अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 50/ मन्त्र 3
ऋषिः - अथर्वा
देवता - अश्विनौ
छन्दः - पथ्यापङ्क्ति
सूक्तम् - अभययाचना सूक्त
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तर्दा॑पते॒ वघा॑पते॒ तृष्ट॑जम्भा॒ आ शृ॑णोत मे। य आ॑र॒ण्या व्यद्व॒रा ये के च॒ स्थ व्यद्व॒रास्तान्त्सर्वा॑ञ्जम्भयामसि ॥
स्वर सहित पद पाठतर्द॑ऽपते । वघा॑ऽपते । तृष्ट॑ऽजम्भा: । आ ।शृ॒णो॒त॒ । मे॒ । ये । आ॒र॒ण्या: । वि॒ऽअ॒द्व॒रा: । ये । के । च॒ । स्थ । वि॒ऽअ॒द्व॒रा: । तान् । सर्वा॑न् । ज॒म्भ॒या॒म॒सि॒ ॥५०.३॥
स्वर रहित मन्त्र
तर्दापते वघापते तृष्टजम्भा आ शृणोत मे। य आरण्या व्यद्वरा ये के च स्थ व्यद्वरास्तान्त्सर्वाञ्जम्भयामसि ॥
स्वर रहित पद पाठतर्दऽपते । वघाऽपते । तृष्टऽजम्भा: । आ ।शृणोत । मे । ये । आरण्या: । विऽअद्वरा: । ये । के । च । स्थ । विऽअद्वरा: । तान् । सर्वान् । जम्भयामसि ॥५०.३॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
आत्मा के दोष निवारण का उपदेश।
पदार्थ
(तर्दपते) हे हिंसकों के स्वामी ! (वघापते) हे टिड्डी आदिकों के स्वामी ! (तृष्टजम्भाः) हे प्यासे मुखवाले कीड़ो ! (मे) मेरी (आ) अच्छे प्रकार (शृणोत) सुनो। (ये) जो तुम (आरण्याः) जंगली और (व्यद्वराः) विविध प्रकार खानेवाले (च) और (ये) (के) जो कोई दूसरे जन्तु (व्यद्वराः) भख लेनेवाले (स्थ) हो, (तान्) उन तुम (सर्वान्) सब को (जम्भयामसि) हम नाश करते हैं ॥३॥
भावार्थ
जैसे मनुष्य छोटे बड़े हिंसक जन्तुओं को मार हटाते हैं, वैसे ही विद्वान् लोग अपने दोषों को हटावें ॥३॥
टिप्पणी
३−(तर्दपते) सांहितिको दीर्घः। तर्दानां हिंसकानां स्वामिन् (वघापते) अन्येष्वपि दृश्यते। पा० ३।२।१०१। इति अव+हन् हिंसागत्योः−ड। वष्टि भागुरिरल्लोपम्−अव शब्दस्य अलोपः−टाप्। हे अवहननशीलानां जन्तूनां कीटादीनां स्वामिन् (तृष्टजम्भाः) पिपासितमुखाः (आ) सम्यक् (शृणोत) तशब्दस्य तप्। शृणुत (मे) मम वचनम् (ये) (आरण्याः) अरण्ये भवाः (व्यद्वराः) अ० ३।२८।२। विविधमदनशीलाः (ये के) ये केचित् अन्ये जन्तवः (च) (स्थ) भवथ (तान्) तान् युष्मान् (सर्वान्) समस्तान् (जम्भयामसि) जम्भयामः। नाशयामः ॥
विषय
तर्दापते, बघापते
पदार्थ
१. (तर्दापते) = हे चूहे आदि हिंसकों के स्वामिन् हे (वघापते) = [अवघ्नन्तीति वघाः] कृषिनाशक पतङ्ग आदि के स्वामिन् ! (तृष्टजम्भा:) = तीक्ष्ण दाँतोंवाले तुम मे (आशृणोत) = मेरी इस बात को सुनो। (ये) = जो तुम (आरण्या:) = जङ्गल में होनेवाले (व्यद्वरा:) = विविधरूप से यवादि को खा जानेवाले हो (च) = और (ये के) = जो कोई ग्राम्य भी (व्यद्वरा:) = विविध अदनशील प्राणी हो, (तान् सर्वान) = उन सबको (जम्भयामसि) = हम नष्ट करते हैं।
भावार्थ
कृषिनाशक चूहों व टिड्डीदलों को समाप्त करना ही ठीक है।
विशेष
यवादि सात्त्विक भोजनों को करता हुआ यह रागों व वासनाओं को शान्ता करता हुआ 'शन्ताति' बनता है। यही अगले सूक्त का ऋषि है -
भाषार्थ
(तर्दापते) हे हिंसक [आखुओं] के पति ! (वघांपते ) हे आक्षेप योग्य, निन्दनीय, गतियों वालों के पति ! (तृष्टजम्भाः) हे तीक्ष्णदाढ़ा बालो ! तुम (मे) मेरे वचन को ( आशृणोत) सुनो कि (ये) जा (आरण्याः) अरण्यवर्ती (व्यद्वराः) विविध अन्नों के खाने वाले, ( च) और (ये, के) जो कोई ( व्यद्वराः) ग्रामवर्ती हुए विविध अन्नो के खाने वाले (स्थ) तुम हो, (तान्, सर्वान् ) उन सब का ( जम्भयामसि ) हम नाश करते हैं ।
टिप्पणी
