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अथर्ववेद के काण्ड - 6 के सूक्त 120 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 120/ मन्त्र 3
    ऋषिः - कौशिक देवता - अन्तरिक्षम्, पृथिवी, द्यौः, अग्निः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - सुकृतलोक सूक्त
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    यत्रा॑ सु॒हार्दः॑ सु॒कृतो॒ मद॑न्ति वि॒हाय॒ रोगं॑ त॒न्वः स्वायाः॑। अश्लो॑णा॒ अङ्गै॒रह्रु॑ताः स्व॒र्गे तत्र॑ पश्येम पि॒तरौ॑ च पु॒त्रान् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यत्र॑ । सु॒ऽहार्द॑: । सु॒ऽकृत॑: । मद॑न्ति । वि॒ऽहाय॑ । रोग॑म् । त॒न्व᳡: । स्वाया॑: । अश्लो॑णा: । अङ्गै॑: । अह्रु॑ता: । स्व॒:ऽगे । तत्र॑ । प॒श्ये॒म॒ । पि॒तरौ॑ । च॒ । पु॒त्रान्॥१२०.३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यत्रा सुहार्दः सुकृतो मदन्ति विहाय रोगं तन्वः स्वायाः। अश्लोणा अङ्गैरह्रुताः स्वर्गे तत्र पश्येम पितरौ च पुत्रान् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यत्र । सुऽहार्द: । सुऽकृत: । मदन्ति । विऽहाय । रोगम् । तन्व: । स्वाया: । अश्लोणा: । अङ्गै: । अह्रुता: । स्व:ऽगे । तत्र । पश्येम । पितरौ । च । पुत्रान्॥१२०.३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 120; मन्त्र » 3
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    हिन्दी (4)

    विषय

    घर में आनन्द बढ़ाने का उपदेश।

    पदार्थ

    (यत्र) जहाँ पर (सुहार्दः) सुन्दर हृदयवाले (सुकृतः) पुण्यात्मा लोग (स्वायाः) अपने (तन्वः) शरीर का (रोगम्) रोग (विहाय) छोड़ कर (मदन्ति) आनन्द भोगते हैं। (तत्र) वहाँ पर (स्वर्गे) स्वर्ग में (अश्लोणाः) बिना लँगड़े हुए और (अङ्गैः) अङ्गों से (अह्रुताः) बिना टेढ़े हुए हम (पितरौ) माता पिता (च) और (पुत्रान्) पुत्रों को (पश्येम) देखते रहें ॥३॥

    भावार्थ

    जिस घर में सब स्त्री-पुरुष सुकर्मी और नीरोग होवें, उस स्वर्ग में ही सब कुटुम्बी मिलकर सुख के स्थिर रखने का प्रयत्न करें ॥३॥ इस मन्त्र का पूर्वार्ध आ चुका है−अ० ३।२८।५ ॥

    टिप्पणी

    ३−(यत्र) यस्मिन् गृहे (सुहार्दः) अ० ३।२८।५। सुहृदयाः। अनुकूलकारिणः (सुकृतः) पुण्यकर्माणः (मदन्ति) हर्षन्ति (विहाय) परित्यज्य (रोगम्) व्याधिम् (तन्वः) शरीरस्य (स्वायाः) स्वकीयायाः (अश्लोणाः) धापॄवस्यज्यतिभ्यो नः। उ० ३।६। इति श्रु श्रवणे गतौ च−न, यद्वा। श्रोण संघाते−अच्, रस्य लत्वम्, यद्वा श्लोण संघाते−अच्। अश्रोणाः। अपङ्गवः (अङ्गैः) शरीरावयवैः (अह्रुताः) अकुटिलगतयः (स्वर्गे) सुखविशेषे (पश्येम) साक्षात्कुर्य्याम (पितरौ) मातरं पितरं च। (च) (पुत्रान्) सुतान् ॥

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    विषय

    स्वर्ग-तुल्य गृह

    पदार्थ

    १. (यत्र) = जिस ग्रह में (सुहार्दः) = शोभन हदयावाले, (सकृतः) = यज्ञादि उत्तम कर्मों को करनेवाले लोग (स्वायाः तन्व:) = अपने शरीर के (रोगम्) = पापमूलभूत ज्वरादि को (विहाय) = छोड़कर (मदन्ति) = दुख से असम्भिन्न सुख के अनुभव में आनन्दित होते हैं, वही तो स्वर्ग है। वह गृहस्थ स्वर्ग है जहाँ लोगों के हृदय पवित्र हैं, जहाँ लोग यज्ञादि उत्तम कर्मों में लगे हुए हैं और जहाँ उनके शरीरों में रोग नहीं है। २. हमें (अङ्गेः अश्लोणा:) = अङ्गों से अविकृत होते हुए-कुष्ठ आदि रोगों से रहित (अह्रुताः) = अकुटिल गतिवाले व सरल स्वभाववाले होते हुए (तत्र स्वर्गे) = वहाँ स्वर्ग-तुल्य घर में (पितरौ) = माता-पिता को (च) = और (पुत्रान) = पुत्रों को (पश्येम) = देखें। माता-पिता का भी ध्यान करें, उनके भोजन आदि की व्यवस्था में गड़बड़ न हो और पुत्रों के शिक्षण-दीक्षण में त्रुटि न रह जाए।

