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अथर्ववेद के काण्ड - 6 के सूक्त 30 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 30/ मन्त्र 1
    ऋषिः - उपरिबभ्रव देवता - शमी छन्दः - जगती सूक्तम् - पापशमन सूक्त
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    दे॒वा इ॒मं मधु॑ना॒ संयु॑तं॒ यवं॒ सर॑स्वत्या॒मधि॑ म॒णाव॑चर्कृषुः। इन्द्र॑ आसी॒त्सीर॑पतिः श॒तक्र॑तुः की॒नाशा॑ आसन्म॒रुतः॑ सु॒दान॑वः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    दे॒वा:। इ॒मम् । मधु॑ना । सऽयु॑तम् । यव॑म् । सर॑स्वत्याम् । अधि॑ । म॒णौ। अ॒च॒र्कृ॒षु॒: । इन्द्र॑: । आ॒सी॒त् । सीर॑ऽपति: । श॒ऽक्र॑तु: । की॒नाशा॑: । आ॒स॒न् । म॒रुत॑: । सु॒ऽदान॑व: ॥३०.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    देवा इमं मधुना संयुतं यवं सरस्वत्यामधि मणावचर्कृषुः। इन्द्र आसीत्सीरपतिः शतक्रतुः कीनाशा आसन्मरुतः सुदानवः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    देवा:। इमम् । मधुना । सऽयुतम् । यवम् । सरस्वत्याम् । अधि । मणौ। अचर्कृषु: । इन्द्र: । आसीत् । सीरऽपति: । शऽक्रतु: । कीनाशा: । आसन् । मरुत: । सुऽदानव: ॥३०.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 30; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    विद्या के गुणों का उपदेश।

    पदार्थ

    (देवाः) विद्वान् लोगों ने (मधुना) मधुर रस वा ज्ञान से (संयुतम्) मिले हुए (इमम्) इस (यवम्) यव अन्न को (सरस्वत्याम् अधि) विज्ञान से युक्त वेदविद्या को अधिष्ठात्री मानकर (मणौ) उसके श्रेष्ठपन में (अचर्कृषुः) बार-बार जीता। (शतक्रतुः) सैकड़ों कर्म वा बुद्धिवाला (इन्द्रः) परम ऐश्वर्यवान् आचार्य (सीरपतिः) हल का स्वामी (आसीत्) था और (सुदानवः) बड़े दानी (मरुतः) विद्वान् पुरुष (कीनाशाः) परिश्रमी किसान (आसन्) थे ॥१॥

    भावार्थ

    ब्रह्मवादी लोग आचार्य के उपदेश से वेदविद्या को प्रधान मान कर उसकी उत्तमता को खोज कर ऐसा आनन्द पाते हैं, जैसे किसान लोग अपने स्वामी की आज्ञा से विधिपूर्वक खेत में बीज बोकर अन्न प्राप्त करके प्रसन्न होते हैं ॥१॥

    टिप्पणी

    १−(देवाः) विद्वांसः (इमम्) प्रत्यक्षम् (मधुना) मधुररसेन ज्ञानेन वा (संयुतम्) सम्मिलितम् (यवम्) यु मिश्रणामिश्रणयोः−अप्। यवान्नवद् मोक्षसुखम् (सरस्वत्याम् अधि) अधिरीश्वरे। पा० १।४।९७। इति अधेः कर्मप्रवचनीयत्वम्। यस्मादधिकं यस्य०। पा० ३।२।९। इति सप्तमी। विज्ञानवतीं वेदविद्यां सर्वाधिष्ठात्रीं मत्वा (मणौ) स्तुत्ये श्रेष्ठगुणे (अचर्कृषुः) कृष विलेखने यङ्लुकि लुङि। भृशं कृष्टवन्तः कर्षणेन प्राप्तवन्तः (इन्द्रः) परमैश्वर्यवान् आचार्यः (आसीत्) (सीरपतिः) हलस्य स्वामी। प्रधानकर्षकः (शतक्रतुः) क्रतुः कर्मनाम−निघ० २।१। प्रज्ञानाम्−निघ० ३।९। बहुकर्मदक्षः। बहुप्रज्ञः (कीनाशाः) अ० ३।१७।५। परिश्रमिणः कर्षकाः (आसन्) (मरुतः) अ० १।२०।१। विद्वांसः शूराः। ऋत्विजः−निघ० ३।१८। (सुदानवः) बहुदातारः ॥

