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अथर्ववेद के काण्ड - 6 के सूक्त 129 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 129/ मन्त्र 1
    ऋषिः - अथर्वा देवता - भगः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - भगप्राप्ति सूक्त
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    भगे॑न मा शांश॒पेन॑ सा॒कमिन्द्रे॑ण मे॒दिना॑। कृ॒णोमि॑ भ॒गिनं॒ माप॑ द्रा॒न्त्वरा॑तयः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    भगे॑न । मा॒ । शां॒श॒पेन॑ । सा॒कम् । इन्द्रे॑ण । मे॒दिना॑ । कृ॒णोमि॑ । भ॒गिन॑म् । मा॒ । अप॑ । द्रा॒न्तु॒ । अरा॑तय: ॥१२९.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    भगेन मा शांशपेन साकमिन्द्रेण मेदिना। कृणोमि भगिनं माप द्रान्त्वरातयः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    भगेन । मा । शांशपेन । साकम् । इन्द्रेण । मेदिना । कृणोमि । भगिनम् । मा । अप । द्रान्तु । अरातय: ॥१२९.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 129; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    ऐश्वर्य पाने का उपदेश।

    पदार्थ

    (मेदिना) परममित्र (इन्द्रेण साकम्) सम्पूर्ण ऐश्वर्यवाले जगदीश्वर के साथ वर्तमान (शांशपेन) शान्ति के स्पर्श से युक्त (भगेन) ऐश्वर्य से (मा मा) अपने को अवश्य (भगिनम्) बड़े ऐश्वर्यवाला (कृणोमि) मैं करूँ। (अरातयः) हमारे सब कंजूस स्वभाव (अप द्रान्तु) दूर भाग जावें ॥१॥

    भावार्थ

    मनुष्य आनन्दकन्द परमेश्वर के अखण्ड कोश से उपकार लेकर सुपात्रों को दान करते रहें ॥१॥

    टिप्पणी

    १−(भगेन) पुंसि सज्ञायां घः प्रायेण। पा० ३।३।११८। भज सेवायाम्−घ। चजोः कु घिण्ण्यतोः। पा० ७।३।५२। इति कुत्वम्। ऐश्वर्येण। धनेन−निघ० २।१०। (मा मा) मां माम्। आत्मानमेव (शांशपेन) शेपः शपतेः स्पृशतिकर्मणः−निरु० ३।२१। शम्+शप स्पर्शे−अच्। ततोऽण्। शान्तेः स्पर्शयुक्तेन (साकम्) सह वर्तमानेन (इन्द्रेण) परमेश्वरेण (मेदिना) परमस्नेहिना (कृणोमि) करोमि (भगिनम्) ऐश्वर्यवन्तम् (अप द्रान्तु) द्रा कुत्सायां गतौ। दूरे पलायन्ताम् (अरातयः) अदानशीला अस्माकं स्वभावाः ॥

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    विषय

    शांशप भग

    पदार्थ

    १. मैं (शांशपेन) = [शम् शप-शयते स्पृशतिकर्मण:-नि० ३.१२] शान्ति के स्पर्श से युक्त (भगेन) = ऐश्वर्य से (मा) = मुझे तथा (मेदिना) = सबके प्रति स्नेहवाले (इन्द्रेण) = परमैश्वर्यशाली प्रभु के (साकम्) = साथ (मा) = अपने-आपको (भगिनम्) = ऐश्वर्यशाली (कृणोमि) = करता हूँ। (अरातयः) = सब अदानवृत्तियाँ व शत्रु (अपद्रान्तु) = मुझसे दूर भाग जाएँ। २. ऐश्वर्य में यह आशंका बनी रहती है कि जीवन कहीं विषय-विलास की वृत्तिवाला न बन जाए, परन्तु यदि ऐश्वर्य के साथ प्रभु स्मरण भी बना रहे तो ऐसी आशंका नहीं रह जाती, अत: मन्त्र में ऐश्वर्य के साथ प्रभु-स्मरण को जोड़ दिया गया है।

    भावार्थ

    सुव्यवस्थावाले राष्ट्र में मैं पुरुषार्थ से उस धन का अर्जन कसैं, जिसमें किसी प्रकार की अशान्ति नहीं है। इस धन के साथ प्रभु-स्मरणपूर्वक चलता हुआ मैं विलास में बह जाने से बचा रहता हूँ और धन को लोकहित के कार्यों में व्यय करता हूँ।

     

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    भाषार्थ

    (मेदिना) स्नेही (इन्द्रेण साकम्) विद्युत् के सङ्ग (शांशपेन= शिंशपा + अरण [तस्येदम्]) "शिशपा" वृक्ष सम्बन्धी (भगेन१) ऐश्वर्य द्वारा (मा) मुझ अर्थात् अपने आप को (भगिनम्) ऐश्वर्य वाला (कृणोमि) मैं करता हूं, (अरातयः) अदान आदि शत्रु (मा अप) मुझसे अवगत होकर (द्रान्तु) कुत्सित गति को प्राप्त हों।

