अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 97/ मन्त्र 1
अ॑भि॒भूर्य॒ज्ञो अ॑भि॒भूर॒ग्निर॑भि॒भूः सोमो॑ अभि॒भूरिन्द्रः॑। अ॒भ्यहं वि॑श्वाः॒ पृत॑ना॒ यथासा॑न्ये॒वा वि॑धेमा॒ग्निहो॑त्रा इ॒दं ह॒विः ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒भि॒ऽभू: । य॒ज्ञ: । अ॒भि॒:ऽभू: । अ॒ग्नि: । अ॒भि॒ऽभू:। सोम॑: । अ॒भि॒ऽभू: । इन्द्र॑: । अ॒भि । अहम् । विश्वा॑: । पृत॑ना: । यथा॑ । असा॑नि । ए॒व । वि॒धे॒म॒ । अ॒ग्निऽहो॑त्रा: । इ॒दम् । ह॒वि: ॥९७.१॥
स्वर रहित मन्त्र
अभिभूर्यज्ञो अभिभूरग्निरभिभूः सोमो अभिभूरिन्द्रः। अभ्यहं विश्वाः पृतना यथासान्येवा विधेमाग्निहोत्रा इदं हविः ॥
स्वर रहित पद पाठअभिऽभू: । यज्ञ: । अभि:ऽभू: । अग्नि: । अभिऽभू:। सोम: । अभिऽभू: । इन्द्र: । अभि । अहम् । विश्वा: । पृतना: । यथा । असानि । एव । विधेम । अग्निऽहोत्रा: । इदम् । हवि: ॥९७.१॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
आत्मा की उन्नति का उपदेश।
पदार्थ
(यथा) जिस प्रकार से (अहम्) मैं (अभिभूः) दुष्टों का तिरस्कार करनेवाला (यज्ञः) पूजनीय, (अभिभूः) शत्रुओं का जीतनेवाला (अग्निः) अग्निसमान तेजस्वी, (अभिभूः) वैरियों को वश में करनेवाला (सोमः) चन्द्रसमान सुख देनेवाला और (अभिभूः) दुराचारियों को हरानेवाला (इन्द्रः) महाप्रतापी होकर (विश्वाः) सब (पृतनाः) शत्रुसेनाओं को (अभि असानि) हरा दूँ। (एव) वैसे ही (अग्निहोत्रा) अग्नि [परमेश्वर, सूर्य बिजुली और आग की विद्या] के लिये वाणीवाले हम लोग (इदम्) यह (हविः) देने लेने योग्य कर्म (विधेम) करें ॥१॥
भावार्थ
मनुष्य आत्मिक, शारीरिक और सामाजिक बल बढ़ाकर शत्रुओं का नाश करके अपनी उन्नति करें ॥१॥
टिप्पणी
१−(अभिभूः) दुष्टानां तिरस्कर्त्ता (यज्ञः) पूजनीयः (अभिभूः) शत्रुजेता (अग्निः) अग्निवत्तेजस्वी (अभिभूः) वैरिणां वशयिता (सोमः) चन्द्रवदाह्लादकः (अभिभूः) दुराचारिणामभिभावयिता (इन्द्रः) महाप्रतापी (अहम्) जयकामः (विश्वाः) सर्वाः (पृतनाः) अ० ३।२१।३। शात्रवीः सेनाः (यथा) येन प्रकारेण (अभि असानि) अभिभवानि (एव) एवम् (विधेम) विध विधाने। कुर्याम (अग्निहोत्राः) हुयामाश्रुभसिभ्यस्त्रन्। उ० ४।१६८। इति हु दानादानादनेषु−त्रन्, टाप्। होत्रा वाक्−निघ० १।११। अग्नये परमेश्वरस्य सूर्यविद्वत्पावकस्य वा बोधाय होत्रा वाणी येषां ते तथाभूताः (इदम्) अनुष्ठीयमानम् (हविः) दातव्यग्राह्यकर्म ॥
विषय
यज्ञ व विजय
पदार्थ
१. विजय की कामनावाले हम लोगों से क्रियामण यह (यज्ञः) = यज्ञ (अभिभूः) = शत्रुओं का अभिभव करनेवाला है। याग का निष्पादक यह (अग्निः) = अग्नि (अभिभूः) = शत्रुओं को अभिभूत करता है। यज्ञ का साधनभूत सोमः यह सोम भी (अभिभूः) = शत्रुओं का अभिभविता है। इस सोम से तर्पित (इन्द्रः) = यह जितेन्द्रिय पुरुष भी (अभिभूः) = शत्रुओं को अभिभूत करता है। यज्ञ से पवित्रता की भावना का विकास होता है, यज्ञाग्नि हमें भी अग्नि-[उत्साह]-वाला बनाती है। यह यज्ञ हमें भोगवृत्ति से ऊपर उठकर सोम [वीर्य] का रक्षण करनेवाला बनाता है। रक्षित सोम इस जितेन्द्रिय पुरुष को सदा विजयी बनाता है। २. (अहम्) = मैं (विश्वाः पृतना:) = सब शत्रु सैन्यों को (यथा) = जिस प्रकार (अभ्यसानि) = अभिभूत करनेवाला बनूं। (एव) = इसप्रकार (अग्रिहोत्रा:) = अग्निहोत्र करनेवाले हम (इदं हविः) = इस हवि को (विधेम) = समर्पित करनेवाले बनें। यज्ञशील बनकर ही तो हम विजयी बनेंगे।
भावार्थ
यज्ञशील पुरुष का जीवन उत्साह-सम्पन्न होता है। पवित्र जीवनवाला होने से यह सोम का रक्षण करता है। सोमपान करनेवाला यह इन्द्र कभी पराजित नहीं होता।
भाषार्थ
(यज्ञः) संग्राम यज्ञ या संग्राम विजयनिमित्त प्रारब्धयज्ञ (अभिभूः) शत्रु का पराभवकारी हो, (अग्निः) अग्रणी प्रधानमन्त्री (अभिभूः) पराभवकारी हो, (सोमः) सेनाध्यक्ष (अभिभूः) पराभवकारी हो, (इन्द्रः) सम्राट (अभिभूः) पराभवकारी हो। (अहम्) मैं वरुण-राजा (विश्वाः पृतनाः) शत्रु की सब सेनाओं का (यथा अभि असानि) जिस प्रकार पराभवकर्ता होऊं (एव) इस प्रकार (अग्निहोत्राः) युद्धाग्नि में आहुति देने वाले हम (इदम्) इस (हविः) आत्माहुति को (विधेम) समर्पित करें।
