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अथर्ववेद के काण्ड - 5 के सूक्त 10 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 10/ मन्त्र 8
    ऋषिः - ब्रह्मा देवता - वास्तोष्पतिः छन्दः - पुरोधृत्यनुष्टुब्गर्भा पराष्टित्र्यवसाना चतुष्पदातिजगती सूक्तम् - आत्मा रक्षा सूक्त
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    बृ॑ह॒ता मन॒ उप॑ ह्वये मात॒रिश्व॑ना प्राणापा॒नौ। सूर्या॒च्चक्षु॑र॒न्तरि॑क्षा॒च्छ्रोत्रं॑ पृथि॒व्याः शरी॑रम्। सर॑स्वत्या॒ वाच॒मुप॑ ह्वयामहे मनो॒युजा॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    बृ॒ह॒ता । मन॑: ।उप॑ । ह्व॒ये॒ । मा॒त॒रिश्व॑ना । प्रा॒णा॒पा॒नौ । सूर्या॑त् । चक्षु॑:। अ॒न्तरि॑क्षात् । श्रोत्र॑म् । पृ॒थि॒व्या: । शरी॑रम् । सर॑स्वत्या: । वाच॑म् । उप॑ । ह्व॒या॒म॒हे॒ । म॒न॒:ऽयुजा॑ ॥१०.८॥


    स्वर रहित मन्त्र

    बृहता मन उप ह्वये मातरिश्वना प्राणापानौ। सूर्याच्चक्षुरन्तरिक्षाच्छ्रोत्रं पृथिव्याः शरीरम्। सरस्वत्या वाचमुप ह्वयामहे मनोयुजा ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    बृहता । मन: ।उप । ह्वये । मातरिश्वना । प्राणापानौ । सूर्यात् । चक्षु:। अन्तरिक्षात् । श्रोत्रम् । पृथिव्या: । शरीरम् । सरस्वत्या: । वाचम् । उप । ह्वयामहे । मन:ऽयुजा ॥१०.८॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 5; सूक्त » 10; मन्त्र » 8
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    ब्रह्म की उत्तमता का उपदेश।

    पदार्थ

    (बृहता) बढ़े हुए ज्ञान के साथ (मनः) मन को, (मातरिश्वना) आकाशगामी वायु के साथ (प्राणापानौ) भीतर और बाहिर जानेवाले श्वास को, (सूर्यात्) सूर्य से (चक्षुः) दृष्टि, (अन्तरिक्षात्) आकाश से (श्रोत्रम्) श्रवणशक्ति, और (पृथिव्याः) पृथिवी से (शरीरम्) शरीर को (उप ह्वये) मैं आदर से माँगता हूँ। (मनोयुजा) मन से जुड़ी हुई (सरस्वत्या) विज्ञानवाली विद्या के साथ (वाचम्) वाणी को (उप) आदर से (ह्वयामहे) हम माँगते हैं ॥८॥

    भावार्थ

    मनुष्य वेदविज्ञान द्वारा वायु, सूर्य, आकाश, और पृथिवी से उत्तम गुणों की प्राप्ति करके शारीरिक और मानसिक बल बढ़ावें ॥८॥ इति द्वितीयोऽनुवाकः ॥

    टिप्पणी

    ८−(बृहता) प्रवृद्धेन ज्ञानेन (मनः) चित्तम् (उप) आदरेण (ह्वये) याचे (मातरिश्वना) श्वन्नुक्षन्पूषन्०। उ० १।१५९। इति मातरि+टुओश्वि गतिवृद्ध्योः−कनिन्। मातरिश्वा वायुर्मातर्यन्तरिक्षे श्वसिति मातर्याश्वनितीति वा−निरु० ७।२६। मातरि मानकर्तरि आकाशे गमनशीलेन वायुना (प्राणापानौ) श्वासप्रश्वासौ (सूर्यात्) आदित्यात् (चक्षुः) दृष्टिम् (अन्तरिक्षात्) आकाशात् (श्रोत्रम्) श्रवणम् (पृथिव्याः) भूमेः (शरीरम्) देहम् (सरस्वत्या) ज्ञानवत्या विद्यया (वाचम्) वाणीम् (उप) (ह्वयामहे) याचामहे (मनोयुजा) मू० ७।५। मनसा युक्त्या ॥