    टिप्पणी

    [मेदिना= मिदि स्नेहने (चुरादिः), वर्षा जल द्वारा स्निग्ध इन्द्र अर्थात् विद्युत्। यथा "वायुर्वा, इन्द्रो वा मध्यस्थानः" (निरुक्त १०।१, १२।४१)। इन्द्र मध्यस्थानी अर्थात् अन्तरिक्षस्थानी है, अतः विद्युत् है। शांशपेन= शिंशपा की समिधा रूपी भग द्वारा। मा= आहुति प्रदाता मैं, अपने आप को। इन आहुतियों द्वारा विद्यतु की वृद्धि होकर, विद्युत् वर्षा करती है, और ऐश्वर्य बढ़ता है। द्रान्तु= द्रा कुत्सायां गतौ (अदादिः) [अथवा “द्राति गतिकर्मा" (निघं० २।२४), अतः अपद्रान्तु= अपगच्छन्तु। भगेन= ऐश्वर्यस्य समग्रस्य धर्मस्य यशसः श्रियः। ज्ञानवैराग्ययोश्चैव षण्णां भग इतीरणा॥ "शिशपा" सम्भवतः शीशमवृक्ष है। सभी वृक्ष विद्युत् जन्य वर्षा से उत्पन्न होते हैं। शीशम बहुमूल्य वृक्ष होता है। अतः शीशमरूपी ऐश्वर्य की प्राप्ति से अदान आदि अराति अपगत हो जाते हैं। यह भावना मन्त्र में प्रतीत होती है।] [१. ऐश्वर्यस्य समग्रस्य धर्मस्य यशसः श्रियः। ज्ञानवैराग्ययोश्चैव षण्णां भग इतीरणा॥]

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    विषय

    राजा का ऐश्वर्यमय रूप।

    भावार्थ

    (भेदिना इन्द्रेण साकम्) सब के स्नेही इन्द्र = राजा के साथ मिलकर (शांशपेन भगेन) शंशपा नामक वृक्ष के समान अति शीघ्र वृद्धिशाली और शांतिदायक ऐश्वर्य से (मा भगिनं कृणोमि) मैं अपने आपको ऐश्वर्यवान् करूं। (अरातयः) मेरे शत्रु और दुःखकारी, अमनोहर दरिद्रताएँ (अप द्वान्तु) दूर हों।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अथर्वाङ्गिरा ऋषिः। भगो देवता। अनुष्टुभः। तृचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Good Fortune

    Meaning

    By the grace of Indra, lord of glory, beatific and blissful, I work and raise myself to prosperity, power and good fortune with excellence, and then, I pray, let all want, adversity, meanness and miserliness flee away from me.

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    Subject

    Bhagah

    Translation

    With the magnificence of the Sisama or Sisu (Sansapa) (Dalbergia sisu) tree, in company of the friendly resplendent one, I make myself magnificent. May the enemies not paying our dues run away helter-skelter.

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    Translation

    I May I, the King having with me Indra, the Almighty God as my friend to aid make me happy and fortunate with the strength and vigor which the tree of Shinshapa possesses throughout and let the troubles flee away from me.

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    Translation

    With thee fortune of the Friendly God, yoked with peace, I verily make myself fortunate. May all our habits of niggardliness fly and begone.

    Footnote

    Shanshapa is interpreted by some commentators as a timber tree, known for its rapid growth, beauty and usefulness. Pt. Khem Karan Das Trivedi interprets the word as "equipped, yoked with peace."

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    १−(भगेन) पुंसि सज्ञायां घः प्रायेण। पा० ३।३।११८। भज सेवायाम्−घ। चजोः कु घिण्ण्यतोः। पा० ७।३।५२। इति कुत्वम्। ऐश्वर्येण। धनेन−निघ० २।१०। (मा मा) मां माम्। आत्मानमेव (शांशपेन) शेपः शपतेः स्पृशतिकर्मणः−निरु० ३।२१। शम्+शप स्पर्शे−अच्। ततोऽण्। शान्तेः स्पर्शयुक्तेन (साकम्) सह वर्तमानेन (इन्द्रेण) परमेश्वरेण (मेदिना) परमस्नेहिना (कृणोमि) करोमि (भगिनम्) ऐश्वर्यवन्तम् (अप द्रान्तु) द्रा कुत्सायां गतौ। दूरे पलायन्ताम् (अरातयः) अदानशीला अस्माकं स्वभावाः ॥

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