अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 61/ मन्त्र 3
ऋषिः - अथर्वा
देवता - रुद्रः
छन्दः - भुरिक्त्रिष्टुप्
सूक्तम् - विश्वस्रष्टा सूक्त
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अ॒हं ज॑जान पृथि॒वीमु॒त द्याम॒हमृ॒तूंर॑जनयं स॒प्त सिन्धू॑न्। अ॒हं स॒त्यमनृ॑तं॒ यद्वदा॑मि॒ यो अ॑ग्नीषो॒मावजु॑षे॒ सखा॑या ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒हम् । ज॒जा॒न॒ । पृ॒थि॒वीम् । उ॒त । द्याम् । अ॒हम् । ऋ॒तून् । अ॒ज॒न॒य॒म् । स॒प्त । सिन्धू॑न् । अ॒हम् । स॒त्यम् । अनृ॑तम् । यत् । वदा॑मि । य: । अ॒ग्नी॒षो॒मौ । अजु॑षे । सखा॑या ॥६१.३॥
स्वर रहित मन्त्र
अहं जजान पृथिवीमुत द्यामहमृतूंरजनयं सप्त सिन्धून्। अहं सत्यमनृतं यद्वदामि यो अग्नीषोमावजुषे सखाया ॥
स्वर रहित पद पाठअहम् । जजान । पृथिवीम् । उत । द्याम् । अहम् । ऋतून् । अजनयम् । सप्त । सिन्धून् । अहम् । सत्यम् । अनृतम् । यत् । वदामि । य: । अग्नीषोमौ । अजुषे । सखाया ॥६१.३॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
परमेश्वर की महिमा का उपदेश।
पदार्थ
(अहम्) मैंने (पृथिवीम्) पृथिवी (उत) और (द्याम्) सूर्य को (जजान) उत्पन्न किया, (अहम्) मैंने (सप्त) सात (ऋतून्) [त्वचा, नेत्र, कान, जिह्वा, नाक, मन और बुद्धि] को और (सिन्धून्) उनकी व्यापक शक्तियों को (अजनयम्) उत्पन्न किया है। (अहम्) मैं (सत्यम्) सत्य और (अनृतम्) झूठ (यत्) जो कुछ है [उसे] (वदामि) बताता हूँ, (यः) जिसमें (सखाया) आपस में मित्र (अग्नीषोमौ) अग्नि और जल को (अजुषे) तृप्त किया है ॥३॥
भावार्थ
परमेश्वर ने सब पृथिवी आदि पदार्थ और इन्द्रियों और इन्द्रियों की शक्तियों को रचकर धर्म और अधर्म का लक्षण बताया है और अग्नि और जल वायु आदि को संसार की स्थिति का कारण रक्खा है, उसी की उपासना सब मनुष्य करें ॥३॥ इति षष्ठोऽनुवाकः ॥
टिप्पणी
३−(जजान) उत्पादितवानस्मि (ऋतून्) म० २। पतनशीलान् ऋषीन् त्वक्चक्षुरादीन् (सप्त) सप्तसंख्यकान् (सिन्धून्) अ० ४।६।२। स्पन्दनशीला व्यापिकाः शक्तीः, त्वक्चक्षुरादीनाम् (यः) अहं परमेश्वरः (अग्नीषोमौ) अग्निं च जलं च (अजुषे) जुषी प्रीतिसेवनयोः। तर्पितवानस्मि (सखाया) सखायौ, सहायभूतौ। अन्यत् पूर्ववत् ॥
विषय
अग्रीषोमौ
पदार्थ
१. (अहम्) = मैं (पृथिवीम्) = पृथिवी को (उत द्याम्) = और धुलोक को (जजान) = प्रादुर्भूत करता हूँ। (अहम्) = मैं ही प्राणिशरीर में (ऋतून) = गतिशील (सप्त सिन्धून्) = सात प्राण-प्रवाहों को (अजनयम्) = उत्पन्न करता हूँ। २. (अहम्) = मैं ही (यत्) = जो (सत्यम्) = सत्य है और (अन्तम्) = जो अनुत है उसका (वदामि) = उपदेश करता हूँ, हृदयस्थ रूपेण सत्यासत्य का विवेक प्राप्त कराता हूँ। मैं वह हूँ (यः) = जोकि (सखाया) = परस्पर मित्रभूत-एक-दुसरे के पूरक होने से परस्पर सम्बद्ध (अग्रीषोमौ) = अग्नि और सोमतत्त्वों को (अजुषे) = प्रीतिपूर्वक सेवन कराता हैं, अर्थात् मेरा उपासक अपने जीवन में अग्नि और सोम इन दोनों तत्त्वों का समन्वय करनेवाला बनता है। इसी कारण उसका जीवन समत्ववाला बना रहता है।
भावार्थ
ब्रह्माण्ड व पिण्ड के जनक प्रभु हमारे जीवनों में सत्यासत्य का प्रकाश करते हैं। वे अपने उपासकों में अग्नि व सोमतत्त्व को स्थापित करके उनके जीवनों को समत्वयुक्त करते हैं।
भाषार्थ
(अहम्) मैं ने (जजान) पैदा किया है (पृथिवीम्) पृथिवी को, (उत) तथा (द्याम्) द्युलोक को, (अहम्) मैंने (ऋतून्) ऋतुओं को, (सप्त सिन्धून्) सात प्रकार की नदियों को, या सात समुद्रों को (अजनयम्) पैदा किया है। (यद्) जो (सत्यम्, अनृतम्) सत्य और असत्य [का स्वरूप] है उस का (अहम् वदामि) मैं कथन करता हूं, (यः) जिस मैंने कि (सखायौ) परस्पर-सखि रूप (अग्नीषोमौ) अग्नि और सोम का (अजुषे) सेवन किया है [सृष्ट्युत्पादन में]।
टिप्पणी