टिप्पणी
[अग्निः अग्रणीर्भवति (निरुक्त ७।४।१४)। सोमः= सेनाप्रेरक सेनाध्यक्ष (यजु० १७॥४०)। इन्द्रः ='इन्द्रश्च सम्राड् वरुणश्च राजा" (यजु० ८।३७)। यज्ञः= जिस प्रकार हविर्यज्ञ में यज्ञाग्नि में हविः की आहुतियां दी जाती हैं, इसी प्रकार युद्धारम्भ करने से पूर्व, सामूहिक रूप में, युद्धाग्नि में आत्माहुतियां देने के दृढ़ संकल्प किये जाते हैं]।
विषय
विजय प्राप्ति का उपाय।
भावार्थ
(यज्ञः) एकत्र होकर मिल कर किया हुआ कार्य (अभिभूः) सबका पराजय करता है। (अग्निः) आगे चलने और सेना को ठीक ठीक मार्ग पर ले जानेवाला विद्वान् पथ-प्रदर्शक (अभि-भूः) विजय दिलाता और संकटों को दूर करता है। (सोमः अभिभूः) सबका प्रेरक, और कार्य-सम्पादक पुरुष या विद्वान् पुरुष विजय करता और सब शत्रुओं का दमन करता है। (इन्द्रः अभिभूः) ऐश्वर्य और शक्तिमान् राजा शत्रुओं पर दमन करता है। हे पुरुषो ! आप लोग (अग्निहोत्राः) जिस प्रकार अग्नि में घृताहुति देकर उसे तीव्र करते हैं उसी प्रकार अपने अग्रणी के कार्य में अपनी आहुतियाँ देकर उसकी शक्ति बढ़ानेवाले हो। हे वीर पुरुषो ! हम सब लोग मिल कर (एव) इस रीति से (हविः) परस्पर मन्त्रणा करके (विधेम) कार्य करें (यथा) जिससे (अहम्) मैं राजा (विश्वाः पृतनाः) समस्त सेनाओं या समस्त मनुष्यों को अभि असानि) अपने वश करूँ और और परसेनाओं का पराजय करूं।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अथर्वा ऋषिः। मित्रावरुणौ देवते। १ त्रिष्टुप्, २ जगती, ३ भुरिक् त्रिष्टुप्। तृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Victory Over Enemies
Meaning
Yajna is victor over the negativities of life; Agni, light, fire, leader, is victor; Soma, moon, soma, peace, is victor; Indra, omnipotence, is victor. Let us offer this havi of our total activity of life into the yajnic fire of life in such a way that we may be victors over negativities, hate, jealousy and enmity in all our battles of life.
Subject
Devah
Translation
The sacrifice is the conqueror; the adorable king is the conqueror, the Soma (the blissful herb) is the conqueror; the resplendent army Chief is the conqueror. We, the invokers of the adorable Lord, offer this oblation, so that I may conquer all the invading hordes.
Translation
Yajna is over powering act, the heat is over powering, the cold is overpowering, the worldly electricity is overpowering force, like these may I overpower all the enemies and in this manner let us offer oblation of yajna performing the acts of sacrifice.
Translation
Concerted action conquers everything. A learned military leader brings victory and removes obstacles. A learned statesman, subdues all foes. A powerful king conquers the enemies. O brave persons, let us unitedly with mutual consent, thu, perform all deeds so that I, the king, may defeat all armies, and bring all men under my control.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
१−(अभिभूः) दुष्टानां तिरस्कर्त्ता (यज्ञः) पूजनीयः (अभिभूः) शत्रुजेता (अग्निः) अग्निवत्तेजस्वी (अभिभूः) वैरिणां वशयिता (सोमः) चन्द्रवदाह्लादकः (अभिभूः) दुराचारिणामभिभावयिता (इन्द्रः) महाप्रतापी (अहम्) जयकामः (विश्वाः) सर्वाः (पृतनाः) अ० ३।२१।३। शात्रवीः सेनाः (यथा) येन प्रकारेण (अभि असानि) अभिभवानि (एव) एवम् (विधेम) विध विधाने। कुर्याम (अग्निहोत्राः) हुयामाश्रुभसिभ्यस्त्रन्। उ० ४।१६८। इति हु दानादानादनेषु−त्रन्, टाप्। होत्रा वाक्−निघ० १।११। अग्नये परमेश्वरस्य सूर्यविद्वत्पावकस्य वा बोधाय होत्रा वाणी येषां ते तथाभूताः (इदम्) अनुष्ठीयमानम् (हविः) दातव्यग्राह्यकर्म ॥
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