अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 18/ मन्त्र 1
ऋषिः - अथर्वा
देवता - ईर्ष्याविनाशनम्
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - ईर्ष्याविनाशन सूक्त
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ई॒र्ष्याया॒ ध्राजिं॑ प्रथ॒मां प्र॑थ॒मस्या॑ उ॒ताप॑राम्। अ॒ग्निं हृ॑द॒य्यं शोकं॒ तं ते॒ निर्वा॑पयामसि ॥
स्वर सहित पद पाठई॒र्ष्याया॑: । ध्राजि॑म् । प्र॒थ॒माम् । प्र॒थ॒मस्या॑: । उ॒त । अप॑राम् । अ॒ग्निम् । हृ॒द॒य्य᳡म् । शोक॑म् । तम् । ते॒ । नि: । वा॒प॒या॒म॒सि॒ ॥१८.१॥
स्वर रहित मन्त्र
ईर्ष्याया ध्राजिं प्रथमां प्रथमस्या उतापराम्। अग्निं हृदय्यं शोकं तं ते निर्वापयामसि ॥
स्वर रहित पद पाठईर्ष्याया: । ध्राजिम् । प्रथमाम् । प्रथमस्या: । उत । अपराम् । अग्निम् । हृदय्यम् । शोकम् । तम् । ते । नि: । वापयामसि ॥१८.१॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
ईर्ष्या के निवारण का उपदेश।
पदार्थ
[हे मनुष्य !] (ते) तेरी (ईर्ष्यायाः) डाह की (प्रथमाम्) पहिली (ध्राजिम्) गति को (उत) और (प्रथमस्याः) पहिली गति की (अपराम्) दूसरी गति को, (हृदय्यम्) हृदय में भरी (तम्) सतानेवाली (अग्निम्) अग्नि और (शोकम्) शोक को (निः) सर्वथा (वापयामसि) हम नष्ट करते हैं ॥१॥
भावार्थ
मनुष्य दूसरों की वृद्धि देखकर कभी दाह न करें किन्तु दूसरे की उन्नति में अपनी उन्नति जानें ॥१॥
टिप्पणी
१−(ईर्ष्यायाः) ईर्ष्य ईर्ष्यायाम्−अ। परसम्पत्त्यसहनस्य मत्सरस्य (ध्राजिम्) वसिवपियजि०। उ० ४।१२५। इति ध्रज गतौ−इञ्। गतिम् (प्रथमाम्) आद्याम् (प्रथमस्याः) प्रथमभाविन्या गतेः (उत) अपि च (अपराम्) अनन्तरां गतिम् (अग्निम्) संतापम् (हृदय्यम्) शरीरावयवाद् यत्। पा० ४।३।५५। इति हृदय−यत्। हृदये भवम् (शोकम्) खेदम् (तम्) तर्द−ड। तर्दकं हिंसकम् (ते) तव (निः) नितराम् (वापयामसि) टुवप बीजसंताने छेदने च। वापयामः शमयामः ॥
विषय
ईया-हदय्य अग्नि
पदार्थ
१. (ते) = तेरी (ईाया:) = ईर्ष्या की-डाह की (प्रथमां धाजिम्) = पहली गति को-वेग को (निर्वापयामसि) = बुझा देते हैं, (उत) = और (प्रथमस्या:) = उस ईर्ष्या की प्रथम प्राजि के पश्चात् होनेवाली (अपराम्) = ईर्ष्या की दूसरी जलन को बुझाते हैं। २. इस ईर्ष्या को जोकि (अग्निम्) = आग के समान है, (हृदय्यं शोकम्) = हृदय में होनेवाला शोक [विषाद] है, (तम्) = उसे [निर्वायपयामसि] बुझा देते हैं।
भावार्थ
ईर्ष्या अग्नि के समान है। यह हृदय के आनन्द को समाप्त करके उसे सन्तप्त करनेवाली है। इसके वेग को शान्त करना ही ठीक है।
भाषार्थ
(ईर्ष्यायाः) ईर्ष्या के (प्रथमाम्) प्राथमिक (ध्राज्रिम्)वेग को, (उत) तथा (प्रथमस्याः ) प्रथमवेग के (अपराम् ) उत्तरोत्तर वेग को ( अग्निम्) अग्निरूपी और (हृदय्यम् शोकम् ) हृदयसन्तान रूपी ( ते तम् ) तेरी उस [ईर्ष्या रूपी अग्नि को] (निर्वापयामसि) हम शान्त करते हैं।
टिप्पणी
[सद्-गुरु लोग यत्न करते हैं कि शिष्य में यदि ईर्ष्या की अग्नि प्रकट हुई है तो उसे शान्त कर दें, ताकि ईर्ष्या के वेग शिष्य में प्रकट हो कर उस के हृदय को सन्तप्त न करते रहें।]
विषय
ईर्ष्या का निदान और उपाय।
भावार्थ
(ईर्ष्यायाः) दूसरे की उन्नति को देख कर हृदय में उत्पन्न होनेवाली ईर्ष्या के (प्रथमाम्) प्रथम (ध्राजिं) तीव्र वेग को (निः वापयामसि) हम पहले ही शान्त कर लिया करें। यदि यह न हो सके तो (उत) फिर (प्रथमस्याः) पहले वेग से उत्पन्न दूसरा उससे मन्द वेग होता है उस (अपराम्) दूसरे वेग को ही (निः वापयामसि) हम शान्त कर लें। हे पुरुष ! हम तो (ते) तेरे (तम्) उस पूर्वोक्त के (हृदययम्) हृदय में सुलगनेवाले (अग्नि) आग रूप (तं शोकम्) उस शोक विषाद को भी (निः-वापयामसि) शान्त करें।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अथर्वा ऋषिः। ईर्ष्याविनाशनं देवता। १,३ अनुष्टुभः। तृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Give up Jealousy
Meaning
O man, the first violence of your jealousy and that which repeats after the first, the torture of heart burn and the smouldering sorrow, all that we root out from the heart and soul.
Subject
Jealousy: its removal
Translation
The first impulse of jealousy, and the other following the first one, the fire and sorrow of your heart - that we extinguish
Translation
O myself! the first attack of jealousy together with that which followed the first(appearance of it) is the fire which is filled in thy heart (a source of constant) sorrow. I drive away completely the same from the heart.
Translation
The first approach of jealousy, and that which followeth the first, the anguish, the fire of anger that burns within thy heart, we quench and drive away.
Footnote
Thy: a jealous person.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
१−(ईर्ष्यायाः) ईर्ष्य ईर्ष्यायाम्−अ। परसम्पत्त्यसहनस्य मत्सरस्य (ध्राजिम्) वसिवपियजि०। उ० ४।१२५। इति ध्रज गतौ−इञ्। गतिम् (प्रथमाम्) आद्याम् (प्रथमस्याः) प्रथमभाविन्या गतेः (उत) अपि च (अपराम्) अनन्तरां गतिम् (अग्निम्) संतापम् (हृदय्यम्) शरीरावयवाद् यत्। पा० ४।३।५५। इति हृदय−यत्। हृदये भवम् (शोकम्) खेदम् (तम्) तर्द−ड। तर्दकं हिंसकम् (ते) तव (निः) नितराम् (वापयामसि) टुवप बीजसंताने छेदने च। वापयामः शमयामः ॥
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