अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 127/ मन्त्र 1
ऋषिः - भृग्वङ्गिरा
देवता - वनस्पतिः, यक्ष्मनाशनम्
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - यक्ष्मनाशन सूक्त
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वि॑द्र॒धस्य॑ ब॒लास॑स्य॒ लोहि॑तस्य वनस्पते। वि॒सल्प॑कस्योषधे॒ मोच्छि॑षः पिशि॒तं च॒न ॥
स्वर सहित पद पाठवि॒ऽद्र॒धस्य॑ । ब॒लास॑स्य । लोहि॑तस्य । व॒न॒स्प॒ते॒ । वि॒ऽसल्प॑कस्य । ओ॒ष॒धे॒ । मा । उत् । शि॒ष॒: । पि॒शि॒तम् । च॒न ॥१२७.१॥
स्वर रहित मन्त्र
विद्रधस्य बलासस्य लोहितस्य वनस्पते। विसल्पकस्योषधे मोच्छिषः पिशितं चन ॥
स्वर रहित पद पाठविऽद्रधस्य । बलासस्य । लोहितस्य । वनस्पते । विऽसल्पकस्य । ओषधे । मा । उत् । शिष: । पिशितम् । चन ॥१२७.१॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
रोग के नाश का उपदेश।
पदार्थ
(वनस्पते) हे वटादि वृक्ष ! (ओषधे) हे अन्न आदि ओषधि ! (विद्रधस्य) ज्ञाननाशक, हृदय के फोड़े के, (बलासस्य) बल के गिरानेवाले सन्निपात कफादि रोग के, (लोहितस्य) रुधिर विकार सूजन आदि के, (विसल्पकस्य) शरीर में फैलनेवाले हड़फूटन के (पिशितम् चन) थोड़े अंश को भी (मा उत शिषः) शेष मत छोड़ ॥१॥
भावार्थ
वैद्य रोगनिदान जानकर उत्तम परीक्षित ओषधियों से रोगनिवृत्ति करे ॥१॥
टिप्पणी
१−(विद्रधस्य) विदं ज्ञानं रध्यति हिनस्तीति, विद् ज्ञाने क्विप्+रध हिंसने पाके च−अच्। हृदयव्रणस्य। विद्रधेः (बलासस्य) अ० ४।९।८। सन्निपातश्लेष्मादिविकारस्य (लोहितस्य) रुहे रश्च लो वा। उ० ३।९४। इति रुह बीजजन्मनि प्रादुर्भावे च−इतन्, रस्य लः। प्रादुर्भावस्य। रुधिरविकारस्य (वनस्पते) वटादिवृक्ष (विसल्पकस्य) सृप सर्पणे−अच्, कन्, रस्य लः। शरीरे विसर्पणशीलस्य विसर्परोगस्य (ओषधेः) (मोच्छिषः) शिष्लृ विशेषणे−लुङ्। मोच्छेषय (पिशितम्) पिश अवयवे−क्त। अवयवम्। अंशम् (चन) किमपि ॥
विषय
'विद्रध, बलास, लोहित, विसल्पक' की चिकित्सा
पदार्थ
१. हे (वनस्पते) = चतुरंगुलपलाशवृक्ष! (ओषधे) = विसपर्क आदि व्याधियों के औषधभूत वटादिवृक्ष ! (विद्रधस्य) = विदारणशील हृदयव्रण के-चेतना को नष्ट करनेवाले व्रणविशेष के (बलासस्य) = [बलम् अस्यति क्षिपति] कास-श्वास आदि के, (लोहितस्य) = रुधिरनावात्मक रोग के तथा (विसल्पकस्य) = [विविधं सर्पति नाडीमुखेन] शरीर में फैलनेवाले हड़फूटन के (पिशितं चन) = निदानभूत दुष्ट मांस को भी-दुष्ट त्वक् [चमड़ी] आदि को (मा उच्छिष) = शेष मत छोड़।
भावार्थ
वात, पित्त, कफ के दोषों के तारतम्य से 'त्वचा, रुधिर, मांस' आदि धातुओं को दूषित करके विसर्पक आदि रोग उत्पन्न होते हैं। उन्हें निदानसहित पलाश-बट आदि वनस्पतियों के प्रयोग से दूर करो।
भाषार्थ
