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अथर्ववेद के काण्ड - 6 के सूक्त 16 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 16/ मन्त्र 4
    ऋषिः - शौनक् देवता - चन्द्रमाः छन्दः - त्रिपदा प्रतिष्ठा गायत्री सूक्तम् - अक्षिरोगभेषज सूक्त
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    अ॑ल॒साला॑सि॒ पूर्वा॑ सि॒लाञ्जा॑ला॒स्युत्त॑रा। नी॑लागल॒साला॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒ल॒साला॑ । अ॒सि॒ । पूर्वा॑ । सि॒लाञ्जा॑ला । अ॒सि॒ । उत्त॑रा । नी॒ला॒ग॒ल॒साला॑ ॥१६.४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अलसालासि पूर्वा सिलाञ्जालास्युत्तरा। नीलागलसाला ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अलसाला । असि । पूर्वा । सिलाञ्जाला । असि । उत्तरा । नीलागलसाला ॥१६.४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 16; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    ब्रह्म के गुणों का उपदेश।

    पदार्थ

    [हे परमेश्वर !] तू (अलसाला) आलसियों को रोकनेवाली (पूर्वा) प्रधान शक्ति (असि) है, और तू (सिलाञ्जाला) कण-कण को प्रकट करनेवाली और (नीलागलसाला) सब लोकों के घर [ब्रह्माण्ड में] व्यापक (उत्तरा) अति उत्तम शक्ति (असि) है ॥४॥

    भावार्थ

    सर्वशक्तिमान् सर्वव्यापी परमेश्वर की महिमा को विचारते हुए मनुष्य सदा पुरुषार्थी होवें ॥४॥

    टिप्पणी

    ४−(अलसाला) अलस+अला। न लसतीति, लस दीप्तौ−अच्+अल वारणे−अच्, टाप्। अलसान् क्रियामन्दान् वारयति सा (असि) (पूर्वा) प्रधाना शक्तिः (सिलाञ्जाला) पिल कणश आदाने−क। पतिचण्डिभ्यामालञ्। उ० १।११७। इति सिल+अञ्जू व्यक्तिम्रक्षणकान्तिगतिषु−आलञ्। सिलान् कणान् कणान् अनक्ति प्रकटयतीति सा (उत्तरा) उत्कृष्टतरा शक्ति (नीलागलसाला) नील+आगल+साला। नि+इल गतौ−क। डलयौरैक्यम्। ॠदोरप्। पा० ३।३।७७। इति आड्+गॄ निगरणे−अप्, रस्य लः। षल गतौ−घञ्, टाप्। नीलानां नीडानां निवासस्थानां लोकानाम् आगले आगरे आगारे गृहे ब्रह्माण्डे व्यापिका ॥

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    विषय

    अलसाला, सिलाञ्जाला, नीलागलसाला

    पदार्थ

    १. हे प्रकृते! तू (पूर्वा) = सर्वप्रथम (अ-लसाला असि) = न चमकती हुई-अव्यक्त-सी है। प्रलयकाल में प्रकृति चमक नहीं रही होती। यह उसकी अव्यक्त अवस्था होती है। (उत्तरा) = इसके पश्चात् सृष्टिकाल में तू (सिलाञ्जाला असि) = [सिला अन्न आला] कण-कण में व्यापक जगत् को प्रकट करने में समर्थ होती है-अव्यक्त से तू व्यक्त हो जाती है। २. अब अन्त में (नीलागलसाला) = [नील-आगल, साला पल गतौ] सब शरीर-गृहरूप नीड़ों को निगल जाने में गतिवाली होती है। सब शरीर इस अव्यक्त प्रकृति से उत्पन्न होते हैं और अन्त में इस अव्यक्त प्रकृति में ही लीन हो जाते हैं ('अव्यक्तादीनि भूतानि व्यक्तमध्यानि भारत । अव्यक्तनिधनान्येव तत्र का परिदेवना।')

    भावार्थ

    हम प्रकृति के स्वरूप को समझें। उत्पत्ति, स्थिति, प्रलय के स्वरूप को समझते हुए इस प्रकृति में फँसे नहीं और अपने जीवन को सुन्दर बनाएँ।

    विशेष

    अगले सूक्त का ऋषि 'अथर्वा' है-अर्थ अर्वाड्-आत्म-निरीक्षण करनेवाला। यह व्यक्ति अपने जीवन को उत्तम बनाता हुआ उत्तम सन्तान का निर्माण करता है। यह अपनी पत्नी से कहता है -

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    भाषार्थ

    (अलसाला, असि, पूर्वा) हे प्रकृति! क्रम में पहली तू है, भूषण के सदृश शोभायमाना, चमकीला है; (सिलाञ्जाला असि, उत्तरा) तदुत्तर तू बन्धनकारिणी, गतिशीला और जालरूपा है; [तदुत्तर तू] (नीलागलसाला) नीलवर्णवाली, गत्यभाववाली हुई शोभायमाना होती है।