    भावार्थ

    स्वर्ग-तुल्य गृह वह है जहाँ [क] सबके हृदय पवित्र हैं, [ख] सब यज्ञादि उत्तम कर्मों को करनेवाले हैं, [ग] सबके शरीर नीरोग हैं, [घ] अङ्ग अविकृत हैं, [ङ] स्वभाव सरल व अकुटिल हैं, [च] माता-पिता का आदर है और [छ] सन्तानों का शिक्षण-दीक्षण ठीक है।

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    भाषार्थ

    (स्वाया) अपनी (तन्वः) तनू के (रोगम) रोगों को (विहाय) त्याग कर (सुहार्द:) उत्तम हृदयों वाले, (सुकृतः) सुकर्मी (यत्र) जहां (मदन्ति) मोद-प्रमोद करते हैं, (अश्लोणाः१) पङ्गुपन से रहित और (अङ्गैः) से (अह्रुता) अकुटिल हुए, (तत्र) उस (स्वर्ग) स्वर्ग में (पितरौ) माता पिता का (च) और (पुत्रान्) पुत्रों को (पश्येम) हम देखें।

    टिप्पणी

    [सुहार्दः = जिनके हृदयों में भक्ति, श्रद्धा, प्रेम का निवास है। सुकृतः= परोपकार, यज्ञ याग आदि करने वाले। "माता, पिता, तथा पुत्रों को स्वर्ग में देखें"– इस कथन से प्रतीत होता है कि मन्त्र में "गृहस्थ" को स्वर्ग कहा है। महर्षि दयानन्द के अनुसार पृथिवीलोक से अतिरिक्त लोकलोकान्तरों में भी मनुष्य आदि का निवास है, [अतः सम्भव है कि सत्त्वगुण के प्रतिरेक से ब्रह्माण्ड में कहीं स्वर्गलोक तथा नाकनोक भी हों] (सत्यार्थ प्रकाश, समुल्लास ८, पृ० ३६०, रामलालकपूर ट्रस्ट द्वितीय सस्करण)।] [१. मन्त्रानुसार तनू के रोगियों और विकृत अङ्ग वालों को गृहस्थ का निषेध किया है।]

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    विषय

    पापों का त्याग कर उत्तम लोक को प्राप्त होना।

    भावार्थ

    (यत्र) जहां (सुहार्दः) उत्तम हृदयवाले (सुकृतः) पुण्याचारी पुरुष (स्वायाः तन्वः) अपने शरीर के (रोगं विहाय) रोगों से मुक्त होकर (अंगेः) अंगों से (अश्लोणाः) अविकृत (अह्रुताः) कुटिलता से रहित, सरल स्वभाव होकर (मदन्ति) आनन्द से जीवन व्यतीत करते हैं हम भी (तत्र) वहाँ उन लोगों के बीच (स्वर्गे) उसी सुखमय देश में (पितरौ) अपने मां बाप और (पुत्रान् च) पुत्रों को आनन्द प्रसन्नरूप में विचरते हुए (पश्येम) देखें।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    कौशिक ऋषिः। मन्त्रोक्ता देवता। १ जगती। २ पंक्ति:। ३ त्रिष्टुप्। तृचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    The Happy Home

    Meaning

    Where people of holy heart and virtuous action live and rejoice, having left off the ailments of their own body, with limbs undamaged and whole, their minds unsullied by crookedness, in a land of joy, there let us live and see our parents and children together in a happy home.

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    Translation

    Where the virtuous ones live in friendly happiness, leaving behind the diseases of their bodies, undeformed in limbs and free from lameness - there in the heaven, may we see our parents as well as our children.

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    Translation

    May we behold our sons and parents in the happy and prosperous life of house-hold (Svarga) where the men of good conscience and good deeds leaving behind the infirmities of the body, free from distortion of the limbs and lameness, enjoy the happiness.

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    Translation

    In that house where virtuous, noble-minded persons, leaving behind their bodily infirmities, reside happily, there in that paradise of a happy home, may we behold our sons and parents from distortion of the limbs and lameness.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ३−(यत्र) यस्मिन् गृहे (सुहार्दः) अ० ३।२८।५। सुहृदयाः। अनुकूलकारिणः (सुकृतः) पुण्यकर्माणः (मदन्ति) हर्षन्ति (विहाय) परित्यज्य (रोगम्) व्याधिम् (तन्वः) शरीरस्य (स्वायाः) स्वकीयायाः (अश्लोणाः) धापॄवस्यज्यतिभ्यो नः। उ० ३।६। इति श्रु श्रवणे गतौ च−न, यद्वा। श्रोण संघाते−अच्, रस्य लत्वम्, यद्वा श्लोण संघाते−अच्। अश्रोणाः। अपङ्गवः (अङ्गैः) शरीरावयवैः (अह्रुताः) अकुटिलगतयः (स्वर्गे) सुखविशेषे (पश्येम) साक्षात्कुर्य्याम (पितरौ) मातरं पितरं च। (च) (पुत्रान्) सुतान् ॥

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