अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 79/ मन्त्र 3
ऋषिः - अथर्वा
देवता - संस्फानम्
छन्दः - त्रिपदा प्राजापत्या जगती
सूक्तम् - ऊर्जा प्राप्ति सूक्त
0
देव॑ सं॒स्फान॑ सहस्रापो॒षस्ये॑शिषे। तस्य॑ नो रास्व॒ तस्य॑ नो धेहि॒ तस्य॑ ते भक्ति॒वांसः॑ स्याम ॥
स्वर सहित पद पाठदेव॑ । स॒म्ऽस्फा॒न॒ । स॒ह॒स्र॒ऽपो॒षस्य॑ । ई॒शि॒षे॒ । तस्य॑ । न॒: । रा॒स्व॒ । तस्य॑ । न: । धे॒हि॒ । तस्य॑ । ते॒ । भ॒क्ति॒ऽवांस॑: । स्या॒म॒ ॥७९.३॥
स्वर रहित मन्त्र
देव संस्फान सहस्रापोषस्येशिषे। तस्य नो रास्व तस्य नो धेहि तस्य ते भक्तिवांसः स्याम ॥
स्वर रहित पद पाठदेव । सम्ऽस्फान । सहस्रऽपोषस्य । ईशिषे । तस्य । न: । रास्व । तस्य । न: । धेहि । तस्य । ते । भक्तिऽवांस: । स्याम ॥७९.३॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
सर्वसम्पत्ति पाने का उपदेश।
पदार्थ
(संस्फान) हे सब प्रकार वृद्धिवाले (देव) प्रकाशस्वरूप परमात्मन् ! (सहस्रपोषस्य) सहस्र प्रकार के पोषण का (ईशिषे) तू स्वामी है। (तस्य) उस [पोषण] का (नः) हमें (रास्व) दान कर, (तस्य) उसका (नः) हमारे लिये (धेहि) धारण कर, (तस्य ते) उस तेरी (भक्तिवांसः) भक्तिवाले (स्याम) हम होवें ॥३॥
भावार्थ
मनुष्य परमेश्वर की भक्तिपूर्वक पुरुषार्थ करके उसके अक्षय भण्डार से सब प्रकार के अन्न आदि पदार्थ प्राप्त करके सदा सुखी रहें ॥३॥
टिप्पणी
३−(देव) हे प्रकाशमय (संस्फान) सम्+स्फायी वृद्धौ-क्त, छान्दसं रूपम्। हे सम्यक् स्फीत। प्रवृद्ध (सहस्रपोषस्य) अपरिमितपोषणस्य (ईशिषे) ईश्वरो भवसि (तस्य) पोषस्य (नः) अस्मभ्यम् (रास्व) दानं कुरु (तस्य) (नः) (धेहि) धारणं कुरु (तस्य) तथाविधस्य (ते) तव, परमेश्वरस्य (भक्तिवांसः) छन्दसीवनिपौ च वक्तव्यौ। वा० पा० ५।२।१०९। इति भक्ति−वनिप् मत्वर्थे, सकारोपजनश्छान्दसः। भक्तिमान् श्रद्धावन्तः (स्याम) भवेम ॥
विषय
देव संस्फान देव संस्फान
पदार्थ
१. हे (देव) = हमारे सब रोगों को जीतने की कामनावाले [मुञ्चामि त्वा हविषा जीवनाय कमज्ञातयक्ष्मादुत राजयक्ष्मात्], (संस्फान) = धान्यराशि के वर्धयित: यज्ञाग्ने! तू (सहस्त्रपोषस्य) = हज़ारों प्रजाओं के पोषक धनों का (ईशिषे) = ईश है, (तस्य नो रास्व) = वह धन हमें प्रदान कर, (तस्य) = उस धन के भाग को (न: धेहि) = हमारे लिए धारण कर । ते आपके (तस्य) = उस धन के भाग का (भक्तिवांसः स्याम) = हम सेवन करनेवाले हों।
भावार्थ
यह यज्ञाग्नि हमारे रोगों को जीतती है, शतश: पोषणों को प्राप्त करानेवाले धनों को देती है। हम भी यज्ञाग्नि से पोषक धनों के भागों को प्राप्त करें।
भाषार्थ
(संस्फान) सम्यक् वृद्धि करनेवाले (देव) हे दाता परमेश्वर ! (सहस्रापोषस्य) हजार प्रकार के पोषक घन का (ईषिषे) तू अधीश्वर है, (तस्य) उस का भाग (न:) हमें (रास्व) दे, (तस्य) उस का भाग (नः) हमारे लिये (धेहि) धारित या पोषित कर [निर्धारित कर] (ते) तेरे (तस्य) उस अन्न के (भक्तिवांसः) भागवाले (स्याम) हम हों। अथवा उस तुझ की भक्तिवाले, भजन करने वाले हम हों, तेरे दिये अन्न के सेवन द्वारा जीवित हुए तेरा भजन करें।
विषय
प्रचुर अन्न की प्रार्थना।
भावार्थ
हे (देव) प्रकाशस्वरूप (संस्फान) अन्न के वृद्धिकारक ! तू (सहस्र-पोषस्य) हजारों जीवन के पोषण करने में समर्थ धनधान्य का (ईशिषे) स्वामी है। (तस्य) उसे (नः) हमें भी (रास्व) प्रदान कर और (नः) हमें (तस्य) वही (धेहि) दे। (ते) तेरे (तस्य) उसी अपरिमित धन के हम भी (भक्तिवांसः स्याम) भागी हों।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अथर्वा ऋषिः। संस्फानो देयता। १-२ गायत्र्यौ, ३ त्रिपदा प्राजापत्या जगती। तृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Divine Protection
Meaning
O lord self-refulgent of inexhaustible existence, you are the ruler and ordainer of a thousandfold abounding prosperity and growth. Give us plenty of that. Bear that and bring us in plenty. Pray give us the gift of devotion and dedication to you.
Translation
O Lord, grower of food-grains, you are master of a thousand nourishments. May you grant those to us. May you keep those with us. May we become sharers of that wealth of yours.
Translation
This mighty master-force which bedewed with drops in the source of multifarious prosperity let it grant us thereof, give us thereof and may thus, we enjoy the boon of its wealth.
Translation
O Prosperous God, Thou art the Lord of infinite prosperity, grant us thereof, give us thereof, may we share that with Thee, through thy indulgence.
Footnote
That: Prosperity.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
३−(देव) हे प्रकाशमय (संस्फान) सम्+स्फायी वृद्धौ-क्त, छान्दसं रूपम्। हे सम्यक् स्फीत। प्रवृद्ध (सहस्रपोषस्य) अपरिमितपोषणस्य (ईशिषे) ईश्वरो भवसि (तस्य) पोषस्य (नः) अस्मभ्यम् (रास्व) दानं कुरु (तस्य) (नः) (धेहि) धारणं कुरु (तस्य) तथाविधस्य (ते) तव, परमेश्वरस्य (भक्तिवांसः) छन्दसीवनिपौ च वक्तव्यौ। वा० पा० ५।२।१०९। इति भक्ति−वनिप् मत्वर्थे, सकारोपजनश्छान्दसः। भक्तिमान् श्रद्धावन्तः (स्याम) भवेम ॥
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
Misc Websites, Smt. Premlata Agarwal & Sri Ashish Joshi
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
Sri Amit Upadhyay
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
Sri Dharampal Arya
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
N/A
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal