अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 104/ मन्त्र 1
कः पृश्निं॑ धे॒नुं वरु॑णेन द॒त्तामथ॑र्वणे सु॒दुघां॒ नित्य॑वत्साम्। बृह॒स्पति॑ना स॒ख्यं जुषा॒णो य॑थाव॒शं त॒न्वः कल्पयाति ॥
स्वर सहित पद पाठक: । पृश्नि॑म् । धे॒नुम् । वरु॑णेन । द॒त्ताम् । अथ॑र्वणे । सु॒ऽदुघा॑म् ॥ नित्य॑ऽवत्साम् । बृह॒स्पति॑ना । स॒ख्य᳡म् । जु॒षा॒ण: । य॒था॒ऽव॒शम् । त॒न्व᳡: । क॒ल्प॒या॒ति॒ ॥१०९.१॥
स्वर रहित मन्त्र
कः पृश्निं धेनुं वरुणेन दत्तामथर्वणे सुदुघां नित्यवत्साम्। बृहस्पतिना सख्यं जुषाणो यथावशं तन्वः कल्पयाति ॥
स्वर रहित पद पाठक: । पृश्निम् । धेनुम् । वरुणेन । दत्ताम् । अथर्वणे । सुऽदुघाम् ॥ नित्यऽवत्साम् । बृहस्पतिना । सख्यम् । जुषाण: । यथाऽवशम् । तन्व: । कल्पयाति ॥१०९.१॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
वेदविद्या के प्रचार का उपदेश।
पदार्थ
(कः) प्रकाशमान [प्रजापति मनुष्य] (बृहस्पतिना) बड़े-बड़े लोकों के स्वामी [परमेश्वर] के साथ (यथावशम्) इच्छानुसार [अपने] (तन्वः) शरीर की (सख्यम्) मित्रता का (जुषाणः) सेवन करता हुआ, (अथर्वणे) निश्चल स्वभाववाले पुरुष को (वरुणेन) श्रेष्ठ परमात्मा करके (दत्ताम्) दी हुई, (सुदुघाम्) अत्यन्त पूरण करनेवाली, (नित्यवत्साम्) नित्य उपदेश करनेवाली, (पृश्निम्) प्रश्न करने योग्य (धेनुम्) वाणी [वेदवाणी] को (कल्पयाति) समर्थ करे ॥१॥
भावार्थ
मनुष्य परमेश्वर की दी हुई कल्याणी वेदवाणी को ईश्वरभक्ति के साथ संसार में फैलावें ॥१॥
टिप्पणी
१−(कः) गतसूक्ते व्याख्यातः। प्रकाशमानः प्रजापतिः पुरुषः (पृश्निम्) घृणिपृश्निपार्ष्णि०। उ० ४।५२। प्रच्छ ज्ञीप्सायाम्-नि। प्रष्टव्याम् (धेनुम्) अ० ३।१०।१। वाचम्-निघ० १।११। वेदवाणीम् (वरुणेन) श्रेष्ठेन परमेश्वरेण (दत्ताम्) (अथर्वणे) अ० ४।३७।१। निश्चलस्वभावाय योगिने (सुदुघाम्) अ० ७।७३।७। सुष्ठु पूरयित्रीम् (नित्यवत्साम्) वृतॄवदिवचिवसि०। उ० ३।६२। वद व्यक्तायां वाचि-स प्रत्ययः। नित्योपदेशिकाम् (बृहस्पतिना) बृहतां लोकानां पालकेन। परमात्मना सह (सख्यम्) मित्रभावम् (जुषाणः) सेवमानः (यथावशम्) यथेच्छम् (तन्वः) शरीरस्य (कल्पयाति) कल्पयतेर्लेटि आडागमः। समर्थयेत् ॥
विषय
'सुदुघा नित्यवत्सा' धेनु
पदार्थ
१. 'पृश्नि' का अर्थ निरुक्त में 'संस्प्रष्टो भासा २.१४' इसप्रकार दिया है। ज्ञानदीप्ति से युक्त यह वेद यहाँ 'धेनु' के रूप में कहा गया है। यह धेनु ज्ञानदुग्ध देनेवाली है। सुखसंदोह्य होने से 'सुदुघा' है तथा सदा ही ज्ञानदुग्ध देनेवाली होने से 'नित्यवत्सा' कही गई है। (क:) = वे अनिरुक्त प्रजापति इस (सुदुघाम्) = सुख-संदोह्य, (नित्यवत्साम्) = सदा वत्सवाली [सर्वदा नवप्रसूता], अर्थात् सदा ही ज्ञानदुग्ध देनेवाली (पृश्निम्) = ज्ञानदीसियों के स्पर्शवाली (धेनुम्) = वेदधेनु को वरुणेन पापनिवारण के हेतु से (अथर्वणे) = [अथर्व] स्थिरवृत्तिवाले पुरुष के लिए (दत्ताम्) = दे। २. यह वेदज्ञान को प्राप्त करनेवाला अथर्वा भी (बृहस्पतिना सख्यं जुषाण:) = उस ब्रह्मणस्पति-ज्ञान के स्वामी प्रभु से मित्रता का प्रीतिपूर्वक सेवन करता हुआ (यथावशम्) = इन्द्रियों को वश में करने के अनुपात में (तन्वः कल्पयाति) = शरीरों को सामर्थ्ययुक्त करता है, अर्थात् जितना-जितना जितेन्द्रिय बनता है, उतना-उतना अपने को शक्तिशाली बना पाता है।
भावार्थ