[सात प्रकार की नदियां हैं गङ्गा आदि (ऋ० १०।७५।५) ये शीघ्रगमन आदि की विशेषताओं की दृष्टि से भूमण्डल पर सात प्रकार की हैं। अथवा "सप्तसिन्धवः" हैं सप्तविध वैदिक छन्द या व्याकरण सम्बन्धी सात विभक्तियां जो कि "काकुर" अर्थात् मुखस्थ तालु में क्षरित होती हैं यथा, -"सुदेवो असि वरुण यस्य ते सप्तसिन्धवः। अनुक्षरन्ति काकुदं सूर्य सुषिरामिव ॥" (ऋ० ८।६९॥१२), (निरुक्त ५।४।२७)। अथवा सात प्रकार के भौम समुद्र। आनीषोमौ= अग्नि है रजस्वला स्त्री का रजस्, और सोम है पुरुष का वीर्य। इन दोनों का स्त्री योनि में परस्पर सम्बन्ध अर्थात् मेल हो जाता है तो ये परस्पर सखा के रूप में योनि में वास करते हैं और प्राणियों की उत्पत्ति करते हैं, इस प्रकार सृष्ट्युत्पादन में परमेश्वर इन दोनों का सेवन करता है, सहायता लेता है। इसी प्रकार " तस्माद्वा एतस्मादात्मन आकाशः सम्भूतः आकाशाद् वायुः, वायोरग्निरग्नेराप अद्भ्यः पृथिवी" (तेत्तिरीयोप० २॥१) में परस्पर नियतपौर्वापर्य के कारण अग्नि और आपः सखायौ हैं, जोकि स्थूल जगत् के उत्पादन में परमेश्वर के सहायक होते हैं। उद्धरण में अग्नि है अग्नितत्त्व, और आपः है सोम तत्त्व। सोमः Water (आप्टे)।
विषय
ईश्वर का स्वतः विभूति-परिदर्शन।
भावार्थ
(अम्) मैं ईश्वर ही (पृथिवीम्) पृथिवी को (जजान) प्रकट करता हूं, उत्पन्न करता हूं। (उत) और (द्याम्) द्युलोक को भी (जजान) प्रकट करता हूं। (अहम्) मैं ही (ऋतून्) गतिशील (सप्त सिन्धून्) सात प्राण, प्रवाहों को भी (अजनयम्) प्रकट करता हूं, उत्पन्न करता हूं। और (सत्यं यत्) सत्य, परमार्थ सत् क्या है ? और (अनृतम्) व्यवहार में असत् एवं विनश्वर, अध्रुव, ध्वंसयोग्य असत्य क्या है यह सब ठीक ठीक (अहं वदामि) मैं ही उपदेश करता हूं। और (सखायौ) समान आख्यान वाले, वा समान रूप से ‘ख’ = इन्द्रियों में ‘अय’ = गति करने वाले (अग्निषोमौ) अग्नि और सोम, सूर्य और चन्द्र, प्राण और अपान इन दोनों को मैं आत्मा ही (अजुषे) सेवन करता हूं। इस सूक्त की गीता के ‘विभूति-योग’ नाम दशम अध्याय से तुलना करनी चाहिये।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अथर्वा ऋषिः। रुद्रो देवता। त्रिष्टुभः २-३ भुरिजौ। तृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
The Lord Supreme
Meaning
I create the heaven and earth. I create the seven seasons and the seven orders of the flow and the flux of existence, and the seven rivers and the seven seas. I speak of what is true and what is not true, and I join Agni and Soma, hot and cold, positive and negative complementarities in the cosmic circuit of existence.
Translation
I have created the earth, as well as, the sky. 1 have created the seisons and the rivers seven. What is untrue, I speak truly. I take pleasure in the friendship‘ of the Lord adorable (Agni) and blissful (Soma).
Translation
I bring into being the world of expansion and the world of light, I make the seasons and create the seven meters of the vedic speech. I reveal to men distinctly whatever is truth and whatever is untruth. It is who starts the operation of fire and air.
Translation
I give existence to the Earth and Heaven. I create the seven organs and their attributive powers. I declare what is Truth and what is Falsehood. I use fire and water, mutual friends, in the creation of the universe.
Footnote
I: God.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
३−(जजान) उत्पादितवानस्मि (ऋतून्) म० २। पतनशीलान् ऋषीन् त्वक्चक्षुरादीन् (सप्त) सप्तसंख्यकान् (सिन्धून्) अ० ४।६।२। स्पन्दनशीला व्यापिकाः शक्तीः, त्वक्चक्षुरादीनाम् (यः) अहं परमेश्वरः (अग्नीषोमौ) अग्निं च जलं च (अजुषे) जुषी प्रीतिसेवनयोः। तर्पितवानस्मि (सखाया) सखायौ, सहायभूतौ। अन्यत् पूर्ववत् ॥
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