! (तिग्मेषवः) = तीव्र [इषु] प्ररेणाओंवाले-प्रभु-प्रेरणाओं को ठीक से सुननेवाले, आयुधा (संशिशाना:) = इन्द्रिय, मन व बुद्धिरूप अस्त्रों को तीव्र करते हुए (अग्निरूपा:) = अग्नि के समान तेजस्वी अथवा उस अग्निनामक प्रभु के ही छोटेरूप बने हुए ये लोग [उप प्रयन्तु] प्रभु के समीप प्राप्त हों।
भाषार्थ
(मरुत्वन्) मारु-सैनिकों वाले (मन्यो) हे बोधयुक्त१ क्रोध! (त्वया) तुझ सहायक के साथ, (सरथम्) रथोंवाले शत्रु को-(हर्षमाना:) प्रसन्न होते हुए, (हृषितास:) और प्रजाजन को प्रसन्न करते हुए-हम सैनिक (आरुजन्तः) पूर्णतया भग्न करते हुए, (तिग्मेषव:) तीक्ष्ण इषुओंवाले, तथा (आयुधा) अन्य युद्धसाधनों के (संशिशानाः) सम्यक् तेज करते हुए हों, और [राजा के] (अग्निरूपाः) अग्निरूप हुए (नरः) सैनिक नर (उप) शत्रुदल के समीप (प्र यन्तु) प्रयाण करें।
टिप्पणी
[मरुत्वन्= मारयतीति वा स मरुत्, मनुष्यजातिः (उणा० १।९४; दयानन्द), मरुतोंवाला मन्युः; तथा मरुत:= सैनिका: (यजु:० १७।४०), यथा "देवसेनानामभि भञ्जतीनां जयन्तीनां मरुतो यन्त्वग्रम"। मन्यु= मनु अवबोधने (तनादिः)। बोधपूर्वक, ज्ञान तथा विवेकपूर्वक क्रोध है मन्युः; तदतिरिक्त है क्रोध। सैनिक जब मन्युवाले होते हैं, तब वे शत्रुदल को दान कर सकते हैं, अन्यथा नहीं।] [१. स्वपक्ष और शत्रुपक्ष के बलाबल का विचार करके किया गया क्रोध। मन्यु=मनु अवबोधने (तनादिः), तथा मन ज्ञाने (दिवादिः)।]
विषय
मन्यु, सेनानायक, आत्मा।
भावार्थ
मन्युस्तापस ऋषिः। मन्युर्देवता। हे मन्यो ! अर्थात् मन्युमय सेनानायक ! तथा हे (मरुत्वन्) योद्धाओं समेत ! (स्वया) तुझ सहायक के साथ (स-रथम्) रथ सहित शत्रु को (आ-रुजन्तः) पीड़ित एवं भग्न, विनष्ट करते हुए (हर्षमाणाः) हर्ष, आनन्द, प्रसन्नता प्रकट करते हुए (हृषितासः) स्वयं हृष्ट प्रसन्न होकर (आयुधा सं-शि-शानाः) अपने हथियारों को तीखा करते हुए (तिग्म-इषवः) तीक्ष्ण बाणों वाले (अग्निरूपाः) आग के समान जाज्वल्यमान (नरः) नेता, भट-गण (उप प्र यन्तु) शत्रु तक पहुंच जायं। अध्यात्म पक्ष में—हे मन्यो = ज्ञानवान्, मरुत्वन् = सर्व प्राणों के स्वामिन् ! परमेश्वर ! तुझ सहायक के होते हुए अग्नि रूप ज्ञानी जीव शमदमादि तीन साधनों को करते हुए तीक्ष्ण इषु अर्थात् कामना, प्रबल इच्छा वाले होकर (हर्षमाणाः हृषितासः) स्वयं प्रसन्न आनन्दमग्न होकर रथ रूप देह सहित इस बन्धन को तोड़ कर, मुक्त होकर तुझे प्राप्त करें।
टिप्पणी
अध्यात्म युद्ध का वर्णन भक्तों की वाणियों में बहुत है, जैसे कबीर कहते हैं:- एक शमशेर, इकसार चलती रहे, खेल कोई सूरमा सन्त झेलै। कामदल जीत करि, क्रोध पैमाल करि, परम सुखधाम तहं सुरत मेलै॥ शील से नेह करि, ज्ञान को खड्ग है, आप चौगान में खेल खेले। कहे कबीर, सोई संतजन सूरमा, सीस को सौंप करि करम ठेलै। रेखता २६॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ब्रह्मास्कन्द ऋषिः। मन्युर्देवता। १, ३ त्रिष्टुभौ। २, ४ भुरिजौ। ५- ७ जगत्यः। सप्तर्चं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
High Spirit of Passion
Meaning
O Manyu, spirit of vaulting passion without compromise with negativities, may our leading lights, warriors of universal rectitude, riding the chariot with you, breaking through paths of advancement, joyous, bold, undaunted, stormy like wind shears, their arrows like lazer beams, weapons sharp and blazing, go forward like flames of fire.
Subject
Manyu- Wrath.
Translation
O Wrath or Fury (manyu), O companion of storm-troopers, infused with you may our men (move forward) impetuous and joyful, bearing pointed arrows, sharpening their weapons and bothering (the enemy) like flames of fire. (Also Rg.. X.84.1)
Translation
Let intrepid men with this wrath accompanied by warriors, destroying. the enemies who are mounting on chariots, full of pleasure, mentally satisfied, equipped with pointed arrows, sharpening their weapons and full of ardor, march on.
Translation
O perseverance of the valiant, with thy help, let our brave men, vanquishing the foe along with his conveyance, march on, like flames of fire in form, exulting, joyful, with pointed arrows, sharpening their weapons!
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
१−(त्वया) मन्युना (मन्यो) यजिमनिशुन्धि०। उ० ३।२०। इति मन ज्ञाने गर्वे च-युच्, अनादेशाभावः। मन्युर्मन्यतेर्दीप्तिकर्मणः क्रोधकर्मणो वध-कर्मणो वा मन्यन्त्यस्मादिषवः-निरु० १०।२९। हे क्रोध-निघ० २।१३। (सरथम्) समानं रथमारुह्य। सरथमारुह्य-निरु० १०।३०। (आरुजन्तः) आभञ्जन्तः पीडयन्तः शत्रून् (हर्षमाणाः) हृष तुष्टौ-शानच्। हर्षं कुर्वाणाः (हृषितासः) संतुष्टाः सन्तः (मरुत्वन्) अ० १।२०।१। मरुद्भिः शूरैर्युक्त (तिग्मेषवः) तीक्ष्णशराः (आयुधा) आयुधानि खड्गादीनि शस्त्राणि (संशिशानाः) शो तनूकरणे−कानच्। संश्यन्तः। तीक्ष्णीकुर्वन्तः। (उप) व्याप्तौ (प्र यन्तु) प्रकर्षेण गच्छन्तु (नरः)। नयतेर्डिच्च। उ० २।१००। इति णीञ् प्रापणे-ऋ। नेतारः (अग्निरूपाः) अग्निवत्तीक्ष्णदाहादिकर्माणः। यद्वा सन्नद्धाः कवचिनः। अग्निरूपा अग्निकर्माणः सन्नद्धाः कवचिन इति वा-निरु० १०।३० ॥
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