प्रभु स्थिरवृत्तिवाले पुरुष के लिए पापनिवृत्ति के हेतु से इस वेदधेनु को प्राप्त कराते हैं, जोकि सुदुघा है और सदा ही ज्ञानदुग्ध देनेवाली है। प्रभु से प्रीतिपूर्वक मित्रता का स्थापन करते हुए हम जितेन्द्रिय बनकर अपने शरीरों को शक्तिशाली बनाएँ।
जिस स्थिरवृत्तिवाले पुरुष के लिए प्रभु वेदज्ञान देते हैं, वह 'अथवा' ही अगले दोनों सूक्तों का ऋषि है।
भाषार्थ
(वरुणेन) वरणीय श्रेष्ठ परमेश्वर द्वारा (अथर्वणे) अथर्वा को (दत्ताम्) दी गई, (सुदुघाम्) सुगमता से दोही जाने वाली, (नित्यवत्साम्) नित्य बछड़ों वाली, (पृश्निम्) नानावर्णों वाली (धेनुम्) दुधारू गौ को (कः) कौन (बृहस्पतिना) बृहती वेदवाणी के पति परमेश्वर के साथ (सत्यम्) सखिभाव का (जुषाणः) प्रीतिपूर्वक सेवन करने वाला, (यथावशम्) निज कामनानुसार (तन्वः) निज तनुओं को (कल्पयाति) सामध्ययुक्त करे, या करता है।
टिप्पणी
[वरुण है सब द्वारा वरणीय श्रेष्ठ परमेश्वर। अथर्वा है अचल चित्तवृत्ति वाला परमयोगी। यथा “अथर्वा यत्र दीक्षितो बर्हिष्यास्त१ हिरण्यये"। (अथर्व० १०।१०।१७) अर्थात् जिस हिरण्यमय आसन पर अथर्वा आसीन हुआ है। और हिरण्यय [हिरण्यमय] आसन या कोश है, हृदय (अथर्व० १०।२।३१,३२)। इसे हिरण्ययी पुर् भी कहा है (अथर्व० १०।२।३३)। इस हृदयासन में अथर्वा योगावस्था में स्थित होता है और इस अवस्था में अथर्वा को वेदवाणी का साक्षात्कार भी वरुण की कृपा से होता है। वरुण को बृहती वाणी का पति बृहस्पति भी कहा है। वेदवाणी ज्ञान-दुग्ध प्रदान करती है, और सदा प्रदान करती है, यतः यह नित्यवत्सा है। नित्यवत्सा द्वारा वेदवाणीरूपी धेनु को सदा ज्ञान-दुग्ध प्रदात्री कहा है। यह धेनु सुगमता से दोही जा सकती है उस गोग्धा द्वारा जो इस की नित्यसेवा करता है, श्रद्धापूर्वक स्वाध्याय करता रहता है। जैसे कि कहा है "उतो त्वस्मै तन्वं विसस्रे जायेव पत्ये उशती सुवासाः" (ऋ० १०।७१।४), अर्थात् सतत स्वाध्यायी के लिये वेदवाणी ने स्वरूप को प्रकट कर देती है जैसे कि कामनावाली पत्नी पति के प्रति अपनी तन को प्रकट कर देती है। अतः वेद धेनु सुदुधा है। वेद-धेनु नाना वर्णों वाली है, नानाविध पदार्थों का वर्णन करती है, जैसे कि चितकबरी धेनु नाना वर्णों वाली होती है। जो व्यक्ति सदा वेद-धेनु की सेवा करता, और बृहस्पति के साथ सखिभाव में रहता है वह निज कामनानुसार अपनी तीन तनूओं, देहों को सामर्थ्यसम्पन्न कर लेता है। ये तनू हैं, स्थूल, सूक्ष्म तथा कारण शरीर। अथवा। "यथावशं तन्वः कल्पयाति" का वह भी अभिप्राय हो सकता है कि योगी के यदि कोई अवशिष्ट कर्म हैं जिन्हें कि देहान्तरों में भोगा जा सकता है तो वह "यथावशम्" अर्थात् निज कामना द्वारा उन देहान्तरों का निर्माण कर अवशिष्टकर्मों के फलों को भोगकर मोक्ष प्राप्त कर लेता है। सम्भवतः यह है "तन्वः कल्पयाति" का अभिप्राय। एतदर्थ देखो योगदर्शन के सूत्र (योग, कैवल्यपाद सूत्र १-५)।] [१. बर्हिषि= बहिः अन्तरिक्षनाम (निघं० १।३)। यहां अन्तरिक्ष द्वारा हृदयान्तरिक्ष अभिप्रेत है जहां अथर्वा योगासीन होता है। हृदय को कोश तथा पुर् भी कहा है।]
विषय
प्रजापति ईश्वर।
भावार्थ