(विद्रधस्य) विदारण१ शील व्रण विशेष के, (बलासस्य) वलक्षयी खांसी आदि के, (लोहितस्य) रक्त-सम्बन्धी रोगों के, (विसल्पकस्य) विशेष सर्पण करने वाले खाज के (वनस्पते ओषधे) हे वनस्पति रूप ओषधि ! तू (पिशितम् चन) मांस को भी (मा उच्छिषः) न शेष रहने दे।
टिप्पणी
[रोगों के स्वरूप सायणाचार्य के भाष्य के अनुसार कथित किये हैं। पिशितम्= मांस। रोगों को देही रूप में वर्णित जानकर उनके मांस का कथन हुआ है। अभिप्राय यह कि कथित वनस्पति ओषधि रोगों के किसी अंश को भी शेष न रहने दे, सब अंशों का विनाश कर दे अथवा पिशितम्= पिश अवयवे (तुदादिः), इन रोगों के किसी भी अवयव को, अंश को शेष न रहने दे।] [१. सम्भवतः यह कार्बङ्कल (carbuncle) व्रण हो। इसमें छाननी की तरह पास-पास बहुत से छेद होते हैं, मधुमक्षिका के छत्ते की तरह।]
विषय
कफ आदि रोगों की चिकित्सा।
भावार्थ
हे (वनस्पते) हे ओषधे ! (बलासस्य) कफ से उत्पन्न रोग के (विद्रधस्य) गिलटी आदि रोग के, और (लोहितस्य) रुधिर विकार से उत्पन्न लाल चकत्तेवाले रोग के (विसल्पकस्य) तथा त्वचा पर फैलने वाले विसर्प नाम कुष्ट रोग के (पिशितम्) विकृत मांस को (मा चन उच्छिषः) बिलकुल बचा न रहने दे। नहीं तो वह फिर विकार उत्पन्न करके दुःख का कारण होगा।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
भृग्वङ्गिरा ऋषिः। वनस्पतिरुत यक्ष्मनाशनं देवता। १-२ अनुष्टुभौ त्रिपदा जगती॥
इंग्लिश (4)
Subject
Yakshma-Nashanam
Meaning
O Vanaspati, herbaceous plants and trees, O Oshadhi, sanative herb, leave not the least trace of the heart sore, dementia, blood problem or any disease spreading all over the body system.
Subject
Vanaspatih (herb)
Translation
O lord of the forest, O herb, may you not leave even a (trace) particle remaining of the cold abcess, the wasting disease, haemorrage and the herpes.
Translation
Let not this herbaceous plant remain a particle of obsess of decline, of inflammation of eyes and of penetrating pain.
Translation
Of abscess, of consumption of inflammation of the eyes, O Plant, of painful itch, thou Herb, let not a particle remain.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
१−(विद्रधस्य) विदं ज्ञानं रध्यति हिनस्तीति, विद् ज्ञाने क्विप्+रध हिंसने पाके च−अच्। हृदयव्रणस्य। विद्रधेः (बलासस्य) अ० ४।९।८। सन्निपातश्लेष्मादिविकारस्य (लोहितस्य) रुहे रश्च लो वा। उ० ३।९४। इति रुह बीजजन्मनि प्रादुर्भावे च−इतन्, रस्य लः। प्रादुर्भावस्य। रुधिरविकारस्य (वनस्पते) वटादिवृक्ष (विसल्पकस्य) सृप सर्पणे−अच्, कन्, रस्य लः। शरीरे विसर्पणशीलस्य विसर्परोगस्य (ओषधेः) (मोच्छिषः) शिष्लृ विशेषणे−लुङ्। मोच्छेषय (पिशितम्) पिश अवयवे−क्त। अवयवम्। अंशम् (चन) किमपि ॥
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