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अथर्ववेद के काण्ड - 6 के सूक्त 51 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 51/ मन्त्र 3
    ऋषिः - शन्ताति देवता - वरुणः छन्दः - जगती सूक्तम् - एनोनाशन सूक्त
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    यत्किं चे॒दं व॑रुण॒ दैव्ये॒ जने॑ऽभिद्रो॒हं म॑नु॒ष्या॒श्चर॑न्ति। अचि॑त्त्या॒ चेत्तव॒ धर्मं॑ युयोपि॒म मा न॒स्तस्मा॒देन॑सो देव रीरिषः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यत् । किम् । च॒ । इ॒दम् । व॒रु॒ण॒ । दैव्ये॑ । जने॑ । अ॒भि॒ऽद्रो॒हम् । म॒नु॒ष्या᳡: । चर॑न्ति । अचि॑त्त्या । च॒ । इत् । तव॑ । धर्म॑ । यु॒यो॒पि॒म । मा । न॒: । तस्मा॑त् । एन॑स: । दे॒व॒ । री॒रि॒ष॒: ॥५१.३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यत्किं चेदं वरुण दैव्ये जनेऽभिद्रोहं मनुष्याश्चरन्ति। अचित्त्या चेत्तव धर्मं युयोपिम मा नस्तस्मादेनसो देव रीरिषः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यत् । किम् । च । इदम् । वरुण । दैव्ये । जने । अभिऽद्रोहम् । मनुष्या: । चरन्ति । अचित्त्या । च । इत् । तव । धर्म । युयोपिम । मा । न: । तस्मात् । एनस: । देव । रीरिष: ॥५१.३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 51; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    द्रोह के नाश का उपदेश।

    पदार्थ

    (वरुण) हे अति उत्तम परमेश्वर ! (मनुष्याः) मनुष्य (इदम्) यह (यत् किम् च) जो कुछ भी (अभिद्रोहम्) अपकार (दैव्ये) विद्वानों के बीच विद्वान् (जने) मनुष्य पर (चरन्ति) करते हैं। (च) और (इत्) भी (अचित्त्या) अचेतनपन से (तव) तेरे (धर्म्म) धर्म को (युयोपिम) हमने तोड़ा है, (देव) हे प्रकाशमय परमात्मन् ! (नः) हमें (तस्मात्) उस (एनसः) पाप से (मा रीरिषः) मत नष्ट कर ॥३॥

    भावार्थ

    यदि मनुष्य अज्ञान से कोई पाप कर्म करें तो वे दण्डरूप प्रायश्चित्त, अनुताप आदि करके धर्म आचरण में सदा प्रवृत्त रहें ॥३॥ यह मन्त्र कुछ भेद से ऋग्वेद में है−म० ७।८९।५। इति पञ्चमोऽनुवाकः ॥

    टिप्पणी

    ३−(यत्) (किम् च इदम्) किञ्चिदपि (वरुण) हे अत्युत्तम परमेश्वर (दैव्ये) अ० २।२।२। देवेषु विद्वत्सु जाते विदुषि (जने) मनुष्ये (अभिद्रोहम्) अपराधम् (मनुष्याः) पुरुषाः (चरन्ति) अनुतिष्ठन्ति (अचित्त्या) अ० ५।१७।१२। अज्ञानेन (च) (इत्) अपि (धर्म) सर्वधातुभ्यो मनिन्। उ० ४।१४५। इति धृ धारणे−मनिन्। धारणसामर्थ्यम्। नियमम् (युयोपिम) युप विमोहने−लिट्। विमोहितवन्तः। नाशितवन्तः (न) अस्मान् (तस्मात्) (एनसः) अ० २।१०।८। पापात् (देव) हे प्रकाशमय परमात्मन् (मा रीरिषः) रिष हिंसायाम्, ण्यन्ताद् माङि लुङि चङि रूपम्। मा हिंसीः ॥

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    विषय

    वरुण

    पदार्थ

    १. हे (वरुण) = सब पापों का निवारण करनेवाले प्रभो! हम (मनुष्या:) = मनुष्य (यत किंच) = जो कुछ (इदं अभिद्रोहम्) = यह (द्रोह) = जनित पाप (दैव्ये जने) = देव-सम्बन्धी प्राणियों के विषय में (चरन्ति) = कर बैठते हैं अथवा (चेत् यदि अचित्त्या) = नासमझी से (तव धर्मा) = आपके नियमों का (युयोपिम) = व्यामोह-विपर्यास करते हैं तो हे (देव) = हमारे पापों को जीतने की कामनावाले प्रभो! (न:) = हमें (तस्मात् एनस:) = उस पाप से (मारीरिष:) = मत हिंसित कीजिए।

    भावार्थ

    अज्ञानवश हमसे त्रुटियों हो जाती हैं। प्रभु हमें प्रेरणा प्राप्त कराके उन पापों से बचाएँ। हम उन पापों के शिकार न हो जाएँ।

