अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 48/ मन्त्र 1
श्ये॒नोऽसि॑ गाय॒त्रच्छ॑न्दा॒ अनु॒ त्वा र॑भे। स्व॒स्ति मा॒ सं व॑हा॒स्य य॒ज्ञस्यो॒दृचि॒ स्वाहा॑ ॥
स्वर सहित पद पाठश्ये॒न: । अ॒सि॒ । गा॒य॒त्रऽछ॑न्दा: । अनु॑ । त्वा॒ । आ । र॒भे॒ । स्व॒स्ति । मा॒ । सम् । व॒ह॒ । अ॒स्य । य॒ज्ञस्य॑ । उ॒त्ऽऋचि॑ । स्वाहा॑ ॥४८.१॥
स्वर रहित मन्त्र
श्येनोऽसि गायत्रच्छन्दा अनु त्वा रभे। स्वस्ति मा सं वहास्य यज्ञस्योदृचि स्वाहा ॥
स्वर रहित पद पाठश्येन: । असि । गायत्रऽछन्दा: । अनु । त्वा । आ । रभे । स्वस्ति । मा । सम् । वह । अस्य । यज्ञस्य । उत्ऽऋचि । स्वाहा ॥४८.१॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
परमात्मा के गुणों का उपदेश।
पदार्थ
तू (गायत्रच्छन्दाः) गाने योग्य आनन्द कर्मोंवाला (श्येन) महाज्ञानी परमात्मा (असि) है, (त्वा) तुझ को (अनु) निरन्तर (आ रभे) मैं ग्रहण करता हूँ। (मा) मुझ को (अस्य) इस (यज्ञस्य) पूजनीय कर्म को (उदृचि) उत्तम स्तुति में (स्वस्ति) आनन्द से (सम्) यथावत् (वह) ले चल, (स्वाहा) यह आशीर्वाद हो ॥१॥
भावार्थ
जो मनुष्य परमेश्वर के गुण कर्म स्वभाव जान कर पुरुषार्थ करते हैं, वे ही उत्तम कर्मों को समाप्त करके कीर्ति और आनन्द पाते हैं ॥१॥
टिप्पणी
१−(श्येनः) अ० ३।३।३। श्येन आत्मा भवति श्यायतेर्ज्ञानकर्मणः−निरु० १४।१३। महाज्ञानी परमात्मा (असि) (गायत्रच्छन्दाः) अभिनक्षियजि०। उ० ३।१०५। इति गै गाने−अत्रन्, स च णित्। आतो युक् चिण्कृतोः। पा० ७।३।३३। इति−युक्। गायत्रं गायतेः स्तुतिकर्मणः, निरु० १।८। चन्देरादेश्च छः। उ० ४।२१९। इति चदि आह्लादने−असुन् चस्य छः। छन्दति, अर्चतिकर्मा−निघ० ३।१४। गायत्राणि गानयोग्यानि छन्दांस्याह्लादकर्माणि यस्य सः (अनु) पश्चात् निरन्तरम् (त्वा) त्वाम् (आ रभे) परिगृह्णामि। आश्रयामि (स्वस्ति) कल्याणेन (मा) माम् (सम्) सम्यक् (वह) गमय (अस्य) वर्तमानस्य (यज्ञस्य) पूजनीयव्यवहारस्य (उदृचि) उत्तमायां स्तुतौ (स्वाहा) अ० २।१६।१। सुवाणी। आशीर्वादः ॥
विषय
श्येन, ऋभु, वृषा
पदार्थ
१. जीवन के प्रात:सवन में तू (श्येनः असि) = [श्यायतेनिकर्मणः] खूब ही ज्ञान प्रास करनेवाला है। (गायत्रच्छन्दा:) = तू गायत्र छन्दवाला है [गयाः प्राणाः, तान् तत्रे] प्राणशक्ति के रक्षण की प्रबल कामनावाला है। (त्वा अनु आरभे) = तेरा लक्ष्य करके मैं जीवन की क्रियाओं को आरम्भ करता हूँ। मेरी सब क्रियाएँ उस गायत्र सवन को सम्यक् पूर्ण करने की दृष्टि से होती हैं। [क] हे प्रभो! आप (मा) = मुझे (अस्य यज्ञस्य उदृचि) = इस प्रात:सवन नामक यज्ञ की अन्तिम ऋचा तक, अर्थात् समासि तक (स्वस्ति संवह) = सम्यक् कल्याण प्राप्त कराइए। इसके लिए मैं (स्वाहा) = आपके प्रति अपना अर्पण करता हूँ।
भावार्थ
जीवन के प्रात:सवन में हम श्येन-खूब ही ज्ञान की रुचिवाले व प्राणरक्षण की इच्छावाले हों। माध्यन्दिन सवन में 'काम-क्रोध-लोभ' को रोकने की इच्छावाले तथा अपने में शक्ति का सेचन करनेवाले हों। तृतीय सवन में ज्ञानी बनकर ज्ञान-प्रसार द्वारा जगती के हित में प्रवृत्त हों। प्रभुकृपा से हमारे तीनों सवन पूर्ण हों।