(कः) प्रजापति के सिवाय और कौन है जो (पृश्चिम्) श्वेत वर्ण, उज्ज्वल अथवा ब्रह्मानन्द के भीतरी रस का आस्वादन करने वाली, (वरुणेन) सर्व विघ्ननिवारक परम राजा प्रभु ईश्वर की (अथर्वणे) ज्ञानवान्, अहिंसित नित्य आत्मा को (दत्ताम्) प्रदान की हुई दुधारी सुशील गाय के समान (सु-दुधाम्) आत्म-सुख प्रदान करने और (धेनुम्) रसपान करने वाली (नित्य-वत्सां) नित्य मनोरूप वत्स के साथ जुड़ी हुई अथवा (नित्य वत्सां) नित्य निवास करनेहारी अविनाशिनी शक्ति को (बृहस्पतिना) वाणी के पालक प्राण के साथ (सख्यम्) मैत्रीभाव को (जुषाणः) रखता हुआ या परस्पर प्रजा के साथ उस शक्ति से प्रेम ममत्व का सम्बन्ध करता हुआ, (यथा-वशम्) अभिलाषा या इच्छा के अनुसार (तन्वः) इस शरीर के भीतर (कल्पयाति) सामर्थ्यवान् बनाता है। अर्थात् इस शरीर में नित्य चेतनाशक्ति को प्राण के साथ जोड़कर उसे शरीर के भीतर इच्छानुसार कार्य करने को समर्थ कौन बनाता है ? वह प्रभु ही बनाता है। वरुण देव ने अथर्वा को गाय दी इत्यादि प्ररोचनामात्र है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ब्रह्मा ऋषिः आत्मा देवता। त्रिष्टुप् छन्दः। एकर्चं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
The Holy Cow: the Word
Meaning
Who in love and worshipful friendship with Brhaspati, Lord of unbounded space and boundless knowledge, to the best of his will and potentiality, sustains in body and eternal vitality the Rainbow Cow, versatile and universal Word of the Veda, ever abundant, ever fertile, given by Varuna, Lord of omniscience and cosmic wisdom, to Atharvan, the sage of stable mind established in Divinity? Answer: Kah, Prajapati, lord sustainer of the people, the Brahmana, sustainer of the wisdom and values of society.
Subject
Atman
Translation
Who, enjoying the companionship of the Lord supreme, shapes according to his own will the body (and form) of the spotted milch-cow, given by the venerable Lord to the preserving seeker, and which is easy to milk and is always with her calf.
Comments / Notes
MANTRA NO 7.109.1AS PER THE BOOK
Translation
The happy ascetic even enjoying the alliance of the body through Brihaspati, the vital breath brings according to his will, under his control the intellect which gives many understanding, which is allied with immortal mind to be known as her cub, which is concerned with various problems and which is a signed to Atharvan, the soul by Varuna, the Lord of the universe.
Translation
A learned person, willingly enjoying the alliance of his soul with God, should strengthen Vedic speech, the solver of the subtle questionings of the soul, granted by God to a determined Yogi, spiritual developer of man, and constant preacher of nice moral truths.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
१−(कः) गतसूक्ते व्याख्यातः। प्रकाशमानः प्रजापतिः पुरुषः (पृश्निम्) घृणिपृश्निपार्ष्णि०। उ० ४।५२। प्रच्छ ज्ञीप्सायाम्-नि। प्रष्टव्याम् (धेनुम्) अ० ३।१०।१। वाचम्-निघ० १।११। वेदवाणीम् (वरुणेन) श्रेष्ठेन परमेश्वरेण (दत्ताम्) (अथर्वणे) अ० ४।३७।१। निश्चलस्वभावाय योगिने (सुदुघाम्) अ० ७।७३।७। सुष्ठु पूरयित्रीम् (नित्यवत्साम्) वृतॄवदिवचिवसि०। उ० ३।६२। वद व्यक्तायां वाचि-स प्रत्ययः। नित्योपदेशिकाम् (बृहस्पतिना) बृहतां लोकानां पालकेन। परमात्मना सह (सख्यम्) मित्रभावम् (जुषाणः) सेवमानः (यथावशम्) यथेच्छम् (तन्वः) शरीरस्य (कल्पयाति) कल्पयतेर्लेटि आडागमः। समर्थयेत् ॥
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