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    विषय

    'मनोयुजा सरस्वत्या' वाचम् [ उपह्वयामहे]

    पदार्थ

    १. मैं (बृहता) = महत्तत्त्व से (मनः उपह्वये) = मन को पुकारता है। महत्तत्त्व से प्राप्त होनेवाला मेरा यह मन भी महान् हो। (मातरिश्वना) = वायु से मैं (प्राणापानौ) = प्राणापान को माँगता हूँ। मेरे प्राणापान बायु की भाँति निरन्तर गतिशील हो। २. (सूर्यात् चक्षुः) = सूर्य से मैं चक्षु माँगता हूँ। सूर्याभिमुख होकर ध्यान करने से मेरी दृष्टिशक्ति ठीक बनी रहे। (अन्तरिक्षात् श्रोत्रम्) = अन्तरिक्ष से मुझे श्रोत्रशक्ति प्राप्त हो। (पृथिव्याः शरीरम्) = पृथिवि से मुझे शरीर मिले। अन्तरिक्ष-'अन्तरिक्ष' मध्यमार्ग में चलने से श्रोत्रशक्ति ठीक बनी रहे। पृथिवी के सम्पर्क में मेरा शरीर सुदृढ़ रहे। ३. (मनोयुजा) = मन के सम्पर्कवाली (सरस्वत्या) = सरस्वती से हम (वाचम् उपह्वयामहे) = ज्ञान की बाणियों का आराधन करते हैं-मनोयोग से विद्या पढ़ेगें तो ज्ञान बढ़ेगा ही।

    भावार्थ

    हमारे शरीर के सब अङ्ग विराट् शरीर के अङ्गों से मेलवाले होकर उत्तम बने रहें। हम मनोयोग द्वारा सरस्वती का आराधन करते हुए ज्ञान को बढ़ाएँ।

    विशेष

    प्रत्येक अङ्ग में सुस्थिर ब्रह्मा 'अथर्वा' बनता है। आत्म-निरीक्षण करता हुआ यह एक-एक अङ्ग को उत्तम बनाता है। [अथ अर्वा] यह आत्मनिरीक्षक 'अथर्वा' अगले सूक्त का ऋषि है।

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    भाषार्थ

    (बृहता) बृहद्-ब्रह्म द्वारा (मनः) पवित्र हुए मन का (उप) समीप अर्थात् निज शरीर में (ह्वये) मैं आह्वान करता हूँ, (मातरिश्वना) अन्तरिक्ष में व्याप्त वायु द्वारा (प्राणापानौ) प्राण और अपान अर्थात् श्वास-प्रश्वास को [उप ह्वये]। (सूर्यात्) सूर्य से (चक्षुः) चक्षु का, (अन्तरिक्षात्) अन्तरिक्ष से (श्रोत्रम्) श्रवणशक्ति का, (पथिव्याः) पृथिवी से ( शरीरम् ) शरीर का [उप ह्वये]। (मनोयुजा) मननयुक्त (सरस्वत्या) विज्ञानमयी वेदवाणी द्वारा (वाचम्) वाणी का (उप ह्ववामहे) हम निज समीप आह्वान करते हैं।

    टिप्पणी

    [बृहद्-ब्रह्मरूपी-कवच के कारण विषयों का प्रहार मन पर नहीं हुआ, अतः मन पवित्र हो गया है। मनोयुजा= विज्ञानमयी वेदवाणी मनन-युक्ता है, मननयोग्या है, मननमयी है, उस वाणी के उच्चारण से हमारी वाणी भी मननमयी हो जाता है, यही सरस्वती से निज वाणी का अह्वान है। व्यक्ति, निज शरीर और शारीरिक शक्तियों को, जगद्-व्यापी निर्मल तत्त्वों से उत्पन्न मानता है, अत: अपने-आपको पूर्ण पविवरूप मानता है । मन तो पवित्र हो गया ब्रह्मकवच द्वारा और मन के पवित्र हो जाने पर शरीर और शरीरायवव स्वतः पवित्र हो जाते हैं। व्यक्ति तब अपने को "सर्वतः पवित्र" समझने लगता है।]

