अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 22/ मन्त्र 1
ऋषिः - शन्ताति
देवता - आदित्यरश्मिः
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - भैषज्य सूक्त
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कृ॒ष्णं नि॒यानं॒ हर॑यः सुप॒र्णा अ॒पो वसा॑ना॒ दिव॒मुत्प॑तन्ति। त आव॑वृत्र॒न्त्सद॑नादृ॒तस्यादिद्घृ॒तेन॑ पृथि॒वीं व्यू॑दुः ॥
स्वर सहित पद पाठकृ॒ष्णम् । नि॒ऽयान॑म् । हर॑य: । सु॒ऽप॒र्णा: । अ॒प: । वसा॑ना: । दिव॑म् । उत् । प॒त॒न्ति॒ । ते । आ । अ॒व॒वृ॒त्र॒न् । सद॑नात् । ऋ॒तस्य॑ । आत् । इत् । घृ॒तेन॑ । पृ॒थि॒वीम् । वि । ऊ॒दु॒: ॥२२.१॥
स्वर रहित मन्त्र
कृष्णं नियानं हरयः सुपर्णा अपो वसाना दिवमुत्पतन्ति। त आववृत्रन्त्सदनादृतस्यादिद्घृतेन पृथिवीं व्यूदुः ॥
स्वर रहित पद पाठकृष्णम् । निऽयानम् । हरय: । सुऽपर्णा: । अप: । वसाना: । दिवम् । उत् । पतन्ति । ते । आ । अववृत्रन् । सदनात् । ऋतस्य । आत् । इत् । घृतेन । पृथिवीम् । वि । ऊदु: ॥२२.१॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
वृष्टि विद्या का उपदेश।
पदार्थ
(हरयः) रस खींचनेवाली, (सुपर्णाः) अच्छा उड़नेवाली किरणें (अपः) जल को (वसानाः) ओढ़ कर (कृष्णम्) खींचनेवाले (नियानम्) नित्य गमनस्थान अन्तरिक्ष में होकर (दिवम्) प्रकाशमय सूर्यमण्डल को (उत् पतन्ति) चढ़ जाती हैं। (ते) वे (इत्) ही (आत्) फिर (ऋतस्य) जल के (सदनात्) घर [सूर्य] से (आ अववृत्रन्) लौट आती हैं, और उन्होंने (घृतेन) जल से (पृथिवीम्) पृथिवी को (वि) विविध प्रकार से (ऊदुः) सींच दिया है ॥१॥
भावार्थ
जैसे सूर्य की किरणें पवन द्वारा भूमि से जल को खींच कर और फिर बरसा कर उपकार करती हैं, वैसे ही मनुष्य विद्या प्राप्त करके संसार का उपकार करें ॥१॥ यह मन्त्र कुछ भेद से ऋग्वेद में है−म० १ सू० १६४। म० ४७ और निरु० ७।२४। में भी ॥
टिप्पणी
१−(कृष्णम्) आकर्षकम् (नियानम्) नित्यगमनस्थानम् अन्तरिक्षं प्रति। अत्यन्तसंयोगे द्वितीया (हरयः) रसं हरन्तः (सुपर्णाः) आदित्यरश्मयः−निरु० ७।२४। (अपः) जलानि (वसानाः) आच्छादयन्तः (दिवम्) प्रकाशमयं सूर्यमण्डलम् (उत्) उद्गत्य (पतन्ति) प्राप्नुवन्ति (ते) रश्मयः (आ अववृत्रन्) वृतेर्लुङि। द्युद्भ्यो लुङि। पा० १।३।९१। इति परस्मैपदम्, च्लेश्चङ् रुडागमश्च छान्दसः। आ वर्तन्ते। आगच्छन्ति (सदनात्) गृहात्। सूर्यमण्डलात् (ऋतस्य) उदकस्य−निघ० १।१२। (आत्) अनन्तरम् (इत्) एव (घृतेन) उदकेन। घृतमित्युदकनाम जिघर्तेः सिञ्चतिकर्मणः−निरु० ७।२४। (पृथिवीम्) भूमिम् (वि) विविधम् (ऊदुः) उन्दी क्लेदने, लिट्, उपधालोपश्च छान्दसः। उन्दांचक्रुः। सिक्तवन्तः ॥
विषय
हरयः सुपर्णः
पदार्थ
१. (हरयः) = जल का हरण करनेवाली (सुपर्णाः) = उत्तमता से हमारा पालन व पूरण करनेवाली वायुएँ (अपः वसानः) = जल को धारण करती हुई (कृष्णम्) = सबका आकर्षण करनेवाले (नियानम्) = निश्चित गतिवाले (दिवम्) = सूर्य की ओर (उत्पतन्ति) = ऊपर उठती हैं। सूर्य-किरणों द्वारा वाष्पीभूत जल को लेकर वायुएँ ऊपर आकाश में उठती हैं। २. (ते) = वे वायुएँ (ऋतस्य) = जल के [rain water] (सदनात्) = सदन-अन्तरिक्ष से (आववृत्रन्) = पुनः वापस आती हैं, (आत् इत्) = और तब शीघ्र ही (घृतेन) = जल से (पृथिवीम् व्यूदुः) = पृथिवी को गीला कर देती हैं।
भावार्थ
सूर्य-किरणों से वाष्पीभूत जल को लेकर वायुएँ सूर्य की ओर ऊपर उठती हैं। वे ही वायुएँ अन्तरिक्ष से लौटती हुई जल बरसाती हैं और सारी पृथिवी को गीला कर डालती हैं।
भाषार्थ
(सुपर्णाः) उत्तम वर्णों वाले पक्षियों के सदृश उड़ने वाली, (हरयः) जल का हरण करने वाली [आदित्य रश्मियां] (अप: वसानाः) जल को धारण करती हुई, (कृष्णम्, नियानम्) काले निचले मार्ग को प्राप्त कर, (दिवम्) द्युतिमान्-आदित्य की ओर (उत् पतन्ति) ऊपर को उड़ जाती हैं । (ते) वे (ऋतस्य) तत्पश्चात् उदक के (सदनात्) घर [द्युलोक] से (आववृत्रन्) लौट आती हैं, (आत् इत् ) तदनन्तर ही (घृतेन ) मानो घृत द्वारा या जल द्वारा (पृथिवीम्) पृथिवी को (ब्यूदुः) विशेषरूप में आद्र करती हैं।