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    विषय

    मधुना संयुतं यवम्

    पदार्थ

    १. (देवा:) = देववृत्ति के पुरुषों ने (इमम्) = इस (मधुना संयुतम्) = माधुर्य से युक्त (यवम्) = जौ को (सरस्वत्याम्) = ज्ञान की अधिष्ठात् देवता के निमित्त तथा (मणौ अधि) = शरीरस्थ वीर्यमणि के निमित्त-वीर्य को शरीर में ही सुरक्षित रखने के हेतु से (अचर्कषु:) = कृषि द्वारा उत्पन्न किया  है। जौ ही देवों का भोजन है। ('यु मिश्रणामिश्रणयोः') = से बना 'यव' शब्द यह संकेत कर रहा है कि यह 'बुराइयों को दूर करनेवाला व अच्छाइयों को मिलानेवाला है।' २. इस यव को उत्पन्न करनेवालों में (सीरपति:) = हल का स्वामी (इन्द्र:) = इन्द्र आसीत्-था। इस यव का उत्पादक जितेन्द्रिय पुरुष होता है। (शतक्रतुः) = यह शत वर्षपर्यन्त यज्ञमय जीवनवाला हुआ। यव सात्विक भोजन है। इस सात्त्विक आहार से बुद्धि की सात्त्विकता के कारण जीवन को यज्ञमय बनना स्वाभाविक ही है। (कीनाश:) = श्रमपूर्वक हल चलानेवाले किसान, (मरुत:) = मितराबी-कम बोलनेवाले-क्रियाशील पुरुष (आसन्) = थे। ये (सुदानव:) = अच्छी प्रकार बुराइयों को काटनेवाले हुए [दाप लवने]। आहार के शुद्ध होने पर अन्त:करण की पवित्रता से सब वासना-ग्रन्थियों का प्रणाश हो ही जाता है।

    भावार्थ

    जी ही सर्वोत्तम अन्न है। यह उत्तम मस्तिष्क का निर्माण करता हुआ ज्ञानवृद्धि का कारण बनता है। वीर्य-रक्षण में यह सहायक है। इसका सेवन करनेवाला 'जितेन्द्रिय, यज्ञशील, मितरावी व अशुभों को काटनेवाला' बनता है।

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    भाषार्थ

    (देवाः) प्राकृत दिव्य तत्वों ने (मघुना) माधुर्य अथवा मधुर-जल से (इमम्) इस (संयुतम्) मिश्रित (यवम् ) यवान्न को (मणौ) मणिरूप (सरस्वत्यामधि) सरस्वती में (अवचर्कृषुः) कृषि द्वारा प्राप्त किया। (शतक्रतुः) सैकड़ों कर्मों वाला (इन्द्रः) सूर्य (सीरपतिः) हल का पति अर्थात् हल जोतने वाला (आसीत्) था, (सुदानव:) उतम जल के दाता (मरुतः) मानसून वायुएं (कीनाशाः) किसान (आसन्) थे।

    टिप्पणी

    [सरस्वत्यामधि=जलवाली नदी के समीप की भूमि में। सरस्वती सामान्य नदी है जिस में कि प्रभूत जल है, सरस्वती= ( जल) + वती। यह ऐतिहासिक सरस्वती नदी नहीं। खाने में यव मधुर रसवाला है। अतः वह मधु मिश्रित है, अथवा सरस्वती के मधुर जल से मिश्रित है, (मधु उदकनाम, निघं. १।१२)। सरस्वती के समीप की भूमि सु-उपजाऊ है, अकृष्टपच्या है, अतः इस में हल जोतने की आवश्यकता नहीं, प्राकृतिक तत्त्वों की शक्तियों द्वारा ही कृष्यन्न प्राप्त हो जाता है, अतः सूर्य को हल चलाने वाला कहा है। न इसमें कूपादि द्वारा जल सींचा जाता है। वर्षा द्वारा ही जल सींचा जाता है, अतः मानसून वायुएं ही कीनाश हैं, मानुष किसान कहीं हैं। केशाः =किशाना: = किसान। सरस्वती नदी यवादि रूपी धन प्राप्त कराती है अतः मणि१ रूपा है। मन्त्र का प्रतिपाद्य देवता "शमी" है, शान्तिप्रद उदकप्रदात्री सरस्वती है]। [१. मणि =money; अर्थात् धनरूपा]

