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अथर्ववेद के काण्ड - 6 के सूक्त 44 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 44/ मन्त्र 1
    ऋषिः - विश्वामित्र देवता - वनस्पतिः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - रोगनाशन सूक्त
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    अस्था॒द्द्यौरस्था॑त्पृथि॒व्यस्था॒द्विश्व॑मि॒दं जग॑त्। अस्थु॑र्वृ॒क्षा ऊ॒र्ध्वस्व॑प्ना॒स्तिष्ठा॒द्रोगो॑ अ॒यं तव॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अस्था॑त् । द्यौ: । अस्था॑त् । पृ॒थि॒वी । अस्था॑त् । विश्व॑म् । इ॒दम् । जग॑त् अस्थु॑: । वृ॒क्षा: । ऊ॒र्ध्वऽस्व॑प्ना: । तिष्ठा॑त् । रोग॑: । अ॒यम् । तव॑ ॥४४.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अस्थाद्द्यौरस्थात्पृथिव्यस्थाद्विश्वमिदं जगत्। अस्थुर्वृक्षा ऊर्ध्वस्वप्नास्तिष्ठाद्रोगो अयं तव ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अस्थात् । द्यौ: । अस्थात् । पृथिवी । अस्थात् । विश्वम् । इदम् । जगत् अस्थु: । वृक्षा: । ऊर्ध्वऽस्वप्ना: । तिष्ठात् । रोग: । अयम् । तव ॥४४.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 44; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    रोग के नाश के लिये उपदेश।

    पदार्थ

    (द्यौः) सूर्य लोक (अस्थात्) ठहरा है, (पृथिवी) पृथिवी (अस्थात्) ठहरी है, (इदम्) यह (विश्वम्) सब (जगत्) जगत् (अस्थात्) ठहरा है। (ऊर्ध्वस्वप्नाः) ऊपर को मुख करके सोनेवाले (वृक्षाः) वृक्ष (अस्थुः) ठहरे हुए हैं, [ऐसे ही] (तव) तेरा (अयम्) यह (रोगः) रोग (तिष्ठात्) ठहर जावे [और न बढ़े] ॥१॥

    भावार्थ

    जैसे संसार के सब लोक परस्पर धारण और आकर्षण द्वारा अपनी-अपनी कक्षा और परिधि में स्थित हैं, वैसे ही मनुष्य अपने दोषों को नियम में रक्खे ॥१॥

    टिप्पणी

    १−(अस्थात्) स्थिरोऽभूत् (द्यौः) प्रकाशमानः सूर्यः (अस्थात्) (पृथिवी) विस्तृता भूमिः (अस्थात्) (विश्वम्) सर्वम् (इदम्) दृश्यमानम् (जगत्) लोकः (अस्थुः) स्थिता अभूवन् (वृक्षाः) पादपाः (ऊर्ध्वस्वप्नाः) उपरिमुखाः सन्तो निद्रालवः (तिष्ठात्) गतिनिवृत्तो भूयात् (रोगः) शारीरिको मानसिको वा व्याधिः (अयम् तव) ॥

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    विषय

    तिष्ठान्दोगः अयं तव

    पदार्थ

    १. (द्यौः अस्थात्) = ग्रह-नक्षत्रमण्डलोपेत यह धुलोक स्थित है, नीचे गिरता नहीं। (प्रथिवी अस्थात्) = यह सर्वाधारभूत पृथिवी स्थित है। (इदं विश्वं जगत् अस्थात्) = यह परिदृश्यमान जङ्गम प्राणिसमूह स्थित है। २. ये (ऊर्ध्वस्वप्नः) = खड़े-खड़े ही सोते हुए (वृक्षाः अस्थुः) = वृक्ष भी स्थित हैं। (अयं तव रोग:) = यह तेरा रोग भी (तिष्ठात्) = निवृत्त गतिवाला होता जाए [ष्ठा गतिनिवृत्ती] न बहे, न बढ़े अपितु निवृत्त हो जाए।

    भावार्थ

    वैद्य रोगी को प्रेरणा देता है कि धुलोक, पृथिवीलोक, सब जगत् और ये वृक्ष भी स्थित हैं, तेरा रोग भी अभी स्थित हो जाता है, निवृत्त गतिवाला हो जाता है। यह आगे बढ़ता नहीं।