[वघांपते= वघ् (क्विप्, कर्तरि, षष्ठी बहुवचन)। वघि गत्याक्षेपे (भ्वादिः)। तथा इन तीनों मन्त्रों में प्रायः आखुओं का वर्णन है। आखु= "विभवे सति नैवात्ति न ददाति जुहोति च तमाहुराखुः" (आप्टे) तथा "thief" अर्थात् चोर (आप्टे)। अर्थात् धन के होते जो न खाता, न दान करता, न यज्ञ करता, उसे आखू कहते हैं। ऐसे व्यक्तियों को धान्य के खाने से वञ्चित कर भूखे मार देना चाहिये। ये चाहे अरण्यवासी हों, या ग्रामवासी हों, इन्हें मन्त्रोक्त दण्ड देने चाहिये, तथा सामाजिक जीवन से पृथक् कर देना चाहिये (अपोदित मन्त्र २)। ऐसे व्यक्ति चोर हैं, समाज के धन को चुरा कर विभवशाली हुए हैं इन्हें चोरों की दण्ड देना ही चाहिये। मन्त्रार्थ ऐसे ही आखुओं तथा चोरों के सम्बन्ध में सार्थक प्रतीत होते हैं। पुरुष-आखुओं के सम्बन्ध में कहा है "एष ते द्रभाग आखुस्ते पशुः" (यजुः ३।५७), अर्थात् पुरुष-आखु, रुद्र रूप परमेश्वर का भाग है और उसका पशु है। तभी उस पशु के लिये इन मन्त्रों में कठोर दण्ड का विधान हुआ है। इसी प्रकार यज्ञ न करने वाले को गीता में भी स्तेन अर्थात चोर कहा है। यथा "इष्टान् भोगान् हि वो देवा दास्यन्ते यज्ञभाविताः। तैर्दत्तानप्रदायैभ्यो यो भुङ्क्ते स्तेन एव सः" (प्र० ३ । श्लो० १२)]।
विषय
अन्नरक्षा के लिए हानिकारक जन्तुओं का नाश।
भावार्थ
हे (तर्दापते) हिंसकों के स्वामी ! हे (वघापते) कृषिनाशक जन्तुओं के मुख्य पति ! हे (तृष्टजम्भाः) तीक्ष्ण दांतों वाले जन्तुओ ! (मे आ शृणोत) मेरा वचन सुनो। (ये आरण्याः) जो अंगली (व्यद्वराः) खास तौर पर खेती को खा जानेवाले, बड़े जानवर और (ये के च) जो कोई भी (व्यद्वराः स्थ) मेरी खेती को खानेवाले जन्तु, जैसे और जहां भी हों (तान् सर्वान्) उन सबों को (जम्भयामसि) हम विनाश कर डालें।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अभयकामोऽथर्वा ऋषिः। अश्विनौ देवते। १ विराड् जगती। २-३ पथ्या पंक्तिः। तृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Grain Protection
Meaning
O gurads of the crops against damagers, locusts, voracious insects, listen to me: whether the damagers are voracious destroyers of the forest-kind or they stay around the fields, voracious damagers all, we must eliminate all.
Translation
O lord of destroyers (borers), O lord of rats (akhuh), you having sharp teeth. (trsta-jambhi), listen to me, The devourers of the wind, and whosoever are other devourers (vyadvar) you are, ali of them shall crush and destroy.
Translation
Let the injurious insects, the beasts destroying crops, the boring beasts, realize that we destroy all those animal who eat and spoil our crops be they in the wood or be they piercing ones.
Translation
Hearken to me, lord of the violent birds, lord of the locusts, ye sharp-toothed vermins! whatever ye be, dwelling in woods or villages, devourers of my harvest, we crush and mangle all those.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
३−(तर्दपते) सांहितिको दीर्घः। तर्दानां हिंसकानां स्वामिन् (वघापते) अन्येष्वपि दृश्यते। पा० ३।२।१०१। इति अव+हन् हिंसागत्योः−ड। वष्टि भागुरिरल्लोपम्−अव शब्दस्य अलोपः−टाप्। हे अवहननशीलानां जन्तूनां कीटादीनां स्वामिन् (तृष्टजम्भाः) पिपासितमुखाः (आ) सम्यक् (शृणोत) तशब्दस्य तप्। शृणुत (मे) मम वचनम् (ये) (आरण्याः) अरण्ये भवाः (व्यद्वराः) अ० ३।२८।२। विविधमदनशीलाः (ये के) ये केचित् अन्ये जन्तवः (च) (स्थ) भवथ (तान्) तान् युष्मान् (सर्वान्) समस्तान् (जम्भयामसि) जम्भयामः। नाशयामः ॥
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