    टिप्पणी

    [मन्त्र में "मदावती" (मन्त्र ३) में कथित प्रकृति का ही वर्णन (मन्त्र ४) में हुआ है। प्रकृति के घटक अवयवों का क्रम है, सत्त्व, रजस्, तमस्। इन्हीं घटकों के क्रम का वर्णन मन्त्र में हुआ है। अलसाला = अलरूपेण शालते इति, जो कि भूषण के रूप में चमकती है वह प्रकृति। अल भूषणपर्याप्तिवारणेषु (भ्वादिः)। सत्त्व है भूषण के सदृश चमकीला अर्थात् प्रकाशक "सत्वं लघु प्रकाशकमिष्टम्" (सांख्यसिद्धान्तकारिका)। सिलाञ्जाला = षिञ् बन्धने+ल (मत्वर्थीय), ( यथा मधु, मधुर, मधुल]+ अम गतौ (भ्वादिः)+जाला। अर्थात् यह द्वितीयरूपा प्रकृति है, यह बन्धनकारिणी, गतिशीला, और जालरूपा है। यह रूप प्रकृति का, जीवात्मा को बन्धन में बान्धता है। यथा "रजस्तमो मोप गा मा प्रमेष्ठाः" (अथर्व ८।२।१)। यह "रजस्" रूपा प्रकृति है, जो कि शरीर के जाल में जीवात्मा को बान्धती है। नीलागलसाला= नील अर्थात् कृष्ण+ अग+ ल (गतिरहित वाला) + साला ( शालते इति ); एतद् रूपा प्रकृति, तमोरूपा है यह कृष्णा है। "अजामेकां लोहितशुक्लकृष्णाम्” (श्वेता उप० ४।५)। गाढ़ा नील, कृष्ण हो जाता है। एतद्रूपा प्रकृति "अग+ला" अर्थात् गत्यभाव रूप वाली हुई "साला" शालते। यह तमोरूपा है। इस प्रकार मन्त्र ४ में क्रमशः सत्त्व, रजस्, तमस् रूपा प्रकृति का वर्णन हुआ है]।

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    विषय

    प्रजापति की शक्ति का वर्णन।

    भावार्थ

    ब्रह्मशक्ति तीन प्रकार की है (पूर्वा) प्रथम जो सृष्टि के पूर्व में या पूर्ण रूप में (अलसाला) अलं=अति अधिक गति वाली, क्रियावती या (अ-लसाला) अव्यक्त (असि) है। और (उत्तरा) उसके बाद (सिल-अञ्ज-आला*) कण कण, परमाणु परमाणु में व्यापक जगत् को व्यक्त करने में समर्थ हो जाती है। और इसका तीसरा रूप (नीलागलसाला) नील अन्धकारमय, तामस आगल= सबकी संहारक प्रचण्ड वेग वाली होती है।

    टिप्पणी

    कौशिक ने “शलाञ्जाला” नामक धान्य का उल्लेख किया है।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    शौनक ऋषिः। मन्त्रोक्ता उत चन्द्रमा देवता, २ हिनो देवता। १. निचृत् त्रिपदा गायत्री, ३ बृहतीगर्भा ककुम्मर्ता अनुष्टुप् ४ त्रिपदा प्रतिष्ठा, अनुष्टुप्। चतुर्ऋचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Herbs and Essences

    Meaning

    You are Alasala, energiser of the weak, first and foremost. Later you are Silanjala, best in the home, and Nilagalasala, reaching unto every cell.

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    Translation

    Formerly you are alasala; later you are silanjala, and then nilagalasala.

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    Translation

    There are three kinds of weeds which grow in the corn. The first of them is Alsala, the second Silanjala and third is Nilagal sala.

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    Translation

    O God, Thy mighty power prevents people from becoming lazy. Thy excellent power creates all objects, and pervades the universe!

    Footnote

    Griffith writes, the verse is untranslatable. He has not translated it.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ४−(अलसाला) अलस+अला। न लसतीति, लस दीप्तौ−अच्+अल वारणे−अच्, टाप्। अलसान् क्रियामन्दान् वारयति सा (असि) (पूर्वा) प्रधाना शक्तिः (सिलाञ्जाला) पिल कणश आदाने−क। पतिचण्डिभ्यामालञ्। उ० १।११७। इति सिल+अञ्जू व्यक्तिम्रक्षणकान्तिगतिषु−आलञ्। सिलान् कणान् कणान् अनक्ति प्रकटयतीति सा (उत्तरा) उत्कृष्टतरा शक्ति (नीलागलसाला) नील+आगल+साला। नि+इल गतौ−क। डलयौरैक्यम्। ॠदोरप्। पा० ३।३।७७। इति आड्+गॄ निगरणे−अप्, रस्य लः। षल गतौ−घञ्, टाप्। नीलानां नीडानां निवासस्थानां लोकानाम् आगले आगरे आगारे गृहे ब्रह्माण्डे व्यापिका ॥

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