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    विषय

    राजा के कर्त्तव्य

    भावार्थ

    जौ की खेती के दृष्टान्त से राष्ट्र के शासन का वर्णन करते हैं। (देवा) देव विद्वान् लोग (इमं) इस (यवं) जो धान्य को जिस प्रकार (सरस्वत्याम्) नदी के तट पर (मणौ) उत्तम भूमि में (अचर्कृषुः) हल जोत कर बोते हैं और उत्तम फसल प्राप्त करते हैं उसी प्रकार (देवाः) विद्वान् शासक लोग भी (मधुना) उत्तम धन धान्य समृद्धि से (सं-युतम्) सम्पन्न (यवम्) इस समूहित राष्ट्र को (सरस्वत्यां मणौ) सरस्वती-सत्यवाणी धर्म पुस्तक [कोडबुक] के आधार पर उत्तम पुरुषों के आश्रय पर (अचर्कृषुः) चलाते हैं। इस राष्ट्ररूप खेती में (सीरपतिः) हल का स्वामी (इन्द्रः आसीत्) राजा होता है जो (शतक्रतुः) सैकड़ों फल और ज्ञान सामर्थ्यों से युक्त होता है। और (सु-दानवः) उत्तम दानशील, उदार (मरुतः) प्रजागण लोग (कीनाशाः) किसानों के समान (आसन्) होते हैं।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    उपरिबभ्रव ऋषिः। शमी देवता। १ जगती। २ त्रिष्टुप्। ३ चतुष्पदा ककुम्मती अनुष्टुप्। तृचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Shami the Sanative

    Meaning

    The Devas, divinities of nature, created this yava, barley grain replete with honey as jewel on the stream of nature’s flow, Sarasvati. Indra, the sun, creator of a hundred great things, was the ploughman, and the Maruts, generous winds, were the assistant farmers. (Shatapatha Brahmana describes yava as a drop of the moon’s ecstasy: 4, 2, 1, and 11)

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    Subject

    Sami

    Translation

    The enlightened ones obtained by ploughing this barley (as if) mixed with honey near the river Sarasvati on the land good as a jewel. The resplendent Lord, performer of hundreds of selfless actions, was the master of the plough and the cloud-bearing winds, the liberal bestowers of gifts, were the ploughmen.

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    Translation

    In the beginning (i.e. prior to agricultural process into Practice) the physical forces of the nature sow the seed of barley wet in water in the soil which has watery substance in it, Indra, the sun possessed of hundreds of power and operation js the masterly plougher of this land and Marutah, the winds which are of the nature of giving rain are the peasants.

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    Translation

    Learned persons have again and again acquired through the force of Vedic knowledge and superiority, salvation, replete with sweet pleasure. An Acharya, the master of hundreds of noble deeds, and intellect is the main cultivator, and the charitably disposed learned persons are the laborious workers after salvation.

    Footnote

    Acharya: Preceptor, Guru. Cultivator: An Acharya is an ardent seeker after salvation. Just as a peasant tills the land, sows the seed, and reaps the harvest of barley, so do the learned acquire through Vedic wisdom emancipation full of joy.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    १−(देवाः) विद्वांसः (इमम्) प्रत्यक्षम् (मधुना) मधुररसेन ज्ञानेन वा (संयुतम्) सम्मिलितम् (यवम्) यु मिश्रणामिश्रणयोः−अप्। यवान्नवद् मोक्षसुखम् (सरस्वत्याम् अधि) अधिरीश्वरे। पा० १।४।९७। इति अधेः कर्मप्रवचनीयत्वम्। यस्मादधिकं यस्य०। पा० ३।२।९। इति सप्तमी। विज्ञानवतीं वेदविद्यां सर्वाधिष्ठात्रीं मत्वा (मणौ) स्तुत्ये श्रेष्ठगुणे (अचर्कृषुः) कृष विलेखने यङ्लुकि लुङि। भृशं कृष्टवन्तः कर्षणेन प्राप्तवन्तः (इन्द्रः) परमैश्वर्यवान् आचार्यः (आसीत्) (सीरपतिः) हलस्य स्वामी। प्रधानकर्षकः (शतक्रतुः) क्रतुः कर्मनाम−निघ० २।१। प्रज्ञानाम्−निघ० ३।९। बहुकर्मदक्षः। बहुप्रज्ञः (कीनाशाः) अ० ३।१७।५। परिश्रमिणः कर्षकाः (आसन्) (मरुतः) अ० १।२०।१। विद्वांसः शूराः। ऋत्विजः−निघ० ३।१८। (सुदानवः) बहुदातारः ॥

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