    विशेष

    प्रभु-प्रेरणा से ज्ञान-दीसि [भा] प्राप्त करके पापों को परे फेंकनेवाला [be removed गल] पापों से दूर रहनेवाला यह व्यक्ति 'भागलि' कहलाता है। यही अगले सूक्त का ऋषि है। अथ चतुर्दशः प्रपाठक: -

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    भाषार्थ

    (वरुण) हे पापनिवारक परमेश्वर ! (मनुष्याः) मनुष्य (दैव्ये जने) देव कोटि के जनों के प्रति (यत् किं च) जो कुछ (इदम्) यह (अभिद्रोहम्) द्रोह (चरन्ति) करते हैं, तथा (अचित्त्या) भूल के कारण (चेत्) यदि (तव) हे वरुण ! तुझ द्वारा निर्दिष्ट (धर्मा=धर्माणि) धर्मकर्मों का (युयोपिम) हम ने उल्लंघन किया है, तो (देव) हे देव ! (तस्मात् एनसः) उस पाप से (नः) हमें (मा)(रीरिषः) हिंसित कर।

    टिप्पणी

    [हम मनुष्यों द्वारा किसी भी देवकोटि के जन के प्रति किये द्रोह से; तथा भूल के कारण स्वयं ज्ञानियों द्वारा हुए सत्कर्मों के उल्लंघन से, परमेश्वर से क्षमा चाहते हैं। यह मानुष स्वभाव ही है। वेद में वरुण को "अपामधिपति" भी कहा है (अथर्व० ५।२४।४)। अतः 'आप:" प्रकरण में वरुण नाम से परमेश्वर तथा आप: दोनों का कथन किया है।]

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    विषय

    पवित्र होकर उन्नत होने की प्रार्थना।

    भावार्थ

    हे (वरुण) राजन् ! हे प्रभो ! (दैव्ये) दिव्य गुणों से युक्त विद्वान् (जने) पुरुष के प्रति (मनुष्याः) मनुष्य लोग (इदं यत् किं च) यह जो कुछ भी (अभिद्रोहम्) अभिद्रोह, अनुचित विरोध (चरन्ति) कर बैठते हैं और यदि (अचित्या) विना जाने (तव धर्मा) तेरे बनाये नियमों को हम लोग (युयोपिम चेत्) न पालन करें तो भी हे देव ! (नः) हमें (तस्माद् एनसः) उस अपराध के कारण (मा रीरिषः) कष्ट न दे। इसी मन्त्र के आधार पर अज्ञान में किये गये बड़े बड़े अपराध भी कानूनन दण्ड योग्य न होकर क्षमायोग्य होते हैं। ईश्वर भी अज्ञान में किये कार्यों को अपराध नहीं गिनता। इसी से भोगयोनि में किये हिंसादि कर्म भावी में नया प्रारब्ध नहीं पैदा करते।

    टिप्पणी

    ‘मनुष्याश्चरामसि’ ‘अचित्त्यायत् तव’ इति ऋ०॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    शंतातिर्ऋषिः। १ सोमः २ आपः, ३ वरुणश्च देवताः। १ गायत्री, २ त्रिष्टुप, ३ जगती। तृचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Purity and Power

    Meaning

    O Varuna, lord of infinite cover of protection, whatever wrong or evil or sin people commit out of jealousy, hate or enmity toward noble and divine personalities, or whatever violation of your law and Dharma we too, out of ignorance or want of care and awareness, might commit, pray hurt as not, O Lord Divine, for that fault and sin.

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    Subject

    Varuna

    Translation

    ‘Whatever offence men commit against: divine beings, and Whichever your law they violate through ignorance, may you not, O venerable Lord, be harsh to us on account ofthat iniquity, (Also Rg. VI.89.5)

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    Translation

    O Almighty Varuna (All-worshippable God) leave me not debarred of your grace due to that iniquity whatever the men commit against the men of virtues and whatever we commit to violate your law ignorantly.

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    Translation

    O God, whatever offence men commit against noble persons, or when through want of thought we violate thy laws, punish us not, O God, for that iniquity!

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ३−(यत्) (किम् च इदम्) किञ्चिदपि (वरुण) हे अत्युत्तम परमेश्वर (दैव्ये) अ० २।२।२। देवेषु विद्वत्सु जाते विदुषि (जने) मनुष्ये (अभिद्रोहम्) अपराधम् (मनुष्याः) पुरुषाः (चरन्ति) अनुतिष्ठन्ति (अचित्त्या) अ० ५।१७।१२। अज्ञानेन (च) (इत्) अपि (धर्म) सर्वधातुभ्यो मनिन्। उ० ४।१४५। इति धृ धारणे−मनिन्। धारणसामर्थ्यम्। नियमम् (युयोपिम) युप विमोहने−लिट्। विमोहितवन्तः। नाशितवन्तः (न) अस्मान् (तस्मात्) (एनसः) अ० २।१०।८। पापात् (देव) हे प्रकाशमय परमात्मन् (मा रीरिषः) रिष हिंसायाम्, ण्यन्ताद् माङि लुङि चङि रूपम्। मा हिंसीः ॥

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