विशेष
जो मनुष्य ज्ञान के निगरण से जीवन का प्रारम्भ करता है [ब्रह्मचारी-ज्ञान को चरनेवाला] और ज्ञानोपदेश में ही जीवन के अन्तिम भाग को लगाता है [गिरति-उपदिशति] वह गर्ग व गर्ग-पुत्र 'गाय' कहलाता है। यह गाये ही अगले सूक्त का ऋषि है
भाषार्थ
[४८वां सूक्त भी ब्रह्मचर्यविषयक है। सूक्त द्वारा ब्रह्मचारी का उपनयन१ करके आचार्य उसे दण्डप्रदान करता है। कौशिक सूत्र ५६,३४)]। [हे परमेश्वर ! (श्येनः असि) श्येन पक्षी के सदृश तू शीघ्र गति वाला है, शीघ्र कार्यकारी है, (गायत्रच्छन्दाः) तू गायत्री छन्द वाला है, गायत्री छन्द द्वारा उपासनीय है, (अनु) तदनुसार (त्वा) तुझे (आरभे१) मैं ब्रह्मचारी उपासना में आलम्बन करता हूं। (अस्य यज्ञस्य ) इस ब्रह्मचर्यरूपी यज्ञ की (उदृचि) अन्तिम ऋचा तक अर्थात् वसुकाल के ब्रह्मचर्य की समाप्ति पर्यन्त, (मा) मुझे (स्वस्ति) कल्याण मार्ग से (संवह) सम्यक् प्रकार से ले चल। (स्वाहा) वसु ब्रह्मचर्य काल के प्रारम्भिक यज्ञ में तथा ब्रह्मचर्य काल की समाप्ति में यज्ञ में आहुतियां गायत्री मन्त्रों द्वारा मैं करता हूं।
टिप्पणी
[भक्तिपूर्वक उपासित परमेश्वर शीघ्र सफलता प्रदान करता है, अतः वह शीघ्र कार्यकारी है। यथा "भक्तिविशेषादावर्जितः ईश्वरस्तमनुगृह्णाति अभिध्यानमात्रेण ! तदभिध्यानादपि योगिनः आसन्नतमः समाधिलाभः फलं च भवति" (ईश्वरप्रणिधानाद्वा योग १।२३, पर व्यास भाष्य)। उदृचि--वसुकाल में जितनी ऋचाएं पाठ्य हैं उन की समाप्ति हो जाने तक। गायत्रच्छन्दाः= वसुकाल के ब्रह्मचर्य काल में गायत्री जप पूर्वक परमेश्वर की उपासना करनी चाहिये। इसी लिये कहा है "गायत्रं प्रात: सवनम" (छान्दोग्य ३।१६।१), प्रातः सवन है वसु ब्रह्मचर्य काल। इसी प्रकार "माध्यन्दिन सवन" अर्थात् रुद्र ब्रह्मचर्य काल में त्रिष्टुभ्-मन्त्र द्वारा परमेश्वर की उपासना करनी चाहिये (छान्दोग्य ३।१६।३) तथा तृतोय सवन अर्थात् आदित्य ब्रह्मचर्य काल में जगती मन्त्र द्वारा परमेश्वर की उपासना करनी चाहिये (छान्दोग्य ३।१६।५)। इस भावना के अनुसार सूक्त ४८ के मन्त्र २ और ३ में जगच्छन्दाः और त्रिष्टुप्छन्दाः का कथन हुआ है। सायणाचार्य ने भी मन्त्र २ में "तृतीय सवन", और मन्त्र ३ में "माध्यन्दिन सवन" की व्याख्या की है। त्वाऽऽरभे "त्वा" द्वारा परमेश्वर को कहा है, अतः उपासना में परमेश्वर को "आलम्बन रूप में वर्णित किया है। सूक्त ४७ के मन्त्र ३ में "सौधन्वनाः" द्वारा प्रणवध्यानी सद्गुरूओं का कथन हुआ है। वे ही सद्गुरु सूक्त ४८ के ब्रह्मचर्याश्रम में भी अभीष्ट हैं]। [१. उपनयन= उप (समीप में)+नयन (ले आना), अर्थात् निज आश्रम में से आना। यह आश्रम है ब्रह्मचर्याश्रम। २. त्या आरभे= त्वाम् आलभे, आलम्बनं करोमि, उपासनायां ध्याने च।]
विषय
तीन सवन, त्रिविध ब्रह्मचर्य।
भावार्थ