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    भाषार्थ

    (द्यौ:) द्युलोक (अस्थात्) नियत स्थान में स्थित है, (पृथिवी अस्थात्) पृथिवी नियत स्थान में स्थित है (इदम् विश्वम् जगत्) यह सब जगत् (अस्थात्) नियत स्थान में स्थित है। (ऊर्ध्वस्वप्नाः) ऊपर की ओर उठे हुए स्वप्नावस्था में (वृक्षाः) वृक्ष (अस्थु:) नियत स्थान में स्थित हैं, (अयम् ) यह (तव) तेरा ( रोग: ) रोग भी (तिष्ठात्) नियत स्थान में स्थित हो जाय।

    टिप्पणी

    [सायण ने रुधिर-स्राव रोग कहा है। मन्त्र में "अस्थात्" द्वारा "गतिनिवृत्ति" अभिप्रेत नहीं, अपितु निज प्रतिनियत स्थानों में स्थिति अभिप्रेत है। इसलिये "इदम् विश्वम्" को जगत् कहा है। जगत् गच्छतीति अथवा "गम् (गतौ) यङ्लुक्+ शतृ", अर्थात् अतिशय गतिशील कहा है। रुधिर भी हृदय से नाड़ियों में स्रवण करने के लिये है, यह ही उस की नियत स्थिति है, इस स्थिति में ही उसकी स्थिति चाहिये, स्राव के लिये नहीं। वृक्षों की स्थिति स्वप्नावस्था की कही है, इस द्वारा वृक्षों में भी जीवात्मा की स्थिति निर्दिष्ट को है। स्वप्न चेतन का धर्म है, जड़ का नहीं]।

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    विषय

    रोग की चिकित्सा में विषाणका नाम ओषधि।

    भावार्थ

    यह (द्यौः) विशाल द्युलोक (अस्थात्) स्थिर है (पृथिवी) पृथिवी भी (अस्थात्) स्थिर है (इदं विश्वं जगत्) यह समस्त जगत् भी स्थिर (ऊर्ध्व-स्वप्नाः वृक्षाः) उतान खड़े खड़े सोने वाले वृक्ष भी स्थिर हैं, इसी प्रकार (अयं तव रोगः) यह तेरा रोग भी (तिष्ठात्) स्थिर हो जाय, आगे अधिक न बढ़े।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    विश्वामित्र ऋषिः। मन्त्रोक्ता उत वनस्पतिर्देवता। १,२ अनुष्टुभौ। ३ त्रिपदा महाबृहती। तृचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Herbal Cure

    Meaning

    The solar region is firm and undisturbed it stands. The earth stands firm and still, undisturbed. This entire cosmos is firm and undisturbed. The high standing trees, dreaming and sleeping, stand still. Let this malady too stand still, it must not aggravate.

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    Subject

    As in the Verses

    Translation

    The sky is still (asthat), the earth is still; all this moving world has become still; still are the trees that sleep standing erect; may your this malady be stilled.

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    Translation

    [N.B. In this hymn Vishanta seems to stand for Ajashringi, Avartiki Shringi, Vrishchikali, Satala and Rohini.] Constant is this heaven, constant is this earth and firm stood the worlds of the universe. The trees which are in sound sleep stood firm and let this your malady be still.

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    Translation

    Just as the heaven stands firm, the earth stands firm, this universal world stands firm, and the trees that sleep erect stand firm, so let this thy malady, O patient, be still!

    Footnote

    Be still: Advance no further und stay away from us. The sleeping and waking of the trees show that the trees have life and soul.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    १−(अस्थात्) स्थिरोऽभूत् (द्यौः) प्रकाशमानः सूर्यः (अस्थात्) (पृथिवी) विस्तृता भूमिः (अस्थात्) (विश्वम्) सर्वम् (इदम्) दृश्यमानम् (जगत्) लोकः (अस्थुः) स्थिता अभूवन् (वृक्षाः) पादपाः (ऊर्ध्वस्वप्नाः) उपरिमुखाः सन्तो निद्रालवः (तिष्ठात्) गतिनिवृत्तो भूयात् (रोगः) शारीरिको मानसिको वा व्याधिः (अयम् तव) ॥

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