टिप्पणी
[काला-निचला मार्ग है अन्तरिक्ष। अन्तरिक्ष आदित्य से नीचे है। हमारे सौर-परिवार में आदित्य सर्वोच्च है, अतः जलभरी आदित्यरश्मियों की उड़ान आदित्य को ओर कही है। आदित्य उदक भरी रश्मियों का सदन है। ऋतम् उदकनाम (निघं० १।१२); घृतम् उदकनाम (निघं १।१२)। घृत का प्रसिद्ध अर्थ है घी। इस की प्राप्ति भी वर्षाधीन है। इसलिये वर्षाजल को घृत कहा है]।
विषय
सूर्य-रश्मियों द्वारा जल वर्षा के रहस्य का वर्णन
भावार्थ
(कृष्यम्) कर्षणशील, खैंचने में समर्थ (नियानम्) नियमन करने में समर्थ या आकाशमण्डल में गति करते हुए सूर्य को आश्रय लिये (सुपर्णा) उत्तम रूप से गति करनेवाली (हरयः) तथा जल हरण करनेवाले रश्मिगण या वायुएं (अपः वसानाः) जलों को अपने भीतर छुपाकर (दिवम्) पुनः अन्तरिक्ष में (उत्पतन्ति) उठती हैं। (ते) वे (ऋतस्य सदनात्) उदक या जल के आश्रयस्थान से (आववृत्रन्) लौटती हैं और (आदित्) अनन्तर पुनः (घृतेन) जल से (पृथिवीं) पृथिवी को (वि ऊदुः) बरसाकर गीला कर देती हैं। अर्थात् सूर्य की तापमय रश्मियां पृथिवी के जल के भागों पर पड़ती हैं और हलका जल ऊपर उठता है। पुनः वह उष्ण भाफ शीत के कारण जम कर पुनः नीचे आता है और जल बरसता है। हरयः = वायुएं या आदित्यरश्मियां।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
शंतातिर्ऋषिः। आदित्यरश्मयो मरुतश्च देवताः। १, ३ त्रिष्टुभौ। २ चतुस्पदा भुरिग् जगती॥ तृचं सूक्तम्।
इंग्लिश (4)
Subject
Rain and Wind
Meaning
The supernal rays of the sun wearing vestments of vapour rise to the all attractive sun in heaven. Then they turn round and down from the regions of water and the earth is flooded with showers of rain.
Subject
Rays of the Aditya - the Sun
Translation
The smooth-gliding waters (of the rain, the solar rays) clothing the waters with a dark cloud, ascend to heaven. They come down again from the dwelling of the rain, and immediately moisten the earth with water. (Also Rg. 1.164.4 with variation)
Translation
The rays of the sun carrying waters rise to the heaven in Uttarayana (the period of the sun’s progress to the North of the equator beginning from winter solstice) and return back in the Dakshinayana (the period of sun’s progress towards south of the equator beginning from summer solstice) from the atmospheric region and the earth is inundated with water of the rain.
Translation
The fast flying rays of the Sun, attracting water from the earth, passing through the atmosphere enrobed in waters, go aloft to heaven. Then from the Sun, the seat of water, they come down and inundate the earth with water.
Footnote
They: the rays of the sun.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
१−(कृष्णम्) आकर्षकम् (नियानम्) नित्यगमनस्थानम् अन्तरिक्षं प्रति। अत्यन्तसंयोगे द्वितीया (हरयः) रसं हरन्तः (सुपर्णाः) आदित्यरश्मयः−निरु० ७।२४। (अपः) जलानि (वसानाः) आच्छादयन्तः (दिवम्) प्रकाशमयं सूर्यमण्डलम् (उत्) उद्गत्य (पतन्ति) प्राप्नुवन्ति (ते) रश्मयः (आ अववृत्रन्) वृतेर्लुङि। द्युद्भ्यो लुङि। पा० १।३।९१। इति परस्मैपदम्, च्लेश्चङ् रुडागमश्च छान्दसः। आ वर्तन्ते। आगच्छन्ति (सदनात्) गृहात्। सूर्यमण्डलात् (ऋतस्य) उदकस्य−निघ० १।१२। (आत्) अनन्तरम् (इत्) एव (घृतेन) उदकेन। घृतमित्युदकनाम जिघर्तेः सिञ्चतिकर्मणः−निरु० ७।२४। (पृथिवीम्) भूमिम् (वि) विविधम् (ऊदुः) उन्दी क्लेदने, लिट्, उपधालोपश्च छान्दसः। उन्दांचक्रुः। सिक्तवन्तः ॥
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