पूर्वोक्त तीनों सवनों और तीन प्रकार के ब्रह्मचर्य कालों का विशेष वर्णन करते हैं। हे प्रातः सवनरूप प्रथम ब्रह्मचर्य ! तू (श्येनः असि) श्येन अर्थात् ज्ञान, ब्रह्मतेज का सम्पादन करानेहारा और (गायत्र छन्दाः) गायन्नच्छन्दाः= प्राणसाधना, आत्मसाधना, ब्रह्मवृत्ति, ब्रह्मवर्च, तेज और वीर्य का प्राप्त करानेहारा है और २४ अक्षरोंवाले गायत्री छन्द के समान जीवन का प्रारम्भ रूप २४ वर्ष तक पालन करने योग्य है। (त्वां) तेरा मैं (अनु रसे) अनुष्ठान करता हूँ, तेरा पालन गुरु के अधीन रह कर करता हूँ। (अस्य) इस (यज्ञस्य) ब्रह्मचर्य यज्ञ के (उद् ऋषि) अन्तिम ऋचापाठ की समाप्ति तक (मा) मुझे (स्वस्ति) कल्याण पूर्वक (सं वह) प्राप्त करा। (स्वाहा) यही हमारी अपनी प्रतिज्ञा है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अङ्गिरा ऋषिः। मन्त्रोक्ता देवता। उष्णिक्। तृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Prayer for Well-Being
Meaning
Lord of holy fire, you are the Eagle, highest all- impelling power and force of existence, ecstatic protective spirit of life’s beauty and joy. In consonance with your love and worship I begin this sacred yajna of life in which, I pray, graciously lead me to the blessed completion of this yajna. This is the voice of prayer in truth of faith.
Subject
As laid in the verses
Translation
You are syena (falcon-: one of excellent motion) having gayatri as metre. I start ‘this libation for you. May you conduct me safely to the-last verse of this sacrifice. Svaha.
Translation
This fire is Shena, the all-impelling force. I the performer of yajna possessed of the virtues of. Brahmana Varna accepts It as the means of yajna. Let it lead me happily in the praise of this yajna.
Translation
O first kind of Vasu Brahmcharya, thou art the imparter of knowledge and spiritual glow, like the twenty-four syllables of the Gayatri, thou extendest over the first twenty-four years of life. I stick fast unto thee. Happily bear me to the last goal of this my sacrifice of celibacy. This is my grim determination!
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
१−(श्येनः) अ० ३।३।३। श्येन आत्मा भवति श्यायतेर्ज्ञानकर्मणः−निरु० १४।१३। महाज्ञानी परमात्मा (असि) (गायत्रच्छन्दाः) अभिनक्षियजि०। उ० ३।१०५। इति गै गाने−अत्रन्, स च णित्। आतो युक् चिण्कृतोः। पा० ७।३।३३। इति−युक्। गायत्रं गायतेः स्तुतिकर्मणः, निरु० १।८। चन्देरादेश्च छः। उ० ४।२१९। इति चदि आह्लादने−असुन् चस्य छः। छन्दति, अर्चतिकर्मा−निघ० ३।१४। गायत्राणि गानयोग्यानि छन्दांस्याह्लादकर्माणि यस्य सः (अनु) पश्चात् निरन्तरम् (त्वा) त्वाम् (आ रभे) परिगृह्णामि। आश्रयामि (स्वस्ति) कल्याणेन (मा) माम् (सम्) सम्यक् (वह) गमय (अस्य) वर्तमानस्य (यज्ञस्य) पूजनीयव्यवहारस्य (उदृचि) उत्तमायां स्तुतौ (स्वाहा) अ० २।१६।१। सुवाणी। आशीर्वादः ॥
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