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    विषय

    मन को दृढ़ करने का उपाय।

    भावार्थ

    प्रजापति की विशाल शक्तियों से अपने अंगों में विशेष शक्ति को इस प्रकार प्राप्त करें। मैं (बृहता) उस महान् ब्रह्म या महान् महत्तत्व से अपने (मनः) मनन शक्ति, बुद्धितत्व को (उपह्वये) बलवान् रूप में प्राप्त करूं (मातरिश्वना) इस महान् वायु से अपने (प्राणापानौ) प्राण और अपान दोनों को बलवान् करूं। (सूर्यात् चक्षुः) सूर्य से चक्षु को, (अन्तरिक्षात् श्रोत्रम्) अन्तरिक्ष से श्रोत्र को और (पृथिव्याः शरीरम्) पृथिवी से शरीर के स्थूल, अश्वमय भाग को पुष्ट करूं और (मनः-युजा) मन के साथ योग देने वाली बुद्धिपूर्वक समाहित (सरस्वत्या) सरस्वती और वेद-वाणी से (वाचम्) अपनी वाणी को (उप ह्वयामहे) स्थिर करते हैं। इति द्वितीयोऽनुवाकः।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ब्रह्मा ऋषिः। वास्तोष्पतिर्देवता। १-६ यवमध्या त्रिपदा गायत्री। ७ यवमध्या ककुप्। पुरोधृतिद्व्यनुष्टुब्गर्भा पराष्टित्र्यवसाना चतुष्पदाति जगती। अष्टर्चं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Strength of Mind and Soul

    Meaning

    I call upon my mind and soul with the infinite potential of cosmic mind and Prajapati, I pray for energy of prana and apana from the winds, eye from the sun, ear from space, and body from the earth for the invincible cover of life. With Brhat Saman, we invoke and pray for the Word of Divinity from Mother Sarasvati, inspirer of mind, intellect and soul with knowledge and the strength and power that flows from knowledge.

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    Translation

    I ask for the mind from the great one, in-breath and outbreath from the atmospheric wind, O sight from the sun, body from the earth. We ask for the speech full of thought from the learning divine.

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    Translation

    I describe the mind with Brihatsaman, inhaling and exhaling breaths with air, eyes with the sun, ears with the space and body with earth. I describe the organ of speech with the general speech allied with mind.

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    Translation

    I strengthen my intellect through, the contemplation of God, my in-going, out-going breaths through the control of air, my eye through the light of the sun, my ear through vibrations in space, my body through food-stuffs grown in the Earth. We strengthen our speech through Vedic verses which suit the mind.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ८−(बृहता) प्रवृद्धेन ज्ञानेन (मनः) चित्तम् (उप) आदरेण (ह्वये) याचे (मातरिश्वना) श्वन्नुक्षन्पूषन्०। उ० १।१५९। इति मातरि+टुओश्वि गतिवृद्ध्योः−कनिन्। मातरिश्वा वायुर्मातर्यन्तरिक्षे श्वसिति मातर्याश्वनितीति वा−निरु० ७।२६। मातरि मानकर्तरि आकाशे गमनशीलेन वायुना (प्राणापानौ) श्वासप्रश्वासौ (सूर्यात्) आदित्यात् (चक्षुः) दृष्टिम् (अन्तरिक्षात्) आकाशात् (श्रोत्रम्) श्रवणम् (पृथिव्याः) भूमेः (शरीरम्) देहम् (सरस्वत्या) ज्ञानवत्या विद्यया (वाचम्) वाणीम् (उप) (ह्वयामहे) याचामहे (मनोयुजा) मू० ७।५। मनसा युक्त्या ॥

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